इस विटामिन का आविष्कार सबसे पहले हुआ था । यह एक अल्कोहल वर्गीय पदार्थ है। यह रंगहीन और वसा में घुलनशील है। इसका प्राथमिक उदगम स्थल वनस्पति जगत् है। इस विटामिन की कमी से होने वाले लक्षणों का उल्लेख बहुत प्राचीन समय से मिलता है। ईसा से 1600 वर्ष पूर्व काल की ‘ईवर्स पेपिरस’ (मिश्र की प्राचीनतम पुस्तक) तथा 1500 ईसा पूर्व के चीनी साहित्य में रात्रि अन्धता के लिए यकृत के प्रयोग का उल्लेख है । यद्यपि उस समय विटामिन ए और उसकी उपस्थिति की कल्पना भी नहीं की गई थी । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के प्रवर्त्तक ‘हिप्पोक्रेटीज’ ने भी रात्रि अन्धता के लिए बैल के यकृत और शहद का उपयोग बतलाया है ।
सर्वप्रथम सन् 1913 में ‘ओस बोर्न’ और ‘मेन्डल’ ने आँखों के स्वास्थ्य के लिए वसा में घुलनशील इस तत्त्व की उपयोगिता सिद्ध की । 1917 ई० में इस तत्त्व का नाम विटामिन ‘ए’ रखा गया और इसे वसा में घुलनशील बताया । अनुसन्धान कार्य होते रहे और 1929-30 ई० में यह प्रमाणित हुआ कि कैरोटीन विटामिन ‘ए’ का प्रवर्त्तक पदार्थ है । सन् 1930 से 1937 के बीच में इसके रासायनिक संगठन, पृथक्करण, संश्लेषण तथा कैरोटीन से सम्बन्ध आदि बातों की खोज पूरी हुई ।
वनस्पतियों में क्लोरोफिल नामक एक हरे रंग के पदार्थ के अतिरिक्त कुछ लाल और कुछ पीले रंग के पदार्थ भी पाये जाते हैं – इनको कैरोटीन्वायण्ड नाम के अन्तर्गत रखा जाता है। इनके विभिन्न प्रकारान्तरों में अल्फा, बीटा और गामा कैरोटीन तथा क्रिप्टोजैन प्रमुख हैं। ये पदार्थ पशु शरीर में पहुँचकर सम्भवतः यकृत में उपस्थित एक विशेष एन्जाइम (कैरोटिनेज) द्वारा विटामिन ‘ए’ में परिवर्तित हो जाते हैं । इनमें से कैरोटीन का बीटा प्रकारान्तर विटामिन ‘ए’ प्रवर्तन के लिए सर्वाधिक उपयोगी है, साथ ही वनस्पति जगत में सर्वाधिक व्यापक है । इस प्रकार निर्मित विटामिन ‘ए’ का 90% यकृत में संग्रहीत हो जाता है और शेष फेफड़ों और गुर्दों में । इस तरह पशुजन्य खाद्य पदार्थ दूध, मक्खन, अण्डों में विटामिन ‘ए’ अपने असली स्वरूप में मिलता है और इस तरह वनस्पतियों से शरीर को कैरोटीन के द्वारा विटामिन ए बनाना पड़ता है। पशु जन्य आहारों से सीधे ही विटामिन ‘ए’ मिलता है ।
विटामिन ‘ए’ की मात्रा का यूनिट के आधार पर वर्णन किया जाता है, क्योंकि अभी तक शरीर से बाहर यह विटामिन शुद्ध रूप से प्राप्त नहीं हो सका है अतएव इसकी यूनिट के लिए इसके प्रवर्तक पदार्थ के निश्चित परिमाण का उल्लेख किया जाता है।
विटामिन ‘ए’ की एक अन्तर्राष्ट्रीय यूनिट 0.6 माइक्रोग्राम बीटा कैरोटीन (1934 स्टेण्डर्ड) में निहित बायोलोजिकल क्षमता के बराबर होती है । अमरीका में यू. एस. पी. यूनिट भी प्रयोग होती है । 100 U.S.P यूनिट 87 अ० यूनिट के बराबर होती है।
जैसाकि ऊपर दिये गये विवरण से स्पष्ट है कि वनस्पतियों में यह विटामिन इस रूप में नहीं मिलता अपितु कैरोटीन के रूप में मिलता है जिसका एन्जाइम द्वारा पाचन होकर विटामिन ‘ए’ बनता है। अत: केवल पशुजन्य खाद्य पदार्थों में-जिनमें परिवर्तित विटामिन ए है, वही विटामिन ए मिल सकता है, ऐसे खाद्य पदार्थ हैं – मक्खन, यकृत (जिगर), अण्डे, मछली, मछली के यकृत से निकाले गये तेल (काड लिवर ऑयल, हेलिवट लीवर ऑयल आदि) । दूध और अण्डे में विटामिन ए की मात्रा पशु एवं मुर्गी को दिये जाने वाले चारे पर निर्भर करती है जितना हरा चारा पशु को मिलेगा, उतनी ही अधिक मात्रा में विटामिन ‘ए’ दूध अथवा अण्डे से मिलेगा ।)
उपलब्धि – कैरोटीन के रूप में हरा शाक-भाजियों और फलों में यह विटामिन अनिवार्यत: रहता है। आम, पपीता, अलूचा, केला, खजूर, कमरख, अंजीर, हरा धनिया, लाल चौलाई, चने का साग, मेथी, सलाद, पोदीना, पालक, गाजर, जिमीकन्द, करेला, मटर, टमाटर, गुआर की फली, मक्का (कच्चा) पान पत्ता में इस रूप में मिलता है। मूँगफली, पिस्ता, काजू, मूँग छिलका सहित, मसूर, अरहर छिलका सहित, बाजरा, ज्वार, गेहूँ (चोकर सहित आटा) चना छिलके सहित में कैरोटीन के रूप में विटामिन ‘ए’ मिलता है ।
वनस्पतियों पर निर्भर रहने से विटामिन ‘ए’ अपने पूर्व रूप ‘कैरोटीन’ के रूप में मिलता है। शरीर इसका आत्मीकरण कर विटामिन ‘ए’ का निर्माण करता है। कैरोटीन का निर्माण कठिनता से कर सकते है। अत: उन्हें ऐसे आहार की आवश्यकता होती है जिनमें विटामिन ‘ए’ पूर्णरूप में ही उपलब्ध हो जैसे दूध आदि में । यह बात मानी जाती है कि एक यूनिट विटामिन ए का महत्व तीन यूनिट कैरोटीन के बराबर होता है।
यह विटामिन ठण्डे कच्चे तथा थोड़े गरम चर्बी, तेल तथा घी में घुल जाता है। 100 शतांश (सेन्टीग्रेड) तापमान को सहन कर सकता है तथा अधिक तापमान में नष्ट हो जाता है । भूनने अथवा तलने से भी नष्ट हो जाता है। क्षारीय पदार्थ भी इसे नष्ट कर देते हैं। खाद्य पदार्थों को सुखाने से भी यह विटामिन नष्ट हो जाता है। यह केवल सुअर की चर्बी को छोड़कर दूसरे अन्य पशुओं की चर्बी में भी पाया जाता है । दूध, दही, मक्खन के अतिरिक्त मलाई, लस्सी, पनीर, अण्डे की जर्दी, बन्द गोभी आदि में भी उपलब्ध है । इसके अतिरिक्त पालक के शाक में, मूली के पत्तों में, सहजन, भोज्य पदार्थों तथा हाथ से कुटे चावलों में पर्याप्त मात्रा में यह विटामिन प्राप्त होता है।
विटामिन ‘ए’ कम हो जाने के लक्षण
बार-बार सर्दी-जुकाम हो जाना, नाक बहना, कान के रोग, फेफड़ों और श्वासनांगों में बार-बार संक्रमण हो जाना, हड्डियाँ और दाँत कमजोर हो जाना और इनका भली प्रकार न बढ़ना, चर्म शुष्क, खुरदरा होना, चर्म पर छिलके उतरने लग जाना, जाँघों कमर के ऊपरी भागों और टाँगों पर बालों के स्थान मोटे हो जाना, चर्म पर फोडे-फुन्सी, कील, चम्बल, मुँहासे निकलना तथा चर्म रोग बार-बार हो जाना, आँखों का तेज प्रकाश को सहन न कर सकना, शाम या रात को कम दिखाई देना या अन्धा हो जाना इत्यादि लक्षण इस विटामिन की कमी की प्रदर्शित करते हैं। इसकी कमी से आँखों में रूक्षता आ जाती है, आँसू घट जाते हैं, कनीनिका रूक्ष हो जाती है तथा दोनों नेत्र प्रकाश सहन नहीं कर सकते। युवकों में वृक्क या मूत्राशय में पथरी बन जाती है। दाँतों में हड्डी वाला भाग उचित रीति से नहीं बन पाता । (इस विटामिन की कमी उस समय होती है जब भोज्य द्रव्यों में कैरोटीन नामक तत्त्व की न्यूनता हो जाती है) इसकी कमी से नेत्रों की पलकों के भीतर की कला (Mucous Membrane) झिल्ली शुष्क होकर दरदरी हो जाती है ।
विटामिन ‘ए’ शरीर में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता पैदा करता है । यही कारण है कि इसकी कमी होने के फलस्वरूप यह क्षमता न्यून हो जाती है जिससे बच्चों को ऋतु परिवर्तन के समय खाँसी, न्यूमोनिया, ज्वर, पेट-दर्द, अपच, दस्त इत्यादि रोग हो जाते हैं। उनके दाँत देर से निकलते हैं, शरीर भार घट जाता है। त्वचा मोटी, खुरदरी, सूखी और कान्तिहीन हो जाती है । यह विटामिन जल में एकदम नहीं घुलता है किन्तु तेल, वसा और मोम में भली-भाँति घुल जाता है। ऐसा प्रत्यक्ष परीक्षणों द्वारा देखा गया है। इस विटामिन की शरीर में बहुत अधिक कमी होने पर रोगी काम करने तक से अयोग्य हो जाता है, उसके नाखून आसानी से टूटने लग जाते हैं। भीतरी अंगों की भीतरी झिल्ली (म्यूकस मेम्बरेन) शुष्क हो जाती है और उसमें आवश्यक तरल निकलना रुक जाता है । पसीना निकलने वाले रोम कूप (छिद्र) बन्द हो जाते हैं ।
विटामिन ‘ए’ के फायदे – यह विटामिन शरीर के टिश्यूज का पालन-पोषण करता है और नये टिश्यूज को उत्पन्न करने में सहायता देता है। भूख बढ़ाता है तथा पाचानांगों को शक्ति देता है । शरीर में रोगों का मुकाबला करने की क्षमता प्रदान करता है विशेषकर आँखों के रोगों को दूर कर दृष्टि को तेज करता है । नथुनों, फेफड़ों और पाचानांगों के रोगों को दूर कर मनुष्य के पालन-पोषण में सहायता देता है ।
आवश्यकता – मनुष्य की बाल्यावस्था, गर्भावस्था तथा संक्रामक रोग होने की अवस्था में विटामिन ‘ए’ की अत्यधिक आवश्यकता होती है। दुर्बल व्यक्तियों को संक्रामक रोग न हो जायें, इसलिए भी इस विटामिन को प्रयोग करने की आवश्यकता होती है।
मात्रा एवं स्वरूप – मौखिक रूप से वयस्क व्यक्ति को स्वस्थावस्था में दिन भर में 1000 से 3000 यूनिट्स विटामिन ‘ए’ की, बच्चों को दिन भर में 5000 से 8000 यूनिट्स तथा रोग की अवस्था में दिन में 50,000 से 1 लाख यूनिट्स तक की आवश्यकता पड़ सकती है ।
विटामिन ‘ए’ कैप्सूल में पैक मिलते हैं। कुछ औषध निर्माताओं ने इसके इंजेक्शनों का निर्माण कर बाजार में उपलब्ध किया है, इनके प्रयोग से मात्र 4-5 दिन में ही आश्चर्यजनक लाभ प्राप्त होता है।