जो बच्चा प्रसूति की किसी भी तकलीफ के बिना पूरे महीनों के बाद जन्मा हो, लगभग ढाई किलो वजन का हो, जन्म लेने के साथ ही रोने लगे, जिसमें कोई क्षति-विकृति न हो, उस बच्चे को सामान्यत: स्वस्थ बच्चा माना जा सकता है।
बच्चा जन्म लेकर सर्वप्रथम रोने की प्रतिक्रिया करता है। रोने की क्रिया से उसकी श्वसन क्रिया चालू होती है। उसके फेफड़ों की बंद थैलियां चालू होती है और सांस के द्वारा ली गई प्राणवायुरत में मिल जाती है। जीवन के प्रारम्भ में हुई श्वासोच्छवास की यह लयबद्ध प्रक्रिया जितनी सरल और प्रभावशाली होती है, बच्चे का जीवन उतना ही स्वस्थ होता है और आयु उतनी ही लम्बी होती है। प्रसव स्थल पर यदि कोई दाई या डाक्टर उपस्थित न हो, तो बच्चे को हलके से उसकी पीठ पर थपथपाएं। ऐसा करने से वह रोने लगेगा। ठंडा पानी छिड़कने से भी बच्चा उत्तेजित होकर रोना शुरू कर देता है।
प्रसूतिगृह का पर्यावरण : प्रसूति कक्ष में पर्यात मात्रा में प्रकाश एवं शुद्ध वायु का आवागमन रहना चाहिए। इस कक्ष में स्वच्छता, अनावश्यक वस्तुओं की अनुपस्थिति एवं शांति आवश्यक है।
जन्म के तुरन्त बाद : जन्म के बाद बच्चे की श्वसन क्रिया व्यवस्थित व चालू होनी चाहिए। तत्पश्चात् उसे कुनकुने स्वच्छ पानी और मुलायम तौलिए से साफ करके,साफ-सूती कपड़े में लपेटकर नरम बिछौने पर सुलाएं। उसकी दोनों आंखों को अलग-अलग फाहों से साफ करें। इसी प्रकार बच्चे के दोनों कान, नाक, मुंह, फाहों से साफ करने चाहिए। इसके बाद उसका वजन नोट कर लें। एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि इतनी प्राथमिक सुश्रुषा करने के बाद उसे माता के पास ही सुलाना चाहिए। ऐसा करने से माता और बच्चे के बीच एक प्रेम-सेतु का निर्माण होता है। माता के सानिध्य से बच्चे को सुरक्षा का अनुभव होता है।
त्वचा की देखभाल : यदि शिशु समय से पहले जन्मा हो, तब तो उसकी त्वचा की अत्यधिक देखभाल रखनी पड़ती है। ऐसे बच्चे को मुलायम कपड़े और स्वच्छ रूई की तह में लपेटकर रखा जाता है। कई बार नवजात शिशु की त्वचा पर आसमानी या लाल-जामुनी रंग के निशान होते हैं। प्राय: ये अपने आप कम हो जाते हैं, किन्तु कुछ उदाहरणों में लाल-जामुनी रंग के दाग स्थायी हो जाते हैं। इसके लिए कोई तात्कालिक उपाय करने की आवश्यकता नहीं होती। कभी-कभी जन्म के दो-तीन दिन बाद बच्चे की त्वचा पर लाल या सफेद रंग की फुंसियां उभर आती हैं। इससे भी घबराने की आवश्यकता नहीं है। धीरे-धीरे वे भी शांत हो जाती हैं। जन्म के तुरन्त बाद बच्चे के शरीर से रक्त तथा अन्य पदार्थ साफ करके अंगरखा पहना देना चाहिए। उसके सिर को भी मुलायम कपड़े या टोपी से ढकें। ठंड के दिनों में सूती कपड़े पर खुला ऊनी वस्त्र ओढ़ा दें। एक-दो दिनों बाद उबले हुए पानी को कुनकुना करके उससे बच्चे को नहलाया जा सकता है। ग्लिसरीनयुक्त साबुन या कार्बोलिक साबुन का भी प्रयोग किया जा सकता है। नवजात शिशु की स्नान कराने की क्रिया में बड़ी सावधानी की आवश्यकता होती है। इसमें जल्दबाजी से काम नहीं चलता। बच्चे के गला, कांख, जांघ आदि अंगों को बराबर साफ रखें। साफ फलालीन जैसे कपड़े से उसका शरीर पोंछ डालें। शीत ऋतु में नहलाने के बाद यदि उसकी त्वचा खुश्क मालूम हो, तो उसके शरीर पर तेल से हलके हाथों मालिश करें।
आंखों की देखभाल : बच्चे की दोनों आंखों को उबाले हुए कुनकुने स्वच्छ पानी से रूई से अलग-अलग फाहों से प्रतिदिन साफ करें। यदि आंखें चिपचिपाती मालूम हों या उनमें कीचड़ दिखाई दें, तो उबालकर स्वच्छ किए हुए पानी से अथवा उसमें बोरिक पाउडर डालकर उससे आंखें धोएं। अन्य कोई विकृति दिखाई दे, तो डॉक्टर की सलाह लें।
मुंह-कान की देखभाल : किसी-किसी बच्चे के लिए सिर पर तालू के भाग में रूसी जैसी पपड़ियां जमी हुई दिखाई देती हैं। इससे घबराने की आवश्यकता नहीं है। समय बीतने के साथ वे खुद-ब-खुद ही अदृश्य हो जाती है। आवश्यकतानुसार उस पर अरण्डी का तेल हलके हाथों रगड़ें। बच्चे के कान में यदा-कदा रूई वाली सलाई हलके हाथों घुमाएं, ताकि कान में मैल न जमने पाए। कान में तेल डालना या उसे किसी कठोर सलाई से कुरेदना हानिकारक होता है। किसी अच्छी कम्पनी की इयरबड्स का प्रयोग कर सकते हैं।
नाभि-नाक की देखभाल : प्रारम्भ में हरकुछ घंटे पर नवजात शिशु की नाल की जांच करना आवश्यक है। यदि उसमें से रक्त निकलता हुआ मालूम हो, तो उसे पुन: डोरी से बांधा जा सकता है। फिर भी यदि रक्त का बहना जारी रहे, तो बाल रोग विशेषज्ञ की सलाह लें। सामान्यत: स्पिरिट या कीटाणुनाशक दवा (डेटॉल या सेवलोन) के फाहे से नाल साफ करके ‘सेओरलिन डस्टिंग पाउडर’ या साधारण कैलेण्डुला अथवा गनपाउडर लगाकर स्वच्छ कपड़े की पट्टी बांध दें। ऐसा करने से पांच-दस दिनों में नाल सूखकर झड़ जाती है। नाल झड़ जाने के बाद यदि वह स्थान बहुत खुश्क और खुरदुरा मालूम हो तथा त्वचा खिंचती हो, तो उस स्थान पर ‘कैलेण्डुला’ मलहम लगाया जा सकता है।
टीके लगवाना : सामान्यत: जिन बच्चों का जन्म अस्पताल या प्रसूतिगृह में हुआ हो, उन्हें तो छुट्टी देने से पहले अस्पताल के डाक्टर आवश्यक टीके लगाते ही हैं। उस समय बी.सी.जी. (क्षय रोग) का टीका लगाया जाता है। तीसरे महीने से डी.पी.टी. और पोलियो के टीकों की पहली खुराक देकर इन टीकों का कोर्स शुरू किया जाता है। इन टीकों के कारण बच्चे में क्षयरोग (टी.बी.या तपेदिक), पोलियो, डिप्थीरिया (गले में जाला पड़ना), कुकुर खांसी और टिटनेस (धनुर्वात) का मुकाबला करने की प्रतिरोधक शक्ति उत्पन्न होती है। इसके अलावा यदि टीका लगवाना सम्भव न हो, तो विशेष होमियोपैथिक औषधियों की उच्चीकृत शक्ति की एक-एक खुराक चिकित्सकीय परामर्श से देने पर, टीके जैसा प्रभाव ही उत्पन्न होता है।
बच्चे का पोषण : बच्चे को केवल मां का दूध ही देना चाहिए। अगर बच्चा अपरिपक्व या बहुत कम वजन का है, तो डॉक्टर से पूछकर ही दूध देना चाहिए। कई बार बच्चा जन्म के कुछ घंटे बाद काली-काली सी थोड़ी-थोड़ी मात्रा में उल्टी करने लगता है। ऐसी स्थिति में किसी कुशल विशेषज्ञ के निर्देशन में बच्चे के पेट की सफाई आवश्यक होती है। यदि उल्टियां व दस्त लगातार बने रहें, तो नर्स द्वारा ग्लूकोज भी दिया जा सकता है। पानी की कमी बच्चे के शरीर में नहीं होनी चाहिए। यदि जन्म के काफी देर बाद तक पेशाब न हुआ हो, तो बच्चे के शिश्न पर रूई के फाहे में ग्लिसरीन भिगोकर रखनी चाहिए। प्राय: कुछ देर बाद पेशाब हो जाता है।