यह अखरोट के आकार की हल्के पीले रंग की ग्रन्थि है जो मूत्राशय ग्रीवा के नीचे मूत्र मार्ग के शुरू के भाग में मूत्र-प्रणाली (Urethra) को चारों ओर से घेरे रहती है । यह बाहर से एक दृढ़ तन्तुयुक्त (स्नायुमय) कोष से ढँकी रहती है तथा अन्दर से इसकी संरचना शहद के छत्ते के समान होती है । इस ग्रन्थि में 10-12 अथवा अधिक नालियाँ अति सूक्ष्म छिद्रों द्वारा मूत्रमार्ग से खुलती हैं। इसी के प्राय: समीप शुक्राशय (Viryy की थैलियाँ) अर्थात् सेमीनल वैसीकल्स भी रहते हैं ।
प्रोस्टेट ग्रंथि के भीतर एक स्त्राव पैदा होता है जो सफेद और चिकना होता है जो मिलन के समय Viryy में मिल जाता है । हमारे Viryy में जो एक विशेष प्रकार की गन्ध आया करती है, वह उसी पौरुष ग्रन्थि के स्राव (रस) की ही होती है। शुक्रकीट सदा क्षारीय दशा में जीवित रहते हैं और अम्लता में नष्ट हो जाते हैं क्योंकि प्रोस्टेट ग्रंथि का रस ‘क्षारीय’ चिकना और पतला होता है, इसलिए शुक्रकीट उसमें अपनी उछलकूद बड़ी आसानी से करते रहते हैं। प्रोस्टेट ग्रंथि का भार लगभग 8 ग्राम होता है । जवानी में काम के समय यह रस (गाढ़ा, पारदर्शक तरल अर्थात् पौरुष रस (Prostate Secretion) निकलने लग जाता है, यह मूत्रमार्ग को गीला और चिकना रखता है तथा मर्दाना अंगों को स्वच्छ एवं उत्तेजित बनने में सुहायता करता है।
यह रस मिलन करने पर Viryy में मिल जाता है । मिलन के अन्तिम चरणों में पौरुष ग्रन्थि के अन्दर अति प्रभावशाली आकुंचन प्रारम्भ हो जाती है, जो शक्तिशाली दबाव के साथ रबड़ की गेंद को अचानक दबा देने के सदृश Viryy को बाहर निकाल फेंकने का प्रयास करती है उसका फल यह होता है कि Viryy को उछालने वाली नालियों के सहयोग से Viryy शुक्र प्रणालियों में से कई झटकों में तीव्रता से बाहर निकल जाता है।
प्रोस्टेट ग्रन्थि मिलन के समय नियन्त्रक कपाट के रूप में तथा मिलन अवधि पर भी आंशिक नियन्त्रक के रूप में कार्य करती है। इसके अन्दर प्राय: मध्य में Viryy की थैलियों से आने वाली सूक्ष्म-सूक्ष्म दो नालियाँ, मूत्र प्रणाली में खुलती हैं जिनमें से होकर ही शुक्राणु (Viryy कीट) मूत्र प्रणाली में आते हैं तथा पौरुष ग्रन्थि के स्राव के साथ मिलकर Viryy में मिल जाते हैं तथा पौरुष अंग के अन्तिम सिरा पर निर्मित छिद्र में से बाहर निष्कासित हो जाते हैं ।
जब पुरुष का Viryy मिलन काल के अन्तिम चरण में स्खलित होने लगता है उसी क्षण पौरुष ग्रन्थि Viryy में अपने भीतर का प्रभावशाली स्राव मिला देती है, जिसके मिलते ही Viryy कीट क्रियाशील हो उठते हैं और मैथुनरत स्त्री के guptmarg से गर्भाशय में प्रवृष्टि पाने को व्याकुल रहते हैं ।
पौरुष ग्रन्थि प्राय: हमेशा सुषुप्तावस्था में ही रहती है, किन्तु तीव्र उत्तेजना के बाद Viryy स्खलन काल में कुछ क्षणों के लिए बहुत शक्ति के साथ आकुंचित होती है और अपना स्राव Viryy में डाल देने के बाद पुन: गम्भीर निद्रा में सो जाती है। इस ग्रन्थि का वजन मात्र 8 ग्राम होता है । बुढ़ापे में स्नायु तन्तुओं के बढ़ जाने से यह ग्रन्थि भी बढ़ जाती है, जिससे मूत्र आना बन्द हो जाता है अथवा रुक-रुक कर बड़े कष्ट के साथ आता है जिससे भुक्त भोगी रोगी को जीवन की अपेक्षा मृत्यु अच्छी लगने लगती है ।