परिचय : 1. इसे कम्पिल्लक (संस्कृत), कबीला (हिन्दी), कंकलागुण्डी (बंगला), कपिला (मराठी), कपीली (गुजराती), कपिलोपेदि (तमिल), सुन्दर शुण्डी (तेलुगु), कम्बील (अरबी) तथा मेलोटेस फिलीपाइनेन्सिस (लैटिन) कहते हैं।
2. कबीला का वृक्ष मध्यम आकार का और हरा-भरा होता है। कबीला के पत्ते गूलर के पत्तों के समान, 3-6 इंच लम्बे, डंठल के किनारे दो गाँठों तथा पत्ते के नीचे तीन-तीन लाल शिराओं से युक्त होते हैं। कबीला के फूल छोटे-छोटे, गहरे, लाल रंग के डंठल पर लगते हैं। कबीला के फल बेर के समान होते हैं। बीज गोल, चिकने और काले रंग के होते हैं।
रासायनिक संघटन : इसमें रॉटलरीन-युक्त लाल-पीली राल 8 प्रतिशत, उड़नशील तेल, टैनिन, स्टार्च, एल्ब्यूमिन, गोंद आदि तत्त्व पाये जाते हैं।
कबीला के गुण : यह स्वाद में चरपरा, पचने पर कटु तथा हल्का, रूखा, तीक्ष्ण और गर्म है। इसका मुख्य प्रभाव पाचन-संस्थान पर भेदक रूप में पड़ता है। यह कुष्ठहर, कृमिनाशक, रक्तशोधक और मूत्रजनक है।
कबीला के प्रयोग
1. गुल्म : कबीले के चूर्ण 2 माशा मधु के साथ देने से गुल्म रोग ठीक होता तथा मल निकलता है।
2. उदरकृमि : कबीले का चूर्ण 1-3 माशा घी-गुड़ के साथ देने से उदरकृमि निकल आते हैं।
3. गुदाकाण्डू : कबीले के चूर्ण को तेल में मिलाकर गुदा में लगाने से बच्चों की गुदा की खुजली या सुर्खी में बहुत लाभ होता है।
4. व्रण : कबीला 1 तोला, मुर्दाशंख 1, पापड़ी 1 तोला पीसकर पाउडर जैसा बनाकर गीले घावों पर रूई में लगाकर ऊपर छिड़कने से फोड़े शीघ्र भर जाते हैं। सूखे घावों पर घी या वेसलीन मिलाकर लगायें। यह उपदंश तथा फिरंग पर भी काफी लाभप्रद है।