व्यापक-लक्षण तथा मुख्य-रोग प्रकृति
(1) एलूमेन और एलूमिना का संबंध
(2) एलूमिना क़े मानसिक लक्षण – मानसिक शिथिलता, जड़ता, निर्णय शक्ति का अभाव, हर बात में देरी का अनुभव
(3) चाकू या खून देखकर दूसरे को या अपने को मारने का ख्याल आना
(4) प्रात: काल उठने के बाद उदासी – चित्त-वृत्ति का बदलते रहना
(5) स्नायु-संस्थान के लक्षण, मेरुदण्ड में जलन आदि की कारण शिथिलता
(6) मूत्राशय तथा मलाशय की शिथिलता
(7) बुढ़ापे में चक्कर आना (Vertigo)
(8) बच्चा सो कर घबराया उठता है
(9) नाक तथा गले में कटार (जुकाम)
(10) खुजली होने की बाद फोड़े-फुंसी होते हैं, पहले नहीं होते
(11) बेहद खुश्की; मुख, हाथों पर मकड़ी के जाले का-सा अनुभव; बाल झड़ना
(12) गायकों आदि में आवाज का बैठना
(13) स्त्रियों में पानी की तरह टांगों तक बह जाने वाला प्रदर
(14) मासिक-धर्म बन्द होने की आयु में
(15) गर्भवती स्त्री तथा शिशु का कब्ज
(16) स्त्रियों का गोनोरिया
लक्षणों में कमी
(i) सायंकाल लक्षण में कमी
(ii) खुली हवा से लक्षणों में कमी
(iii) हल्के चलने-फिरने से कमी
(iv) ठंडे पानी के स्नान से कमी
(v) नम हवा से रोग में कमी
लक्षणों में वृद्धि
(i) गर्मी में रोग बढ़ना
(ii) गर्म, बन्द कमरे में रोग में वृद्धि
(iii) आलू खाने से रोग में वृद्धि
(iv) बातचीत करने से रोग में वृद्धि
(v) खुश्क ऋतु में रोग में वृद्धि
(vi) प्रात:काल उठने के बाद वृद्धि
(vii) बैठे रहने से रोग में वृद्धि
(viii) रजोधर्म के बाद रोग में वृद्धि
(ix) समय-समय पर रोग का बढ़ना-घटना
(1) एलूमेन और एलूमिना का संबंध – फिटकरी को एलूमेन कहते हैं, और एलूमिना एक धातु है जिसके बर्तन बनते हैं जो एलूमीनियम के बर्तन कहलाते हैं। यद्यपि ये दो पृथक तत्व हैं, तो भी इनकी प्रकृति में बहुत-कुछ समानता है। एलूमेन के शारीरिक-लक्षणों का परीक्षण हुआ है एलूमिना के शारीरिक तथा मानसिक दोनों लक्षणों का पता लगाया गया है, परन्तु क्योंकि दोनों पदार्थों का आधार एलूमीनियम ही है इसलिये एलूमेन भी उन मानसिक-लक्षणों को ठीक कर देता है जो मानसिक-लक्षण एलूमिना में पाये जाते हैं। इससे पहले कि हम एलूमिना के शारीरिक तथा मानसिक लक्षणों की चर्चा करें एलूमीनियम के बर्तनों में खाना पकाने के संबंध में कुछ लिख देना प्रकरण संगत प्रतीत होता है क्योंकि इस पर होम्यो-जगत् में विशेष चर्चा रही है।
एलूमीनियम के बर्तनों में खाना पकाने से हानि – एलूमीनियम धातु की परीक्षा करने पर, इस धातु के बने बर्तन व्यवहार करने पर ज्यादा खट्टा या क्षार द्रव्य के उसमें मिलने से बुरे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। हम लोगों की, खासकर कलकत्ता वासियों की कब्जियत इसका विशेष परिचायक है। एक रूसी ने अपने साढ़े तीन वर्ष के कुत्ते को जो रोग से पीड़ित था पशु-डाक्टरों को दिखाया। वे उसके रोग का कोई निदान न कर सके। वह अपने कुत्ते का भोजन एलूमीनियम के बर्तन में पकाती थी। कुत्ते को लगातार उल्टी आती थी। छ: मास में कुत्ते की बुरी हालत हो गई और वह पानी तक न पचा सकता था। इतने में डाक से उसे एक इश्तिहार मिला जिसमें एलूमीनियम से कुत्तों के विषग्रस्त होने का वर्णन था। कुत्ते के मालिक ने एलूमीनियम के बर्तन में भोजन बनाना छोड़कर दूसरे बर्तन में भोजन बनाना शुरू कर दिया और कुत्ता ठीक हो गया। इससे प्रतीत होता है कि कुत्ते पर एलूमीनियम की सूक्ष्म-शक्ति का प्रभाव हो रहा था। यह ठीक है कि सब पर इस प्रकार का प्रभाव नहीं होता है। इसका यही कारण है कि कई लोग किसी वस्तु से प्रभावित होते हैं, कई नहीं होते, परन्तु यह आम विचार है कि एलूमीनियम के बर्तन में भोजन बनाने से इस धातु का प्रभाव भोजन में आ जाता है, और इससे ही कई रोगियों को उल्टी, कब्ज आदि की शिकायत हो जाती है। अपने देश में तांबे के बर्तन में पानी रखने की प्रथा है -इसका भी होम्योपैथिक रूप में स्वास्थ्यकर महत्व है।
(2) एलूमिना के मानसिक लक्षण – मानसिक शिथिलता, जड़ता, निर्णयशक्ति का अभाव – एलूमेन की तरह एलुमिना में भी शिथिलता पायी जाती है, यह इसका व्यापक-लक्षण है। यह शिथिलता शारीरिक-स्तर पर ही नहीं, मानसिक-स्तर पर भी प्रकट होती है। रोगी के मन, बुद्धि को एलूमिना मानो जकड़ लेता हैं, और उसे भ्रम में डाले रखता है। रोगी किसी प्रकार का निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है। उसकी निर्णय-शक्ति कमजोर हो जाती हैं। जिन चीजों को वह पहले वास्तविक रूप में जानता था, वे अब उसे अवास्तविक लगने लगती हैं। जब वह कुछ कहता है, तो उसे ऐसा प्रतीत होता है कि कोई दूसरा कह रहा है, जब वह कुछ देखता है, तो उसे ऐसा प्रतीत होता है कि कोई दूसरा देख रहा है, या जब वह अपने को दूसरे के रूप में परिवर्तित कर लेता हे तब समझता है कि वह कह या देख रहा है। यह मन की गड़बड़ाहट है, विचारों की गड़बड़ाहट। उसे अपने व्यक्तित्व के विषय में सन्देह हो जाता है, उसे यह निश्चय नहीं रहता कि वह कौन था, ऐसा लगता है कि वह नहीं है जो वह था। लिखने-पढ़ने में गलतियां करता है, गलत शब्दों का प्रयोग करता है, मन मानो शिथिल और खंडित हो जाता है।
समय बहुत धीरे बीतता मालूम देता है – एलूमिना के मन की एक दूसरी अवस्था यह है कि उसे समय बहुत धीरे बीतता लगता है। वह समझता है कि चीजें जिस तेजी से होनी चाहियें उस तेजी से नहीं हो रहीं, सब कायों में देर हो रही हैं, जिस काम में आधा घंटा लगना चाहिये उसमें दिन भर लग रहा है।
(3) चाकू या खून को देखकर दूसरे को या अपने को मारने का ख्याल – एलूमिना औषधि का मन पर इतना अधिक प्रभाव है कि रोगी अगर चाकू को देखता है या खून देखता है, तो उसके भीतर दूसरे का या अपना ही खून करने की भावना प्रबल हो उठती हैं, वह आत्महत्या करना चाहता है।
(4) प्रात:काल उठने के बाद उदासी – एलूमिना औषधि का रोगी प्रात:काल सोकर उठने के बाद उदास होता है, रोता है। वैसे वह रोता-धोता ही रहता है। अपनी परिस्थिति से दूर भाग जाना चाहता है, भयभीत रहता है, समझता है कि जिन परिस्थितियों से घिरा है उनसे हटने पर उसका दु:ख दूर होगा। साधारणतया भयभीतपना उसमें भरा रहता है। जब अपनी मानसिक-दशा को सोचने लगता है तब डरता है कि कहीं पागल न हो जाय। जब वह सोचता है कि वह अपना नाम तक भूल जाता है, मन गड़बड़ाया रहता है, तब वह सोचने लगता है कि अब वह सचमुच पागल हो गया है। प्रात:काल सोकर उठने के बाद उसमें ऐसे विचार आते-जाते रहते हैं, परन्तु चित-वृति बदलती रहती है। कभी निराश की मनोवृति से निकल कर वह आशाभरी, शांत मनोवृति में आ जाता है, इसके बाद फिर उसी निराशा के गर्त में जा गिरता है। एलूमिना औषधि की प्रकृति में समय-समय पर रोग का बढ़ना-घटना है।
(5) स्नायु संस्थान के लक्षण, मेरुदण्ड के जलन आदि लक्षणों के कारण शिथिलता – जो स्नायु (Nerves) मेरु-दण्ड से निकलते हैं उन पर एलूमिना औषधि की विशेष क्रिया है। मेरु-दण्ड के स्नायु ही शरीर की मांसपेशियों की क्रियाशीलता के कारण है। उनमें शिथिलता आने से भोजन-नली में, निगलने में कठिनाई अनुभव होती है, हाथ उठाने-हिलाने में कठिनाई होती है, शरीर का कोई-सा भी अंग अर्धांग से पीड़ित हो जाता है, टांगों में, मल-द्वार, मूत्र-द्वार में शिथिलता, जड़ता अनुभव होती है। पहले-पहले इन अंगों की क्रियाशीलता नष्ट होती है, फिर अन्त में पूरा अर्धांग हो जाता है। पांव में कांटा लगे, कोई चूंटी मारे तो एकदम अनुभव नहीं होता।
मेरुदण्ड में जलन (Burning of spine) होती है, पीठ में दर्द होती है। रोगी कहता हैं: “पीठ में ऐसी दर्द होती है मानों मेरु-दण्ड के नीचे की कशेरुका (Vertebra) में गर्म लोहा घुसेड़ दिया गया हो।” मेरु-दण्ड के प्रदाह में जब पीठ की मांसपेशियों में ऐंठन अनुभव हो, और मेरु-दण्ड की उपझिल्ली शोथ हो, वहां एलूमिना आश्चर्यजनक कार्य करता है।
(6) मूत्राशय की शिथिलता – स्त्री या पुरुष को देर तक पेशाब के लिये बैठे रहना पड़ता है, पेशाब उतरता ही नहीं, देर में उतरता है, धीरे-धीरे निकलता है, रोगी कहता है कि पेशाब जल्दी नहीं उतरता। कभी-कभी धार की जगह बूंद-बूद टपकता है। यह इस अंग की शिथिलता के कारण ही है जो इस औषधि का व्यापक-लक्षण है। इसका विलक्षण लक्षण यह है कि पेशाब करने के लिये मलाशय अर्थात् गुदा पर जोर लगाना पड़ता है।
मलाशय की शिथिलता – मलाशय इतना शिथिल हो जाता है कि भरा रहने पर भी मल नहीं निकलता, मल कठोर न होकर तरल भी क्यों न हो, वह निकलता ही नहीं। जब गुदा-द्वार में इस प्रकार की जड़ता, शिथिलता हो कि दस्त भी न निकले, ऐसी कब्ज हो, तब यह औषधि उत्तम कार्य करती है। अगर ऊपर लिखे गये मानसिक-लक्षण मौजूद हों तब कठोर मल और कठिन कब्ज होने पर भी एलूमिना औषधि से बड़ा लाभ होता है। रोगी को अनुभव होता है कि मल-द्वार मल से भरा है, तब भी जोर लगाने पर भी मल नहीं निकलता। रोगी को पेट की मांस-पेशियों से जोर लगा कर मल को निकालना पड़ता है, परन्तु गुदा-द्वार की मांस-पेशियां मल को धकलने में कोई सहायता नहीं देती। पतले मल को भी निकलने में जोर लगाना पड़ना इस औषधि का प्रधान लक्षण है। कठिनाई से मल निकालने पर प्रोस्टेट ग्लैंड का स्राव निकल पड़ता है क्योंकि मल के लिये जोर लगाने पर इस ग्रन्थि पर जोर पडता है।
परन्तु इस आधार पर ही एलूमिना दे देना कि पतला मल भी जोर लगाने से ही निकलता है होम्योपैथी नहीं है। होम्योपैथी में एक ही लक्षण पर दवा नहीं दी जाती, रोगी की लक्षण-समष्टि पर ध्यान दिया जाता है। उदाहरणार्थ, पतले मल के लिये भी जोर लगाना पड़ना चायना में भी है, परन्तु इन सब दवाओं में प्रत्येक दवा का अपना व्यक्तित्व सामने आ जाना चाहिये।
अगर रोगी आकर कहे कि उसे पतले मल के लिये भी जोर लगाना पड़ता है, परन्तु साथ ही कहे कि उसकी प्रकृति ऐसी है कि वह जगा नहीं रह सकता, पढ़ने लगता है तो झट सो जाता है. मानो सदा सोया-ही-सोया रहता है, देर तक खड़ा रहना पड़े तो गश खा जाता है, बन्द कमरे में परेशान हो जाता है, परन्तु खुली ठंडी हवा में जाये तो भी परेशान हो जाता है, तो ऐसी रोगी के लिये एलूमिना नहीं, नक्स मौस्केटा देने से उसकी कब्ज की शिकायत दूर होगी।
अथवा, अगर रोगी कहे कि उसे पतले मल के लिये जोर लगाना पड़ता हैं, परन्तु उसका पेट मानो हवा से भरा होता है, चेहरा खून के अभाव से पीला पड़ा हुआ है, कमजोर है, ऊपर से डकारें आती हैं, नीचे से हवा खारिज होती रहती है, जितनी हवा ऊपर-नीचे से निकलती हैं, उतनी उसकी परेशानी भी बढ़ती जाती हैं, तो ऐसे रोगी की कब्ज न एलूमिना से ठीक होगी, ना ही नक्स मौस्केटा से, उसकी कब्ज चायना से ठीक होगी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि होम्योपैथ के लिये औषधियां बोलने लगती हैं, चित्रवत् उसकी आंखों के सामने आ खड़ी होती हैं। इसी को औषधि चित्रण कहते हैं।
(7) शिथिलता, कमजोरी तथा बुढ़ापे में चक्कर आना – एलूमिना के रोगों का उदभव स्नायु-मंडल या मेरुदंड की विकृति से होता है, उसी के कारण इस औषधि का व्यापक-लक्षण जड़ता, शिथिलता है। यही कारण है कि यह चक्करों (Vertigo) की भी दवा है। रोगी को लगता है कि चीजें लगातार घूम रही हैं, स्पाइन के रोगों में आंख बन्द करने पर चक्कर आता है, वृद्ध-व्यक्तियों को शिथिलता के कारण चक्कर आ जाता है। चलने में व्यक्ति डगमगाता है। इसी कारण पैरों में, हाथों की अंगुलियों में सुन्नपना (Numbness) भी आ जाता है। रोगी की प्रारंभिक अवस्था में एलूमिना इन रोगों को ठीक कर देता है।
(8) बच्चा सोकर घबराया उठता हैं – इसकी प्रकृति में हमने लिखा है कि इसके रोग प्रात:काल सोकर उठने के बाद बढ़ते हैं। एलूमिना के मानसिक लक्षणों में शिथिलता, जड़ता के कारण बच्चा प्रात:काल जब सोकर उठता है तब घबराया हुआ होता है। उसकी शारीरिक तथा मानसिक स्थिति शिथिल होती है। ज्यों-ज्यों दिन बढ़ता है, अंगों में चलने-फिरने से जान आने लगती हैं, त्यों-त्यों वह चेतन होने लगता है। सोकर उठने पर तो सब चीजें उसे अपरिचित-सी मालूम होती है।
(9) नाक तथा गले में कटार-जुकाम – सब अंगों की शिथिलता का असर नाक तथा गले पर भी पड़ता है। नाक तथा गले की झिल्ली (Membrane) खुश्क हो जाती है। नाक बन्द अनुभव होती है, ज्यादातर बायीं नाक। नाक में बड़ी, नीली-सी, बदबूदार, सूखी पपड़ी जमा हो जाती है। रोगी हर समय खांसता और नाक साफ करता रहता है। नाक से यह अवस्था नाक के पीछे के भाग तक फैल जाती हैं जहां नासिका के मल के थक्के जमा हो जाते हैं। गले के भीतर देखा जाय, तो हलक में लसदार बलगम चिपका रहता है। गले में अत्यन्त खुश्की अनुभव होती है, ऐसा प्रतीत होता है कि गले में खपाच अटका हुआ हैं। अर्जेन्टम नाइट्रिकम, नाइट्रिक एसिड तथा हिपर में भी यह अनुभूति रहती है। यह कटारल हालत भोजन की प्रणाली तक फैल जाती है, और रोगी को निगलने में भी कठिनाई प्रतीत होती है। इस सब का कारण एलूमिना का शिथिलता, जड़ता आदि का वह व्यापक लक्षण है जो इस औषधि का चरित्रगत-लक्षण कहा जा सकता है।
(10) खुजली होने के बाद फोड़े-फुन्सी पहले नहीं – फोड़े-फुन्सी के दो रूप हैं। कई बार तो त्वचा में इतनी खुजली होती है कि खुजलाते-खुजलाते त्वचा छिल जाती है और फिर फोडे-फुन्सी हो जाते हैं। कई बार पहले फोड़े-फुन्सी होते हैं और उन्हें खुजलाना पड़ता है। नौसिखिये लोग फोड़ा-फुन्सी देख कर हिपर दे देते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं है। एलूमिना में त्वचा सूख जाती है, उस में दरारें पड़ जाती हैं, वह सख्त हो जाती है – कारण वही शिथलता और जड़ता – और उसे खुजलाते-खुजलाते त्वचा छिल जाती है और फोडे-फुन्सी हो जाते हैं। अगर खुजली पहले और फोडे-फुन्सी बाद को खुजलाने की वजह से हों, तब एलूमिना, मेजेरियम, आर्सेनिक आदि देते हैं, अगर फोड़ा-फुन्सी पहले हो और बाद को खुजली हो तब हिपर देते हैं।
(11) बेहद खुश्की, मुख तथा हाथों पर मकड़ी के जाले के लिपटने का-सा अनुभव; बाल झड़ना – बेहद खुश्की इसका व्यापक-लक्षण है। खुश्क जुकाम का हम जिक्र कर चुके हैं। मुख पर की रुधिर-प्रणालिकाएं सूख जाती हैं जिनके कारण ऐसा अनुभव होता है कि मुख पर मकड़ी का जाला लिपटा है। यह अनुभूति इतनी कष्टप्रद होती है कि रोगी बैठा-बैठा मुख रगड़ा करता है। हाथों की पीठ पर भी ऐसा ही अनुभव होता है। रोगी मुंह पर बार-बार ऐसे हाथ फेरता है जैसे चेहरे पर से कुछ हटा रहा हो।
(12) गायकों आदि में आवाज का बैठ जाना – लकवे जैसे शिथिलता इस औषधि का व्यापक-लक्षण है। इसी कारण गला भी बैठ जाता है। गायक थोड़ी देर ही गा सकता है, फिर गला काम नहीं देता। धीरे-धीरे यह शिथिलता इतनी बढ़ जाती है कि बोलना ही बन्द हो जाता है। इस प्रकरण में रस टॉक्स नहीं भूलना चाहिये। रस टॉक्स में गायक जब गाना शुरू करता है तब आवाज धीमी होती है, परन्तु ज्यों-ज्यों वह गाता जाता है, गला गर्म होता जाता है, गति से रस टॉक्स के व्यक्ति को लाभ पहुँचता है, और उसका स्वर गाते-गाते चमक उठता है। परन्तु अगर रस टॉक्स का व्यक्ति गला गर्म होने पर फिर ठंडी जगह चला जाय, तो गला फ़ौरन बैठ जायगा, अगर गर्म कमरे में ही रहे तो गला नहीं बैठेगा। फॉस्फोरस के गले में जब गायक गाना शुरू करता है, तब उसे गले के कफ को बार-बार साफ करना पड़ता है, जब कफ साफ हो जाता है तब उसका गला ठीक काम करने लगता है, परन्तु गाते-गाते गला दर्द करने लगता है, इतना दर्द होता है कि आवाज निकालने में चाकू से कटने का-सा दर्द होता है। जब तक आवाज के बैठने को ठीक करने के लिये एलूमिना का पता नहीं लगा था तब तक होम्योपैथ गले बैठने पर गायकों, व्याख्याताओं को अर्जेन्टम नाइट्रिकम देते थे, परन्तु उसकी अपेक्षा एलूमिना अच्छा काम करता है।
(13) स्त्रियों में पानी की तरह टांगों तक बह जाने वाला प्रदर – स्त्रियों के रोगों में भी एलूमिना की आधारभूत शिथिलता का लक्षण दिखाई देता है। रोगी के जननांग इतने शिथिल हो जाते हैं कि प्रदर का पानी टांगों के नीचे तक आ बहता है। यह पानी तीखा, त्वचा को काटता है, पीला होता है। यह अंडे की सफेदी जैसा भी हो सकता है, तारों वाला, जांघों पर एड़ियों तक बह जाने वाला। इस प्रदर के साथ रोगी के जननांगों में निम्न-लक्षण प्रकट होते हैं :-
(i) जरायु को मुख पर जख्म
(ii) सब जननांगों में शिथिलता
(iii) जननांगों की शिथिलता के कारण नीचे को बोझ की अनुभूति
(iv) सब मांसपेशियों में कमजोरी, ढिलाई और शिथिलता
(14) मासिक-धर्म बन्द होने की आयु के लक्षणों में उपयोगिता – जब 45 वर्ष के आस-पास स्त्री का मासिक-धर्म बन्द होने का समय आ जाता है, रज में न्यूनता, शिथिलता आ जाती है, रोगिणी अपने को निहायत कमजोर अनुभव करने लगती है, और जितना-कितना भी रजोधर्म होता है वह स्त्री को परेशान कर देता है, उस अवस्था में एलूमिना बहुत लाभ करता है।
(15) गर्भवती स्त्री तथा शिशु का कब्ज – जो स्त्री कब्ज की शिकार नहीं भी होती वह गर्भावस्था में इस रोग से पीड़ित हो जाती है। उसका मल-द्वार काम नहीं करता, उसमें मल-निस्सारण की शक्ति नहीं रहती, पेट की पेशियों पर दबाव डालने पर शौच उतरता है। ऐसे ही, नवजात-शिशु या कुछ महीने का शिशु जब कांखता जाता है और शौच नहीं उतरता, शौच आने पर दीखता है कि वह तो इतना कड़ा नहीं था कि न उतरता – ऐसी हालत में एलूमिना औषधि लाभप्रद है।
(16) स्त्रियों तथा पुरुषों का गोनोरिया – जब कोई स्त्री गोनोरिया रोग से पीड़ित हो जाय और पल्सेटिला तथा थूजा देने पर रोग में कमी तो आ जाय, परन्तु उसका मूल-नाश न हो, रोग बार-बार पलट कर आता रहे और गोनोरिया का स्राव समाप्त होने में न आये, तब एलूमिना से लाभ होता है। पुरुषों में भी अगर गोनोरिया अन्य औषधियों से ठीक हो जाय परन्तु फिर भी आता-जाता रहे, तो एलूमिना का उपयोग करना चाहिये।
(17) एलूमिना औषधि का सजीव-चित्रण – इसकी प्रकृति के रोग के रुधिर की गति इतनी शिथिल होती है कि सर्दी में उसके हाथ-पांव ठंडे हो जाते हैं, वे खुश्की के कारण फट जाते हैं, पैरों में बड़ी-बड़ी बिवाइयां पड़ जाती हैं, उनसे खून निकलने लगता है। ठंड से उसके रोग बढ़ जाते हैं, नम मौसम में वह अच्छा अनुभव करता है। त्वचा का अत्यन्त खुश्क होना इस औषधि का चरित्रगत-लक्षण है। रोगी अपने को कपड़े से ढके रखना चाहता है, शरीर को गर्म कपड़ों से ढके रहता है, परन्तु फिर भी खुली हवा चाहता है। मौसम की जरा भी तब्दीली से उसे ठंड लग जाती है, जुकाम हो जाता है। कभी-कभी बिस्तर में लेटते हुए इतनी ठंड अनुभव करता है कि दांत किटकिटाते हैं, परन्तु कुछ देर बाद बिस्तर में उसे इतनी खाज उठती है और गर्मी लगती है कि कपड़ा रखना नहीं चाहता। ये दोनों विरोधी बातें इसकी प्रकृति में पायी जाती हैं, यही इसका सजीव-चित्रण है।