आन्त्रगत का तात्पर्य आन्त्र सम्बन्धी और ‘रक्त-स्राव’ से तात्पर्य खून का अनवरत मात्रा में निकलना है। अत: आन्त्र से निकलने वाले रक्तस्राव को ‘आन्त्र रक्तस्राव’ कहा जाता है । अन्न के काँटा, काँच या नुकीली वस्तु खा लेने पर वह आन्त्र की भित्ति को खुरच देती है, फलस्वरूप शोणित स्राव होने लगता है, जिसका अधिकतर अंश गुदा मार्ग द्वारा निष्कासित हो और कुछ अंश उदर कलाशोथ (पैरीटोनाइटिस) का कारण बन जाये । आन्त्रावरोध को उत्पन्न करने वाले सभी कारण प्रथम तो अवरोध करते हैं और यही अवस्था जब उग्र रूप धारण कर लेती है तो (आन्त्र विकार) होकर आन्त्रगत रक्तस्राव का रूप धारण कर लेती है ।
इसके अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे – उदरगुहा के अर्बुद, पुटी (सिष्ट), बन्धित हार्निया कोष इत्यादि । आन्त्र बाह्य कारण तथा अर्बुद (ट्यूमर), फ्राइवस स्ट्रिकचर, अन्त्रान्त प्रवेश (इण्टरस ससैप्सन), आन्त्र परिवर्तन, आन्त्र संकोचन (एण्ट्रो स्पाज्म) इत्यादि । आन्त्र भित्तिगत कारण तथा वालाश्म (Irapation of the Foreign Body) शुष्क मल (Faecal Matter) और कृमि आदि का गुच्छा आन्त्र में फँसकर आन्त्रावरोध का कारण बनता है । यही कारण जब उग्र स्थिति को धारण कर लेते हैं तो आन्त्र की दीवालों के छिद्रित होने से शोणित-स्त्राव जारी हो जाता है।
इसके अतिरिक्त इस रोग के तीव्र रेचक तथा अन्य औषधियों के सेवन सम्बन्धी कारण भी हो सकते हैं । जैसे – ‘जमालगोटा’ अथवा अन्य कोई उसी प्रकार की क्षोभक औषधि रेचन हेतु सेवन करने से आन्त्र भित्ति में विदाह उत्पन्न हो जाता है और शोणित स्राव होने लगता है। इसी क्रम में ‘एस्पिरीन’ की अतिमात्रा का सेवन या अधिक काल तक प्रयोग से भी यह रोग हो सकता है । आन्त्रिक ज्वर (टायफायड) की अवस्था के चलते रहने पर तीसरे सप्ताह के अन्तिम दिनों में पियर्स पैचेस की रक्तवाहिनी के फटने से भी रक्तस्राव शुरू हो जाता है ।
इस रोग के निम्नांकित चिन्ह एवं लक्षण होते हैं –
ताप का गिर जाना, नाड़ी गति का बढ़ना, पसीना, कम्पन, हाथ-पैरों का ठण्डा हो जाना, आँखें पीली हो जाना, अस्थिरता, गुदा मार्ग द्वारा रक्त निकलना-जिसे ‘मेलिना’ कहकर पुकारा जाता है तथा अन्धापन इत्यादि ।
नोट – (A) कभी-कभी आन्त्र विदाहरण के पश्चात् कुछ अंश उदरामय कला में संचित हो जाता है और उदरावरण कला शोथ का रूप धारण कर लेता है ।
(B) रक्तचाप न्यून हो जाता है। यदि संकोच रक्तचाप (सिस्टोलिक ब्लडप्रैशर) 60 मि.मी. तक गिर जाये तो अच्छी चिकित्सा के बिना रोगी का बचना कदापि सम्भव नहीं है ।
(C) पेट में असहनीय पीड़ा, मल मार्ग द्वारा निकला हुआ रक्त, गिरता हुआ शरीर का ताप, बढ़ी हुई नाड़ी गति, गिरते हुए ब्लडप्रेशर तथा आन्त्रिक ज्वर आदि रोगों के इतिहास से इस रोग का सहज ही पता चल जाता है ।
(D) इस रोग का सापेक्ष्य निदान रक्तज अर्श से किया जा सकता है
रक्तार्श | आन्त्रगत रक्तस्राव |
केवल मल क्रिया करते समय ही रक्त आता है। | इसका मल क्रिया के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । |
केवल थोड़ा-बहुत ही रक्तस्राव होता है । | इसका रक्तस्राव अनिश्चित व अधिक समय तक होता है । |
अर्श रोग का इतिहास प्राप्त होता है। | बद्ध गुदोदर, आन्त्रिक ज्वर आदि रोगों का इतिहास प्राप्त होता है। |
- सम्पूर्ण विश्राम-यहाँ तक कि रोगी को जरा भी इधर-उधर न हिलने दिया जाये।
- मार्फिया 1/6 ग्रेन और एट्रोपीन 1/2000 ग्रेन का इन्जेक्शन पेट में पीड़ा होने पर दिया जाये ।
- विटामिन ‘सी’ तथा विटामिन ‘के’ के रक्तस्राव रोकने हेतु इन्जेक्शन दें ।
- यदि शरीर में तरल की कमी हो तो इस हेतु ‘प्लाज्मा’ (हेक्स्ट कंपनी) हीमेक्सिल का प्रबन्ध करना चाहिए। नोट – परन्तु ऐसे रोगियों में यदि रूधिरान्त: क्षेप किया जाये तो अधिक श्रेयस्कर होता है ।
- गुरुतर केसों में स्ट्रेप्टोक्रोम, स्ट्रेप्टो कार्बाजान का इन्जेक्शन भी रुधिर अथवा प्लाज्मा के साथ लगा देना चाहिए ।
- कैल्शियम का सूचीवेध भी रक्तस्राव की दशा में देने से लाभ होता है ।