एक बार शरीर में पहुंच जाने के बाद शिजैला डिसेन्ट्री वहां हाइड्रोक्लोरिक एसिड के प्रभाव से बचा रहता है, छोटी आंत को पार कर अंत में बड़ी आंत में पहुंचकर बस जाता है। कोलन (बड़ी आंत) के नाजुक, उपसंरिक स्तर से चिपके रहकर यह बैक्टीरिया विभाजन और पुनः विभाजन द्वारा अपनी वंशवृद्धि कर देता है और शीघ्र ही इसकी संख्या में बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है।
शिजैला डिसेन्ट्री बड़ी आंत में अनेक विषैले रसायन उत्पन्न करता है। इन विषैले रसायनों में से एक बहुत अधिक सूजन उत्पन्न करता है और अन्ततः आंत की पूरी लंबाई में असंख्य घाव उत्पन्न कर देता है। अांत की दीवार की रक्तवाहिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और उनमें से रक्त निकलने लगता है। शिजैला डिसेन्ट्री द्वारा अन्य विषैला पदार्थ सामान्य आंत कोशिकाओं से चिपक जाता है और उन्हें बहुत अधिक मात्रा में पानी और नमक निष्कर्षित करने के लिए मजबूर कर देता है। इन सब क्रियाओं के फलस्वरूप बैसिलरी पेचिश के विशिष्ट लक्षण, पेट में भयंकर जकड़ने वाली पीड़ा तथा खूनी पतले दस्त होने लगते हैं। शरीर से तरल पदार्थ, नमक और रक्त बाहर निकल जाते हैं। परिणामस्वरूप रोगी का रक्तचाप अत्यधिक कम हो सकता है उसे आघात पहुंचता है और उसके गुर्दे काम करना बंद कर सकते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि इस पेचिश से पीड़ित होने पर बड़ी आंत के आवरण फट जाएं और उसके सब पदार्थ उदर-गुहा में आ जाएं। यह स्थिति बहुत खतरनाक होती है।
बचाव
इस महामारी से बचने के लिए निम्न सावधानियां बरतनी चाहिए –
मल का उचित विसर्जन : बीमारी से पीड़ित लोगों के मल को गांव से दूर विसर्जित करना चाहिए। मल को किसी गड्ढे में दबा देना चाहिए। बच्चों को इन स्थानों के नजदीक नहीं आने देना चाहिए। बच्चे इस बीमारी का शिकार बहुत जल्दी हो जाते हैं। शौच के बाद हाथों को अच्छी तरह से साबुन से साफ करें। खाना खाने से पहले भी उन्हें साबुन से धो लें। पके हुए भोजन को जितना जल्दी हो सके, उपयोग कर लेना चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि मक्खियां इसके नजदीक न जाएं। जितना संभव हो, खुले बर्तनों, घड़ों, नांद आदि में पीने का पानी नहीं रखना चाहिए। फल तथा सब्जियों को खाने तथा पकाने से पहले अच्छी तरह धो लें। बेहतर होगा कि बीमारियों के फैलने की स्थिति में बाजार में बने खाद्यों का इस्तेमाल कम-से-कम करें। बीमारी के फैलने की अवस्था में उबले हुए पानी का उपयोग अत्यन्त आवश्यक है। गर्मी और बरसात में पेचिश लगभग हर वर्ष फैलती है।
पेचिस का इलाज
होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति में ‘सिमिलिमस’ के आधार पर अनेक औषधियां इस घातक बीमारी से रोगियों को रोगमुक्त कराने में कारगर हैं।
एस्क्लेरियॉस ट्यूर्बोसा : पेट में भारीपन, खाने के बाद गैस बनना, केटेरहल (श्लेष्मायुक्त) पेचिश, साथ ही मांसपेशियों एवं जोड़ों में दर्द, पाखाने में से सड़े अंडे जैसी बदबू आती है। इन लक्षणों के आधार पर दवा का मूल अर्क 5-5 बूंद सुबह-दोपहर-शाम लेना फायदेमंद रहता है।
मरक्यूरियस कोर : पेचिशनुमा पाखाना, शौच करते समय पेट में दर्द, शौच के बाद भी बेचैनी एवं पेट में दर्द बने रहना, पाखाना गर्म, खूनी, श्लेष्मायुक्त, बदबूदार, चिकना, पेशाब में एल्मिवुन (सफेदी)। साथ ही गले में भी दर्द एवं सूजन रहती है, खट्टे पदार्थ खाने पर परेशानी बढ़ जाती है, तो उक्त दवा 30 शक्ति में लेनी चाहिए।
कोलोसिंथ : मुंह का स्वाद बहुत कड़वा, जीभ खुरदरी, अत्यधिक भूख, पेट में भयंकर दर्द जिसकी वजह से मरीज दोहरा हो जाता है एवं पेट पर दबाव डालता है, अांतों में दवा उपयोगी रहती है। 30 शक्ति में लेनी चाहिए।
कॉल्विकम : गैस की वजस से पेट फूल जाना, पेट में आवाजें होना, मुंह सूखा हुआ, जीभ, दांत, मसूड़ों में भी दर्द, खाने की महक से ही उल्टी हो जाना, पेट में ठंडक महसूस होना, पाखाना कम मात्रा में, पारदर्शी, जेलीनुमा श्लेष्मायुक्त पाखाने में सफेद-सफेद कण अत्यधिक मात्रा में छितरे हुए, कांच निकलना, सोचने पर परेशानी बढ़ना आदि लक्षणों के आधार पर 30 शक्ति में दवा लेना उपयोगी रहता है।
टाम्बिडियम : खाना खाने एवं पानी पीने पर परेशानी बढ़ जाना, टट्टी से पहले एवं बाद में अधिक दर्द, पेट के हाचपोकॉट्रियम भाग में दर्द, सुबह उठते ही पतले पाखाने होना, भूरे रंग की खूनी पेचिश दर्द के साथ, गुदा में जलन आदि लक्षण मिलने पर 6 से 30 शक्ति तक दवा लेना हितकर है।
एलो : पेय पदार्थों की इच्छा, खाने के बाद गैस बनना, मलाशय में दर्द, गुदा से खून आना, बवासीर रहना, ठंडे पानी से धोने पर आराम मिलना, पाखाने एवं गैस के खारिज होने में अंतर न कर पाना, पाखाने के साथ अत्यधिक श्लेष्मायुक्त (म्यूकस), गुदा में जलन रहना, खाना खाने-पीने पर फौरन पाखाने की हाजत होना आदि लक्षणों के आधार पर 30 शक्ति में दवा की कुछ खुराक लेनी चाहिए। इसके अलावा अनेक दवाएं लक्षणों की समानता पर दी जा सकती हैं।