क्षय रोग भी एक संक्रामक रोग है। दुनियाभर में मरने वाले लोगों में 7% मृत्यु क्षय रोग के कारण ही होती है, इस रोग की चपेट से संसार का कोई भी राष्ट्र, सम्प्रदाय अथवा कोई लिंग (स्त्री/पुरुष) बचा नहीं है। हमारे देश में भी प्रतिवर्ष क्षय से पीड़ित रोगी हजारों की संख्या में मर जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में हर समय 20 लाख स्त्री-पुरुष फेफड़ों की क्षय से ग्रस्त पाये जाते हैं । शहर के लोग जो अन्धेरे और छोटे मकानों तथा दूषित वातावरण में निवास करते हैं, ग्रामीणांचल के स्वच्छ तथा खुले वातावरण में निवास करने वाले लोगों की अपेक्षा इस रोग से अधिक संख्या में ग्रसित होते हैं। इस रोग का कारण एक विशेष प्रकार का कीटाणु है जिसको माइको बेक्टेरियल ट्यूबरक्यूलोसिस कहा जाता है। यह कीटाणु शरीर के प्रत्येक भाग में संक्रमण – उत्पन्न कर सकता है। यह कीटाणु शरीर के प्रत्येक भाग में संक्रमण उत्पन्न कर सकता है और किसी भी प्रत्यंग में जमकर छोटी-छोटी गाँठे या दानें उत्पन्न कर देता है ।
जब क्षय रोग के कीटाणु शरीर में प्रविष्ट होते हैं तो रक्त के श्वेत कण और शरीर में मुकाबला करने वाले तत्त्व इन कीटाणुओं से मुकाबला करने के लिए वहाँ पहुँचकर उन कीटाणुओं के चारों ओर एक प्रकार का कोया (घेरा) बना लेते हैं और कीटाणुओं को अधिक हानि पहुँचाने से रोकने का प्रयत्न करते हैं। धीरे-धीरे इस घेरे की आकृति ट्यूमर (गाँठ) के समान हो जाती है । इसीलिए इसको डॉक्टरी शब्दों में ट्यूबरकल कहते हैं। जब इन गाँठों की रचना कैल्शियम में बदल जाती है तो क्षय रोगी पूर्णरूप से रोग मुक्त हो जाता है। कई बार यह प्रतिक्रिया मनुष्य को रोगी किये बिना ही पूर्ण हो जाती है और उसको इस बात का पता भी नहीं लगता है कि उसको क्षय रोग का संक्रमण हो गया था परन्तु यदि कीटाणु शरीर में बहुत अधिक संख्या में पहुँच जायें तो अधिकतर रोग निवारक शक्ति कीटाणुओं को घेर नहीं सकती अर्थात् दूसरे शब्दों में क्षय रोग के कीटाणु रोग निवारक शक्ति पर विजय प्राप्त कर लेते हैं और परिणामस्वरूप रोगी क्षय रोग से ग्रसित हो जाता है । क्षय रोग का प्रारम्भ इसी प्रकार होता है ।
ट्यूबरक्यूलोसिस एक विशाल शब्द है जो विभिन्न अंगों के क्षय के लिए प्रयोग होता है और विभिन्न पीड़ित अंगों के अनुसार उसको नामांकित किया जाता है। उदाहरण के लिए-जब फेफड़े रोग ग्रसित हो तो उसे फेफड़ों की क्षय (पल्मोनरी ट्यूबरक्यूलोसिस अथवा थाइसिस) कहा जाता है। क्षय रोग के कीटाणु जब समस्त शरीर में फैल जाते हैं तो उसको कगु क्षय (मिलियरी) ट्यूबरक्यूलोसिस कहा जाता है । मस्तिष्कावरण में क्षय की गुठलियाँ उत्पन्न हो जाती हैं तो उसको यक्ष्मज मस्तिष्कारवरण शोथ (ट्यूबरकूलर मेनिन्जाइटिस) कहा जाता है जब गर्दन की ग्रन्थियाँ क्षय रोग से ग्रसित हो जाती हैं तो उसको कण्ठमाला (स्क्रोफ्यूला) कहा जाता है। स्वर यन्त्र में कीटाणुओं के पहुँच जाने पर स्वरयन्त्र का क्षय कहलाता है। (प्राय: फेफड़े रोगग्रस्त होने के पश्चात् स्वरयन्त्र भी रोगग्रस्त हो जाता है ।
इस घातक रोग का आक्रमण मनुष्य पर हर आयु (जीवन में कभी भी) में हो सकता है परन्तु यौवनावस्था (14 से 30 वर्ष की आयु) में अधिक होता है। क्षय रोगी के थूके हुए बलगम में (चाहे वह दीवार पर लगा हो अथवा फर्श पर पड़ा हो) क्षय के लाखों कीटाणु होते हैं तथा यह कीटाणु सूखे हुए बलगम में भी जीवित रहते हैं और वायु में मिलकर साँस अथवा भोजनों द्वारा शरीर में पहुँच जाते हैं। इस प्रकार क्षय रोग से ग्रसित रोगी का हर स्थान पर थूकते रहना रोग फैलने का कारण बनता है तथा रोगी व्यक्ति के खाँसते समय भी साँस द्वारा रोगी से स्वस्थ मनुष्य को क्षय रोग हो जाया करता है।
क्षय रोग का आक्रमण पहले फेफड़ों में होता है तदुपरान्त दूसरे नम्बर पर अन्तड़ियाँ रोग ग्रस्त होती हैं। जब किसी जटिल रोग जैसे-काली खाँसी, खसरा, संक्रामक नजला या न्यूमोनिया अथवा ताकतवर भोजन न मिलने से मनुष्य कमजोर हो जाता है तो कीटाणुओं का रोग फैलाने का अवसर मिल जाता है। इस रोग के प्रारम्भ में रोगी में कोई लक्षण दिखलायी नहीं देता है परन्तु एक्स-रे कराया जाये तो फेफड़ों में क्षय पाई जा सकती है। इस रोग के प्रधान लक्षण इस प्रकार हैं – सूखी खांसी, मामूली बुखार, प्रात:काल तथा सायकाल के समय शारीरिक तापमान में 1 डिग्री अथवा इससे अधिक अन्तर का हो जाना, भूख की कमी, बदहजमी, अफारा, दुबलापन, वजन कम होने लग जाना, आवाज बैठ जाने का निरन्तर कष्ट होना, अधिक समय तक जुकाम रहना अथवा बार-बार जुकाम हो जाना, रक्त थूकना, छाती में कभी-कभी या निरन्तर दर्द होना, स्त्रियों में प्रदर एकाएक बन्द हो जाना अथवा क्रमश: कम होकर सूख जाना इत्यादि । यह आवश्यक नहीं है कि उपर्युक्त समस्त प्रधान रोगी में हों । जब अधिक मात्रा में बलगम के साथ रोगी के मुँह से रक्त आये तो उसको फेफड़ों का क्षय समझना चाहिए। देखने में ऐसे व्यक्तियों का स्वास्थ्य चाहे कितना ही अच्छा क्यों न दिखलायी दे परन्तु फिर भी ऐसी दशा में एक्स-रे अवश्य कराना चाहिए । अधिकतर रोगी जिनको आरम्भ में रक्त आने लगे, रोग के बढ़ जाने का परिचायक है । रोग के तीव्र आक्रमण में ज्वर तेज और निरन्तर रहता है । शरीर बहुत कमजोर हो जाता है रात में पसीना अधिक आता है । खाँसी के साथ झागयुक्त बलगम, रक्त, पीप और फेफड़ों के बारीक अंश निकलते हैं। रोग मामूली होने पर यह रोग चिरकाल तक रह सकता है।
यदि फेफड़ों के क्षय रोगी को बलगम अधिक मात्रा में आये तो अवश्य ही उसकी अनुवीक्ष्ण यन्त्र द्वारा परीक्षा करने पर बलगम में क्षय के कीटाणु पाए जायेंगे। जिनके प्रमाण के लिए कल्चर करके देखा जा सकता है । गिनी पिग में इस बलगम का इन्जेक्शन प्रविष्ट कर दें तो यह पशु 6 से 8 सप्ताह में मर जाता है । पोस्टमार्टम करने पर पता चल सकता है कि उसकी मृत्यु का कारण यही कीटाणु थे। अत: रोगी के बलगम की अणुवीक्ष्ण यन्त्र द्वारा परीक्षा करानी चाहिए।
टी.बी. का एलोपैथिक चिकित्सा
दूध को सदैव उबालकर अथवा Pasteurise किया हुआ पीना चाहिए। जिन रोगी गायों के सम्बन्ध में पता चल जाये कि उनमें क्षय रोग के कीटाणु विधमान हैं तो उन्हें हटा डालना आवश्यक है । जिन बच्चों और वयस्कों में मानटुक्स परीक्षा नकारात्मक हो, उनको बी. सी. जी. वैक्सीन का टीका लगवाना चाहिए। से जब परिवार का कोई सदस्य क्षय रोग से ग्रसित रह चुका हो और इस रोग का वंश परम्परा प्रभाव विद्यमान हो अथवा जब डॉक्टर (चिकित्सक) या नर्स (सेविका) के रूप में हर समय रोगियों से सम्पर्क रखने वाला सेवा कार्य अपनाया गया हो तो बी. सी. जी. वैक्सीन का प्रयोग आवश्यक है ।
क्षय रोग की चिकित्सा में सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्त्व आराम है। रोगी सारा दिन आराम से बिस्तर पर लेटा रहना चाहिए और जब तक ज्वर पूर्ण रूप से न उतर जाये, रोगी बिस्तर को कदापि न छोड़े। रोगी को खुली वायु, प्रकाश और ख़ुले स्थान में रखें। ध्यान रहे कि यह अति आवश्यक है कि रोगी शारीरिक अथवा मानसिक थकावट कदापि उत्पन्न न करे अर्थात् पूर्ण आराम करे । जब ज्वर उतर जाये और रोगी का तापमान सामान्य हो जाये तब चिकित्सक के निर्देशानुसार रोगी अपने जीवन के विविध कार्यों में क्रमश: भाग ले सकता है । पूर्णरूप से रोगी के रोगमुक्त हो जाने पर भी यह आवश्यक है कि रोगी का पुनः (री) एक्स-रे लिया जाये। बलगम की अणुवीक्ष्ण यन्त्र द्वारा परीक्षा की जाये और रक्त का सेडीमेंटेशन रेट देखा जाये । रोगी को 3 हजार से 4 हजार कैलोरी शक्ति का भोजन प्रतिदिन खिलाया जाना चाहिए जिसमें सभी विटामिन्स पर्याप्त मात्रा में हो और प्रोटीन भी हों। दूध, अण्डे, मांस, दालें, हरी सब्जियाँ और प्रत्येक प्रकार के फल क्षय रोगी खा सकता है । रोगी को मात्र इतनी ही मात्रा में भोजन देना चाहिए जितनी मात्रा में वह सरलता से पचा सकता हो ।
जो रोगी 40 वर्ष से कम आयु के हों उन्हें एक ग्राम प्रतिदिन और जिन रोगियों की आयु 40 वर्ष से अधिक हो उन्हें एक ग्राम का प्रति तीसरे दिन स्ट्रेप्टोमाइसिन के इन्जेक्शन लगाये जाते हैं। आई. एन. ए. एच. प्रतिदिन 300 मि.ग्रा. कई मात्राओं में बाँटकर खिलायें । सोडियम पास (sodium Pas) प्रतिदिन 15 ग्राम कई मात्राओं में बाँटकर खिलायें । ज्वर के आरम्भ में स्ट्रेप्टोमाइसिन 2 या 3 मास तक निरन्तर (इन्जेक्शन) लगायें । तत्पश्चात् सोडियम पास व आई. एन. एच. देते रहें । कम से कम 1 वर्ष पर्यन्त तक इनका प्रयोग जारी रखें ।
बाईटिबेन (बायर कम्पनी) – आइसोनियाजिड और थियासिटाजान के मिश्रण से निर्मित यह टिकिया क्षय रोग में अतीव लाभकारी है । प्रतिदिन 4 टिकियों की 1 मात्रा – वयस्कों को और बच्चों को 4 मि.ग्रा. आइसोनियाजिड तथा 2 मि.ग्रा. थियासिटाजान प्रतिकिलो शरीर के भार के अनुपात से खिलायें ।
नोट – यकृत के ध्वंस होने, मानसिक विकृति, आक्षेपों, नाड़ी शोथ तथा मूत्र में रक्त आने की दशा में इसका प्रयोग वर्जित (निषेध) है।
एट 800 (वाक्हर्डट कम्पनी) – इथेम्बुटाल हाइड्रोक्साइड का यह योग दो शक्ति 800 मि.ग्रा और 500 मि.ग्रा की टिकियों के रूप में आता है। प्रारम्भ में 15 मि.ग्रा प्रति किलोग्राम शरीर भार के अनुपात से प्रतिदिन एक मात्रा के रूप में खिलायें। कुछ दिनों के बाद (दवा से लाभ होते ही) सेवन बन्द कर दें। फिर दोबारा रोग उभरने पर पुनः 25 मि.ग्रा. प्रति किलो शरीर भार के अनुपात से एक मात्रा के रूप में प्रतिदिन 60 तक सेवन करायें । इसके बाद 15 मि.ग्रा. प्रतिकिलो शरीर भार के अनुपात से सेवन करायें तथा इस औषधि के साथ सदैव क्षय विनाशी अन्य औषधियों का भी सेवन कराएं।
नोट – नेत्र गोलक की तन्त्रिका शोथ, यकृत क्रिया में विकृति, मिर्गी रोग की सम्भावना में इस औषध का प्रयोग कदापि न करें।
इनपास (Inapas) न्यूफार्मा – यह सिडियम पास, आइसोनिको टीनिक एसिड हाइड्राजाइड के संयोग से निर्मित योग है जो क्षय रोग के लिए अतीव गुणकारी है । इसकी टिकिया और ग्रेन्यूल्स मिलते हैं । प्रतिदिन 12 टिकिया कई मात्राओं में बाँटकर या आवश्यकतानुसार खिलायें अथवा एक चिह्न नाप भरकर ग्रेन्यूल्स दिन में तीन बार अथवा आवश्यकतानुसार जल से प्रयोग करायें ।
नोट – वृक्क की विकृति, मिर्गी, ऐसे रोगी जो सोडियम रहित भोजन करते हों उन रोगियों को इस औषधि का सेवन कदापि न करायें ।
फामसिन (आई. डी. पी. एल.) – रिफेमिन पदार्थ से निर्मित इसके कैप्सूल मिलते हैं। इसका फोर्ट कैप्सूल भी आता है। इसकी 460 या 600 मि.ग्रा. की मात्रा प्रतिदिन या तो एक घण्टा पहले अथवा भोजन के दो घण्टा बाद जल से दें ।
नोट – जॉन्डिस, पित्त अवरोध तथा गर्भावस्था में इसका प्रयोग कम करें ।
आइसोपार (कैडिला) – आइसोनिकोटिनिक हाइड्रोजीन-पी अमिनोसैलिसिलेट पदार्थ से निर्मित इसकी टिकिया बाजार में उपलब्ध है जो क्षय रोग में अतीव गुणकारी है। वयस्कों को 10 से 20 मि.ग्रा. प्रतिकिलो शरीर भार के अनुपात से प्रतिदिन तीन मात्राओं में बाँटकर खिलायें ।
नोट – वृक्क की विकृति अथवा मिर्गी रोग में इसका प्रयोग कदापि न करें।
आइसोजान (फाईजर कपंनी) – आई एन ए एच. और थिएसिटाजान पदार्थों से निर्मित यह दवा प्लेन और फोर्ट (टिकियों) के रूप में आती है । यह फेफड़ों के क्षय रोग में अति उत्तम लाभ प्रदायिनी औषधि है ।
नोट – वृक्क और यकृतपात, मानसिक विकार तथा गर्भावस्था में प्रयोग न करें।
विशेष नोट – यदि क्षय रोग का निरीक्षण आरम्भ में ही हो जाये तो उपर्युक्त औषधियों द्वारा चिकित्सा करने से रोगी अवश्य ही रोगमुक्त हो जाता है ।
पी. ए. एस. (पास) के सेवन करने से कई रोगियों को कुछ कष्ट जैसे- अन्तड़ियों में खराश, मूत्र में रक्त आना इत्यादि कष्ट उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए इसको 24 घण्टे (रात + दिन) में 12 ग्राम से अधिक की मात्रा में नहीं देना चाहिए और ज्वर में जबकि तापमान 104 डिग्री फारेनहाईट से अधिक हो जाये तो बर्फ का थैली रोगी के सिर पर रखना चाहिए। शरीर पर मामूली गरम पानी से स्पंज करें। यदि इन विधियों से तापमान कम न हो तो अवेदन (साराभाई कम्पनी) 1 टिकिया दिन में तीन बार दें ताकि तापमान कम हो जाये । ताजा हवा में रोगी को लिटाये रखें । क्षय रोग के ज्वर की यह श्रेष्ठ चिकित्सा है। सिरदर्द दूर करने के लिए टैबलेट ऑफ कोडीन कम्पाउंड 1-2 टिकिया दे सकते हैं। यदि नींद न आये तो क्लोरल हाइड्रेड 100 मि.ग्रा, पोटाशियम ब्रोमाइड 200 मि.ग्रा. पानी में घोल कर सोते समय रोगी को पिला दें । अधिक मात्रा में रक्त थूकने के बाद 24 घण्टे तक कोई भी ठोस भोजन न दें । रोगी को तरल पेय दिये जा सकते हैं परन्तु पेय गरम न हो ।
नोट – यकृत विध्वंस, मानसिक विकार तथा आक्षेपों में इस औषधि का प्रयोग न करें । गर्भावस्था में इसका प्रयोग बड़ी सावधानी से करें ।
टीबीरियम (रैनबैक्सी कम्पनी) – यह पेट की क्षय तथा दूसरी प्रकार की क्षय की अति उत्तम औषधि है। इसके कैप्सूल आते हैं । आवश्यकतानुसार 450 से 600 मि.ग्रा. 1 मात्रा के रूप में नाश्ता के दो घण्टा पहले ताजा जल से सेवन करायें ।
नोट – कामला तथा रिफाम्पिन दवा के अति संवेदनशील रोगियों में इसका प्रयोग न करायें । यकृत विकृति में इसका प्रयोग बड़ी सावधानी के साथ करें ।
टीबीरियम आई. एन. एच. (निर्माता : रैनबैक्सी) – रिफेम्पिन तथा आई. एन. एच. पदाथाँ के संयोग से निर्मित यहयोग पेट की क्षय में अत्यन्त ही लाभकारी है । इसकी एक टिकिया प्रतिदिन नाश्ता से आधा घण्टा पूर्व (पहले) सेवन करायें ।
क्षय की पेटेण्ट दवा
स्ट्रेप्टोमायसिन इन्जेक्शन- यह औषधि क्षय के कीटाणुओं को कमजोर कर देती है और उनकी वंश वृद्धि रोक देती हैं। कई बार तो 3 या 4 इन्जेक्शनों से खाँसी और ज्वर कम होने लग जाता है। लम्बे समय तक इस दवा का प्रयोग न करें ।
रोग की प्रारम्भिक दशा में पी. ए. एस. अर्थात् (पास) 2-3 टिकिया दिन में 3-4 बार खिलायें । यह टिकिया पेराएमिनो सैलिसिलिक एसिड से तैयार की जाती है ।
फेफड़ों की क्षय में स्ट्रेप्टोमायसिन और पास (P.A.S.) के इकट्ठे प्रयोग से शीघ्र लाभ होता है ।
क्षय रोगी की कमजोरी दूर करने के लिए शार्क लीवर ऑयल अथवा विटामिन बी कॉम्प्लेक्स साथ में अवश्य देते रहना चाहिए। शार्क लीवर ऑयल 1 से 2 चाय वाला चम्मच भर भोजनोपरान्त दिन में 2-3 बार पिलायें ।
कैल्शियम लैक्टेट 1200 मि.ग्रा. दिन में 3 बार खिलाना परम उपयोगी है ।
केपिलीन (विटामिन के) निर्माता : एलेनवरीज 1 मि.ली. के एम्पुल का मांस में प्रतिदिन या सप्ताह में 2-3 बार इन्जेक्शन लगायें । इसके प्रयोग से कफ (बलगम) से रक्त आना बन्द हो जाता है ।
ग्लाइकोडीन टर्प वसाका (एलेम्कि) – 1 से 2 चाय के चम्मच औषधि का दिन में 2-3 बार प्रयोग करने से अतीव लाभ प्राप्त होता है ।
ओस्टो कैल्शियम (ग्लैक्सो) – 1-2 टिकिया दिन में 2-3 बार खिलायें ।
नाइड्राजिड (साराभाई कम्पनी) – यह दवा 100 से 500 मि.ग्रा. की टिकियों के रूप में बाजार में उपलब्ध है और 10 मि.ली. के वायल (Vial) में इसके-इन्जेक्शन भी मिलते हैं। बच्चों को आधी टिकिया तथा बड़ों को एक टिकिया दिन में तीन बार सेवन करायें।
नाइड्राजिड का इन्जेक्शन शिशुओं को 5 से 10 मि.ग्रा प्रतिकिलो शरीर भार के अनुपात से दिन में दो बार माँस में इन्जेक्शन लगायें या 10 से 20 मि.ग्रा. प्रतिकिलो शरीर भार के अनुपात से प्रतिदिन एक बार (अधिकतम 500 मि.ग्रा. प्रतिदिन तक) इन्जेक्शन लगायें । वयस्कों को इसकी दुगुनी मात्रा दें।
एम्बीस्ट्रिन (साराभाई कम्पनी) – 1 ग्राम स्टेराइल पाउडर में 2.5 मि.ली. वाटर फार इन्जेक्शन मिलाकर नितम्ब के गहरे मांस में प्रतिदिन लगायें ।
वाइयोमायसिन (पी. डी.) – स्ट्रेप्टो मायसिन से लाभ न होने पर इस दवा का 1 ग्राम का प्रति तीसरे दिन माँस में प्रति 12 घण्टे बाद अर्थात् दिन में 2 बार इन्जेक्शन लगायें ।