हिस्टीरिया महिलाओं संबंधी एक प्रमुख रोग है, जिसे आयुर्वेद में ‘योषापस्मार’ कहते हैं। योषा शब्द स्त्रीवाचक है और अपस्मार मिर्गी का द्योतक। यह मुख्यतः कोमल प्रकृति की स्त्रियों में अधिक पाया जाता है। वैसे तो यह नाड़ी संस्थान जन्य विकार है, लेकिन प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार, अधिक भोगविलास का जीवन, सेक्स संबंधी विचारों का मनन करना व आरामतलब जीवन यानी आलस्यता आदि इस रोग की उत्पत्ति में सहायक हैं। इस प्रकार मानसिक दुर्बलता व ज्ञान-तंतुओं की कमजोरी इस रोग के मुख्य कारण हैं।
इनके अतिरिक्त निम्नलिखित कारण भी हिस्टीरिया को उत्पन्न करने में सहायक होते हैं:
विवाहित स्त्रियों में हिस्टीरिया होने के कारणः
1. युवा स्त्रियों में ऋतु संबंधी दोष जैसे कष्टपूर्वक मासिक धर्म होने की लगातार दशा, रजावरोध आदि।
2. बांझपन (इस स्थिति में स्त्रियों में हीनभावना पैदा हो जाती है, मन-मस्तिष्क पर आधात पहुंचता है, परिणामस्वरूप दौरा प्रारंभ हो जाता है) ।
3. काम पीड़ा व कामवासना में अतृप्ति।
4. मासिक धर्म के पश्चात् पुरुष समागम न होने से।
5. दाम्पत्य प्रेम का अभाव (लंबे समय तक पति से मनमुटाव) ।
6. पति के शारीरिक रूप से कमजोर होने व बीमार रहने की चिंता व अवसाद से।
7. पति वृद्ध हो, आयु में छोटा हो या अन्य से प्रेम करता हो।
8. पतिव्रता स्त्री का परपुरुष से बलात्कार। (घटना के स्मरण मात्र से हिस्टीरिया के दौरे पड़ते हैं)।
9. सामाजिक एवं पारिवारिक बंधन, सास-बहू व अन्य घर के सदस्यों से तालमेल न होना व पति का लंबे समय तक पत्नी से दूर रहना आदि।
अविवाहित स्त्रियों में हिस्टीरिया होने के कारणः
1. ल्यूकोरिया यानी श्वेतप्रदर या रक्तप्रदर की बीमारी से लंबे समय तक पीड़ित रहना।
2. मासिक स्राव संबंधी सभी विकारों में से एक से भी दीर्घकाल तक पीड़ित होना।
3. प्रेम प्राप्ति में असफलता या प्रेमी से हमेशा के लिए बिछुड़ना।
4. प्रेम संबंध आदि के कारण पारिवारिक कलह होने के परिणामस्वरूप शांत जीवन व्यतीत करने की अतृप्त इच्छा।
5. गलत आहारों, जैसे गर्म पदार्थों, का लगातार सेवन।
6. अपचन, कब्जियत या पेट के कीड़ों से लंबे समय तक ग्रस्त रहना एवं कोलाइटिस आदि।
7. शारीरिक परिश्रम न करना, मानसिक परिश्रम करना।
8. अश्लील साहित्य पढ़ना, ब्लूफिल्में देखना आदि।
9. अत्यंत भोग-विलासमय जीवन व्यतीत करना।
इस रोग की दो अवस्थाएं लक्षणानुसार निम्न होती हैं:
1. सौम्य हिस्टीरियाः हिस्टीरिया के दौरे के प्रारंभ में ही रोगिणी को इसके होने का आभास हो जाता है, परिणाम स्वरूप उसके शरीर को कोई हानि नहीं पहुंचती। इसकी प्रारंभिक अवस्था में पेडू में एक वायु का गोला उठता है, जो गले में जाकर अटक जाता है। कुछ समय तक यह स्थिति रहती है कि मानो दम घुटा जा रहा हो। स्थिति ठीक होने के उपरांत चक्कर आना, सिर में भयंकर दर्द, आलस्य, दिल की धड़कनें बढ़कर बार-बार डकारें आती हैं, गले में तनाव-सा महसूस होता है।
2. तीव्रावस्था का हिस्टीरियाः जब यह रोग दीर्घकालिक हो जाता है, तब पेडू से उठा वायु का गोला गले में अटक जाता है, जिससे रोगिणी का चेहरा लाल पड़ जाता है, रोगिणी रोती है व प्रलाप करती है। वह हाथ-पैर पटकती है, नथुने फूल जाते हैं और फिर बेहोशी। शरीर अक्सर धनुषाकार हो जाता है, जब दौरे की तीव्रता कम हो जाती है, तो वह कांपती है और अंचानक चौंक कर लंबी-लंबी सांस भरती है, बाद में काफी पेशाब आकर नींद आ जाती है। इस अवस्था में रोगिणी की गति इतनी तीव्र होती है कि कई लोगों को पकड़ना पड़ता है। दौरे यानी आक्षेपों से शरीर पर कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता है। दृष्टि क्षेत्र में संकुचन होती है, पुतली इधर-उधर घूमती रहती है, दौरा कई दिनों तक रह सकता है, किसी प्रकार के विचार आने पर दौरा पड़ जाता है, मांसपेशियों में सख्ती तो आती हैं, झटके नहीं आते हैं। लेकिन यह कोई जरूरी नहीं कि प्रत्येकावस्था में सभी लक्षण एक जैसे हों।
छुटकारे के सरल उपायः
इसका उपचार दो तरीके से होता है:
1. दौरे की प्रारंभिक अवस्था का उपचारः रोगिणी को जब दौरा पड़े तो सबसे पहले उसको हवादार तथा साफ जगह पर लिटाकर उसके कपड़े ढीले करें। सिर को तकिये के ऊपर रखते हुये उसके सीने के कपड़ों को हटाएं, मुंह पर शीतल जल से छीटें मारें तथा अंगुलियों के नाखूनों के अंदर के भाग को कसकर दबाएं। पिंडलियों को ऊपर से नीचे की ओर, जोर से हाथों से मलना जरूरी है। रोगिणी की बेहोशी दूर करने के लिए पहले से नौसादर, चूना व कपूर एक-एक तोला अलग-अलग पीसकर एक शीशी में भरकर रखें। इस शीशी को हिलाकर रोगी की नाक के समीप, डाट खोलकर उसकी नासाछिद्र में लगा दें, फिर पैरों में गुनगुना पानी डालें। सिर पर ठंडे पानी की पट्टी या बर्फ रखें। यदि बेहोशी दूर न हो तो तीखी सुगंध जैसे पिपरमेंट व इसका अंजन करने से मूर्च्छा दूर होती है, पिपरमेंट की गर्मी पहुंचकर शीतदूषित मस्तिष्क से वात दूर हो जाती है। ऊपर से नीचे के दांत आपस में भिंच गये हों तो मसूड़ों पर सोंठ-काली मिर्च का चूर्ण मलें, एमिल नाइट्रेट भी सुंघा सकते हैं।
रोगिणी के लिए क्या-क्या फायदेमंद
पाचन संस्थान की विकृति जैसे कब्ज का होना या पेट में गैस बनना भी रोगिणी के लिए नुकसानदेय है। अत: कैस्टर ऑयल या त्रिफलाचूर्ण कब्ज दूर करने के लिए सेवन कराएं या केवल हरड़ का चूर्ण। गैस न बने इस हेतु हिंग्वाष्टक चूर्ण, गंधकवटी, लहसुनादिवटी का सेवन कराएं।
रोगिणी के पथ्याहार के स्वरूप ऐसी चीजें होनी चाहिए जो पित्त का शमन करें व वायुदोष को न बढ़ाएं जैसे गाय का दूध, पुराने चावल, आंवले का मुरब्बा, अंगूर, सेब, मौसमी, पपीता व अन्य मीठे फल, प्याज, खीरा, ककड़ी, बिल्व का शर्बत, कुल्फी, दलिया, मूंग की दाल, मसूर की दाल आदि। हो सके तो अंजीर का अपने आहार में समावेश करना चाहिए। हिस्टीरिया के ठीक होने में इस तरह का पथ्याहार औषधि स्वरूप कार्य करता है।
रोगिणी के लिए क्या-क्या नुकसानदेय
अकेले में रहना, अधिक शारीरिक या मानसिक परिश्रम, चिंता, शोक, भय, अश्लील साहित्य का अध्ययन व रोमांटिक फिल्में, शराब, अन्य नशेदार पदार्थों का सेवन नुकसान देय है। इसके अलावा खटाई, मिर्च-मसालेदार और तले हुए पदार्थ, कॉफी, अधिक चाय, समय-बेसमय भोजन आदि नुकसानदेय हैं।
घर के परिजन रोगिणी की बेहोशी की अवस्था में घबराएं मत। अमृतधारा या कपूरसत की एक-एक बूंद नाक में डालने से बेहोशी दूर हो जाएगी, पोटेशियम परमैंगनेट को सुंघाने से भी छींकें आकर मूर्च्छा दूर हो जाती है।
इसमें रोगिणी की परिचारिका के रूप में पति व घर के अन्य परिजनों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। ऐसा अक्सर देखा गया है कि अविवाहित का विवाह होने के बाद व विवाहित के एक दो बच्चे होने के बाद यह रोग स्वतः ही शांत हो जाता है। कामवासना की तृप्ति ही इस रोग के शांत होने में एकमात्र उपाय है। हां, अगर गर्भाशय संबंधी विकार हों, तो उनका समयोचित इलाज किसी कुशल चिकित्सक से अवश्य करवाना चाहिए।