100 डिग्री फारेनहाइट ज्वर को मामूली ज्वर, 102 डिग्री फारेनहाइट तक मध्यम ज्वर, 104 डिग्री के ज्वर को हाई ज्वर और 105 अथवा इससे अधिक डिग्री के ज्वर को बहुत अधिके ज्वर कहा जाता है ।
छोटे बच्चों का तापमान अधिक और बुढ़ापे में नार्मल से भी कम हो जाया करता है।
तापमान बढ़ने और घटने का मस्तिष्क पर तुरन्त प्रभाव पड़ जाता है। यदि किसी मनुष्य का तापमान नार्मल से 30 डिग्री (सेण्टीग्रेड) कम हो जाये तो रोगी पर बेहोशी छा जाती है और यदि नॉर्मल तापमान से 3 डिग्री सेन्टीग्रेड बढ़ जाये तो रोगी को प्रलाप (बेहोशी में बड़बड़ाना) होने लग जाता है ।
काफी समय तक नॉर्मल (प्राकृत) से अधिक या बहुत अधिक तापमान किसी रोगी के शरीर में बने रहने से शरीर के विभिन्न अंगों को भारी हानि पहुँचती है। शरीर में निरन्तर अधिक गर्मी रहने से रक्त और शरीर का तरल सूख जाता है । शरीर की टिशूज (शरीर के तन्तु, धातु और सेलों) में गर्मी की अधिकता से सूजन हो जाती है। 104 डिग्री फारेनहाइट (40 सेण्टीग्रेड) ज्वर काफी समय तक रहने से मांसपेशियों (पुट्ठों) की प्रोटीन का तरल खुश्क हो जाने से वह गाढ़ी हो जाती है।
गर्मी की अधिकता से हृदय की मांसपेशियाँ और उनसे सम्बन्धित मस्तिष्क की स्नायु (Nerves) कमजोर हो जाती है। ज्वर की गर्मी बढ़ने से दिल व नाड़ी (Pulse) की गति बढ़ने लग जाती है ।
टायफायड ज्वर में रोगी को 103 या 104 डिग्री ज्वर होने पर भी नाड़ी 70 से 80 बार प्रति मिनट चल रही होती है जबकि रोगी को अन्य ज्वरों में इतना ही दर्जा तापमान होने पर नाड़ी 122 से 132 प्रति मिनट चल रही होती है ।
ज्वर का तापमान बहुत बढ़ा हुआ होने पर उसको कम करने का प्रयत्न करना चाहिए, किन्तु दवाओं से तापमान बहुत अधिक गिरा लेने से भी रोगी को लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है ।
यदि फोड़ा बहुत सूज जाने, कीटाणुओं के संक्रमण अथवा किसी दूसरे कारण से ज्वर है तो उस मूल कारण की चिकित्सा करने से ही ज्वर अपनेआप दूर हो जाया करता है ।
ज्वर का तापमान कम करने के लिए एस्पिरिन, एंटी पायरीन, पैरासिटामोल 1-2 बार खिला देने से पसीना आकर बुखार और शरीर का दर्द जुकाम आदि कम हो जाते हैं । परन्तु इन दवाओं का बार-बार और निरन्तर प्रयोग करना हानिकारक है ।
बुखार का दर्जा 103 डिग्री से अधिक बढ़ जाने पर सिर पर बर्फ रखने या ठण्डे पानी में तौलिया डुबोकर तदुपरान्त निचोड़कर शरीर पर मलने, स्पंज करने से बढ़ती हुई गर्मी और बढ़ा हुआ तापमान कम हो जाता है । दवाएँ खिलाने की अपेक्षा यह विधि हानि रहित है ।
बर्फ मिले ठण्डे पानी में थोडा नमक डालकर एनिमा की टोंटी के साथ कैथेटर फिट करके एक लीटर पानी बूंद-बूंद करके गुदा में प्रविष्ट कराना (शरीर और रक्त में तरल कम हो जाने पर) लाभकारी सिद्ध होता है । ठण्डे पानी में चादर भिगो व निचोड़कर रोगी को इसमें लपेट कर उस पर भारी कपड़ा डाल देने से भी तापमान कम हो जाता है।
बड़े-बड़े अस्पतालों में जब रोगी का तापमान 105 से भी अधिक हो जाता है तो रोगी को ठण्डे अथवा बर्फ के पानी के टब में लिटा देते हैं इससे तापमान गिर जाता है और रोगी के मस्तिष्क, स्नायु व हृदय को 105 से 107 दर्जा ज्वर में भी क्षति नहीं पहुँचती है। तापमान गिराने की यह हानिरहित विधियाँ हैं ।
ज्वर के रोगी को शीघ्रपाची और पौष्टिक खुराक (भोजन) देना भी आवश्यक है। ज्वर की अधिकता और काफी समय तक ज्वर रहने से रक्त और शरीर का तरल ज्वर की गर्मी से सूख जाता है, जिससे मस्तिष्क, हृदय, यकृत और शरीर के दूसरे अंगों को भारी हानि पहुँच सकती है। तापमान की अधिकता से रोगी की शारीरिक शक्ति कम हो जाती है । इसलिए उसको ताकत प्रदान करने वाले पेय बार-बार पिलाना आवश्यक है।
प्यास लगने पर रोगी को बार-बार पानी पिलाते रहना चाहिए । इससे रोगी का शरीर धुल जाता है। अधिक मूत्र बार-बार आकर शरीर के विषैले अंश निकल जाते हैं और तापमान भी गिर जाता है अथवा बढ़ने नहीं पाता ।
ज्वर के रोगी को बार्ली वाटर पिलाना भी लाभकारी है। जौ का पानी ज्वर की तीव्रता और गर्मी कम करता है । मूत्र अधिक लाता है और ताकत देता है । रोगी को थोड़ा-थोड़ा करके दिन में एक से दो लीटर तक दूध भी पिलाते रहना चाहिए । मीठे फलों जैसे-सेब, मौसमी, अनार, अनानास, संतरा का रस बार-बार पिलाते रहने से ज्वर रोगी को जरूरी विटामिन और खनिज अंश मिल जाते हैं । फलों के रस बार-बार मूत्र लाकर ज्वर के विषैले प्रभाव निकाल देता है । नीबू का रस 10-15 बूंद एक गिलास गरम पानी में मिलाकर बार-बार पिलाते रहने से ज्वर रोगी को विटामिन सी पर्याप्त मात्रा में मिल जाती है। शरीर शुद्ध हो जाता है और कई बार तो बिना दवाएँ खिलाये न केवल ज्वर, बल्कि पुराने जटिल रोग तक दूर हो जाते हैं ।
ज्वर रोगी को दूध न पचने और दस्त भी आ जाने पर सेब का रस पिलाने से दस्त आने रुक जाते हैं और शक्ति भी प्राप्त हो जाती है । कमजोरी को दूर करने के लिए माँस को उबालकर उसमें नमक मिलाकर पिलाते रहने से रोगी की कमजोरी दूर हो जाती है । पुराने ज्वरों में बढ़ती हुई दुर्बलता को रोकने के लिए और रोगी को ताकतवर बनाये रखने के लिए 5 से 10 मि.ली. ब्राण्डी (शराब) दिन में 2-3 बार सेवन कराना भी लाभकारी है। सर्दी के मौसम और बूढ़े रोगियों में इसके प्रयोग से हृदय और शरीर की बढ़ती हुई कमजोरी दूर हो जाती है ।
गरम देशों में कई स्वस्थ लोगों का तापमान नार्मल से डेढ़ डिग्री अधिक होता है और कई लोगों में 98.04 से एक डिग्री कम हुआ करता है, परन्तु इस पर भी ऐसे लोग स्वस्थ होते हैं। भोजन खाने, गर्म स्नान, व्यायाम, चलने-फिरने, परिश्रम करने और स्त्री को अण्डा (Ovum) निकलने के 1-2 दिन में तापमान अस्थायी रूप से बढ़ जाया करता है। कोई बुरी (अप्रिय) खबर सुनने, दिल की सख्त कमजोरी, बेहोशी, सदमा और कई दूसरे कारणों से तापमान गिरकर 96 या 95 तक हो जाया करता है और ऐसी दशा में सर्दी लग जाने से तापमान इससे भी नीचे गिर जाता है ।
जब रोगी का तापमान गिरकर 90 डिग्री फारेनहाइट तक आ जाये तो ऐसी दशा को (Hypothermia) (शरीर में गर्मी की अत्यधिक कमी) कहा जाता है और ज्वर होने पर तापमान 105 डिग्री फारेनहाइट से अधिक हो जाये तो उसको (बहुत अधिक खतरे वाला ज्वर) कहा जाता है ।
न्यूमोनिया और वृक्कों में संक्रमण हो जाने से उत्पन्न बुखार में तापमान एकाएक बढ़कर 104 फा. या 105 फा. तक पहुँच जाता है परन्तु टायफायड ज्वर और मिलियरी क्षय में तापमान क्रमश: धीरे-धीरे कई दिनों में ही बढ़ता है। टायफायड ज्वर सीढ़ियों की भाँति एक डिग्री प्रतिदिन ज्वर थोड़ा-थोड़ा बढ़ता जाता है।
प्रत्येक प्रकार के ज्वरों में हृदय की धड़कन कम या अधिक बढ़ जाया करती है। क्षय रोग और जोड़ों के दर्द से उत्पन्न ज्वरों में तो हृदय की धड़कन में दूसरे बुखारों की अपेक्षा अधिक वृद्धि होती है। यही कारण है कि बुखारों में नाड़ी की गति बहुत तेज हो जाया करती है ।
टायफायड ज्वर के दूसरे सप्ताह में तापमान 104 डिग्री फारेनहाईट हो जाने पर भी रोगी की नाड़ी की गति 110 से अधिक नहीं बढ़ती । सरसाम और मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले ज्वरों तथा मस्तिष्क में फोड़े से उत्पन्न ज्वर में नाड़ी की गति अपेक्षाकृत कम होती है क्योंकि इन ज्वरों में मस्तिष्क का दबाव बढ़ जाया करता है ।
रोगी को 1 डिग्री ज्वर बढ़ जाने पर उसकी नाड़ी की गति प्रति मिनट 10 बार और बच्चों में 1 डिग्री ज्वर बढ़ने पर नाड़ी की गति प्रति मिनट 10 से 15 बार बढ़ जाया करती है ।
प्रत्येक प्रकार के ज्वरों में रोगी की भूख प्रायः घट जाया करती है। तापमान की अधिकता से शारीरिक तरल और रक्त खुश्क हो जाने के कारण प्यास बढ़ जाया करती है। पाचनांगों में दूषित पदार्थ उत्पन्न हो जाने के कारण जीभ मैली हो जाती है और उस पर मैल की मोटी तहें जम जाती हैं । लम्बे समय तक रहने वाले ज्वरों में तो जीभ (शरीर का तरल सूख जाने के कारण) शुष्क हो जाती है और उस पर पपड़ी-सी जम जाया करती है ।
ज्वर की अधिकता से अन्तड़ियों का तरल शुष्क हो जाने के कारण प्राय: कब्ज हो जाती है, परन्तु टायफायड और हैजा में अन्तड़ियों में विषैले दोष और कीटाणु-संक्रमण के प्रभाव से रोगी को दस्त आने लग जाते हैं । ज्वर की अधिकता में रोगी को मूत्र कम मात्रा में आता है और उसका रंग गहरा होता है और मूत्र की स्पेसिफिक ग्रैविटी भी बढ़ जाती है। मूत्र में यूरेट्स अधिक मात्रा में आने लग जाती है । एल्ब्यूमिन भी आ सकती है । ज्वर की अधिकता और अधिक पसीना आ जाने के कारण ऐसा हुआ करता है ।
ज्वरों में रोगी की सांस कुछ तेज चलने लगती है किन्तु फेफड़ों में कीटाणुओं के संक्रमण से उत्पन्न ज्वरों न्यूमोनिया और ब्रोंकाइटिस में तो साँस आने-जाने में विशेष रूप से तेजी आ जाती है। फेफड़ों के रोगों से उत्पन्न ज्वर में एक डिग्री तापमान बढ़ने पर साँस आने-जाने की क्रिया में 1 मिनट में दो बार की वृद्धि हो जाया करती है ।
ज्वरनाशक कुछ अन्य चिकित्सा पद्धतियों के अनुभूत योग
आइसोनेक्स (फाईजर कम्पनी) – 100 मि.ग्रा. 1 टिकिया, सेलिन (ग्लैक्सो कम्पनी), 100 मि. ग्रा. 1 टिकिया, पी. ए. एस. 1 टिकिया, रुदन्ती 250 मि.ग्रा. प्रवाल भस्म 125 मि.ग्रा. कृष्ण अभ्रक भस्म 100 मि.ग्रा., केकड़ा जलाया हुआ 250 मि.ग्रा सभी को बारीक पीसकर बांसा के शर्बत 10 मि.ली. में मिलाकर दिन में 2-3 बार रोगी को खिलाते रहने से क्षय रोग से पीड़ित पुराने से पुराने रोगी भी पूर्णत: स्वस्थ हो जाते हैं। फेफड़ों और शरीर में क्षय के कीटाणु और उसका आक्रमण समाप्त हो जाता है तथा रोगी की भूख और वजन बढ़ने लग जाता है । अतीव चमत्कारी योग है ।
जवान बकरे का फेफड़ा, बन्द प्याले में जलाया हुआ, केकड़ा जलाया हुआ प्रत्येक 600 मि.ग्रा., पी. ए. ए. 1 टिकिया, रूदन्ती 250 मि.ग्रा, सेलिन 50 मि.ग्रा. की 1 टिकिया। ऐसी 1 मात्रा दिन में 3 बार क्षय रोगी को खिलाना भी अत्यन्त ही लाभकारी है ।
रुदन्ती का चूर्ण, विशुद्ध वंशलोचन, पत्थर के कोयले की राख प्रत्येक 250 मि. ग्रा.। ऐसी एक मात्रा मधु में मिलाकर दिन में 3 बार चटाते रहने से क्षय रोग में ज्वर कम होने लग जाता है, बलगम में क्षय के कीटाणु मर जाते हैं। बलगम की मात्रा घट जाती है । क्षय रोगी की भूख और वजन 10-15 दिन मे ही बढ़ने लग जाती है ।
जवान बकरे के फेफड़े को जलाकर उससे बनी राख, केकड़ा जला हुआ, बंसलोचन, रुदन्ती । प्रत्येक दवा समभाग मिलाकर सुरक्षित रखें । एक ग्राम की मात्रा में बकरी के दूध से दिन में 3 बार खिलाते रहने से क्षय रोग दूर होने लग जाता है ।
वंशलोचन, सतगिलोय, छोटी इलायची और अतीस। प्रत्येक दवा का पाउडर (चूर्ण) 360 मि.ग्रा. लें । ऐसी 1 मात्रा सुबह-शाम उचित अनुपान से खिलायें । यह योग प्रत्येक प्रकार के ज्वरों को दूर करता है तथा ज्वर से उत्पन्न कमजोरी नष्ट करके रोगी को शक्ति प्रदान करता है ।
भांग के पत्ते और पुराना गुड़ (समभाग) दोनों को रगड़कर चने के आकार की गोलियाँ बनाकर सुरक्षित रख लें । ज्वर चढ़ने से पूर्व 1-2 गोलियाँ ताजा जल से और बाद में प्रात:, दोपहर और सायं समय खिलाते रहें । मलेरिया ज्वर को दूर करने का चमत्कारी योग है ।
प्रवाल भस्म, शंख भस्म, सीप भस्म समभाग मिलाकर सुरक्षित रख लें । 250 से 500 मि.ग्रा. की मात्रा में दिन में 2-3 बार सेवन करायें । इस योग के सेवन से ज्वरों के पश्चात् की कमजोरी में कैल्शियम, ग्लूकोनेट और कैल्शियम जैसे लाभ प्राप्त होते हैं।
वृहत कस्तूरी भैरवरस 250 मि.ग्रा, और त्रैलोक्य चिन्तामणि रस (भै. र.) 125 मि.ग्रा. दोनों को मिलाकर दो मात्राएँ बनायें तथा अदरक के स्वरस तथा विशुद्ध मधु में मिलाकर दिन में 3-4 बार प्रतिदिन चटायें । यह इन्सेफेलाइटिस फीवर का अचूक योग है ।
फिटकरी खील की हुई, धतूरा की ताजी कोपलें, अरण्ड की कोपलें, आक की कोपलें समभाग । सभी को खरल करके मटर के बराबर गोलियाँ बनाकर सुरक्षित रख लें। 2-3 गोलियाँ गरम पानी, गरम चाय अथवा गरम दूध के साथ खिलायें । यह योग एस्पिरिन और अरगा पायरीन जैसा लाभकारी है। जोड़ों के दर्द से उत्पन्न ज्वर, स्नायु पीड़ा, मलेरिया ज्वर, ज्वरों में अंग टूटना और इन्फ्लूएंजा की दिव्य औषधि है ।
कलमीशोरा 3 ग्राम, आक की जड का छिलका 1 ग्राम, अफीम आधी ग्राम । सभी को बारीक पीसकर सुरक्षित रख लें। मात्रा 250 से 500 मि.ग्रा. ताजा जल के साथ दें । यह दवा डोवर्स पाउडर की भाँति लाभकारी है। अंग टूटना, हड्डियों में दर्द होना आदि कष्टों को दूर कर पसीना लाकर ज्वर को दूर कर देती है। ऐसे ज्वर जिनमें जोड़ों का दर्द, दस्त और पेचिश के कष्ट में लाभप्रद योग है ।
हारसिंगार के पत्तों का क्वाथ बनाकर छान लें, 15 मि.ली. की मात्रा में प्रात:समय 1-1 घण्टे बाद तीन मात्राएँ पिलाने से विषम ज्वर दूर हो जाता है ।
अमृतारिष्ट, आनन्द भैरव रस, मृत्युंजय रस, महाज्वराकुंश रस, प्रवालभस्म, कटक रंजादिवटी, ज्वरारिवटी (रसायन सार) किरातादि अर्क, ज्वर केशर वटी, बसन्त मालती रस, महा सुदर्शन चूर्ण आदि औषधियाँ भी विभिन्न प्रकार के ज्वरों में अतीव लाभकारी हैं । पत्रक के निर्देशानुसार सेवन करायें । यह समस्त औषधियाँ आयुर्वेद की हैं।
साधारण ज्वर में – एकोनाइट, बेलाडोना, ब्रायोनिया, रसटाक्स, सरसाम या सन्निपात ज्वर में हेलेबोरस, ब्रायोनिया, एपिसमेल, बेलाडोना, जिंकममेट,
लाभ करती हैं।