त्वचा की बनावट ( Structure of Skin )
त्वचा शरीर की खाल को कहते हैं। इसे चर्म, त्वचा, जिल्द आदि नामों के अतिरिक्त अंग्रेजी में स्किन के नाम से भी जाना जाता है । चर्म समस्त शरीर की रक्षा के लिए कई पत्तों वाला एक स्तर है । स्पर्श-ज्ञान इसी से होता है । हथेली और तलुओं को छोड़ कर लगभग सभी स्थानों पर इसके ऊपर न्यूनाधिक बाल लगे रहते हैं ।
त्वचा के दो भाग होते हैं – (1) उप चर्म (Epidermis) (2) चर्म या अन्तस्त्वक (Dermis या True Skin)
उपचर्म (बाहर की त्वचा)
इसे अंग्रेजी में ‘एपिडर्मिस’ कहा जाता है । यह भीतरी चर्म के ऊपर आवरण के रूप में चढ़ी रहती है। यह कठोर और नुकीले ऊतकों (Tissues) से बनी है और शरीर के रात-दिन काम करने से घिसती है और पुन: बनती रहती है। यह साँप की केंचुली के समान होती है जिसकी मोटाई भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग होती है । हथेली और पैर के तलवों पर इसकी मोटाई 1.25 मि०मी० तक होती है । पीठ पर इसकी मोटाई 1 मि०मी०, कुछ दूसरे स्थानों पर इसकी मोटाई 0.12 मि०मी० होती है। बाहरी चर्म के पित्त में रक्त वाहिनियाँ (Blood vessels) नहीं होती हैं ।
उपचर्म में स्थित छिद्र और रोम जल के सम्पर्क में आकर कुछ फूल जाते हैं किन्तु तरल या कोई भी विषैली चीजें इनके द्वारा शरीर में नहीं जा सकती हैं। हाँ ! यदि कभी जब चर्म कहीं से कट या फट जाये तो उस मार्ग से विषैला पदार्थ अन्दर त्वचा में पहुंचकर रक्त वाहिनियों एवं कोशिकाओं (कैपिलरीज) द्वारा शरीर में पहुँच जाता है। उपचर्म रोगोत्पादक कीटाणुओं को भी स्वस्थ अवस्था में शरीर के अंदर प्रविष्ट होने में बाधा डालती है। उपचर्म हमारे शरीर को स्वस्थ, सुरक्षित रखने, पसीना, रोम और नख के रूप में रक्त के दूषित पदार्थों को बाहर निकालने में भारी सहायक होती हैं। उपचर्म के रोम कूपों से विषैली गैस (कार्बन-डाई-ऑक्साइड) भी कुछ न कुछ बाहर निकलती रहती है तथा ऑक्सीजन गैस अन्दर जाती रहती है ।
बहि: त्वचा (उपचर्म) के नीचे मनुष्य का रंग बनाने वाली त्वचा रहती है। यह जिस रंग की होती है, मनुष्य उसी रंग का गोरा, काला अथवा गेहुँआ दिखाई पड़ता है। वर्ण सूचक रंजित त्वचा की सेलें सूरज की सख्त गर्मी और सर्दी से शरीर की रक्षा करती हैं ।
अन्तस्त्वक चर्म (Dermis)
यह बाहरी चर्म के नीचे की त्वचा है, जो संयोजक एवं स्थितिस्थापक ऊतकों (Connective and Elastic Tissues) से बनी होती है । यह मांसपेशीय ऊतकों (Muscular Tissues) और चर्बी के ऊपर होती है। भीतर चर्म में अनेकों रक्त कोशिकाओं, सूक्ष्म रक्त-वाहिनियों एवं स्नायु के सिरों के जाल फैले हुए रहते हैं। इसके ऊपरी भाग में रक्त कोशिकाओं (Blood Capillaries) के गुच्छे होते हैं । नीचे का भाग लचीला होता है जिसके अधोभाग में क्रमश: चर्बी वाले ऊतक (Fatty Tissues), कोशीय ऊतक (Cellular Tissues) होते हैं।
यह तहें प्राय: चिकनी होती हैं । चूँकि चर्बी बाहरी ताप का कुग्राहक है, इसलिए चर्म को यह चिकनाई या वसा (Fat) शरीर को बाहरी सर्दी के प्रभाव से बचाती है और शरीर के ताप को नियन्त्रित रखती है ।
अन्तस्त्वक में ही स्वेद ग्रन्थियाँ, चिकनाई की ग्रन्थियाँ, लसिका वाहिनियाँ (Lymph Vessels) एवं संज्ञावाही नाड़ियों के अन्तिम सिरों का जाल बिछा रहता है। जब इसमें सुई चुभ जाती है तो रक्त निकलता है और दर्द होता है। स्वेद-ग्रन्थियों में रक्त का दूषित तरल (पसीना) जमा होता रहता है जो यदा-कदा बहिर्त्वक के रोम कूपों (Hair Follicles) से बाहर निकला करता है ।
वसा ग्रन्थियों की दीवारों की वसा (स्नेह) बालों को चिकना, चमकदार और मुलायम बनाती है। ये ग्रन्थियाँ चेहरे की त्वचा में अधिक होती हैं किन्तु हथेलियों एवं पैर की त्वचा में बिल्कुल नहीं होती हैं ।
अन्तस्त्वक चर्म, बहिर्त्वक से अधिक मोटा और शक्तिशाली होता है तथा मांस, शिरा, धमनी, स्नायु आदि कोमल अवयवों की रक्षा करता है | यह मौसम (ऋतु) के अनुसार शरीर के तापमान को कन्ट्रोल (नियन्त्रित) करता है ।
माडर्न मेडीकल साइन्स में उपर्युक्त उल्लिखित त्वचा के दो प्रकार ही माने गये हैं । बहिर्त्वक के सबसे नीचे के स्तर में रंगीन कण मेलीना या मेलेनिन (Malanin) होता है । बाहर की चर्म वर्ण विभिन्नता के कारण ही विविध जातियों के मनुष्य के रंग गोरे, काले या पीले होते हैं ।
उपर्युक्त त्वचा के प्रमुख दो भेदों के अतिरिक्त Malanin (एपिडर्मिस) में चार तथा अन्तस्त्वक (डर्मिस) में तीन अन्य प्रकार के चर्म के अलग-अलग वर्णानुसार भेद किये गये हैं जो कुल मिलाकर सात हैं, जो निम्नांनित हैं-
बहिर्त्वक (Epidermis)
1. अवभासिनी (Horney Layer) ,
2. लोहिता (Stratum Lucidum)
3. श्वेता (Stratum Granulosum)
4. ताम्रा (Malpighian)
अन्तस्त्वक (Dermis)
1. वेदिनी (Papillary Layer)
2. रोहिणी (Reticular Layer)
3. मांसधरा (Subcutaneous Tissue)
त्वचा को सम्पूर्ण शरीर को आवृत करने वाली स्पर्शन्द्रिय का अधिष्ठान माना गया है। क्योंकि यह शीत, उष्ण, लघु, मृदु, रूक्ष आदिस्पर्शों का ज्ञान कराती है। यह स्पर्श द्वारा शरीर के हित और अहित की रक्षा का भी कार्य करती है । इसके अतिरिक्त त्वचा अपने भीतर रहने वाले पित्त की सहायता से मरहम, पुल्टिस, लेप आदि को शरीर के अन्दर तक पहुँचाती है । अवभासिनी त्वचा सभी वर्णों को स्पष्ट करती है तथा क्षुद्ररोग, सिध्म, पद्म, कंटक आदि इसी में अधिष्ठित रहते हैं । लोहिता त्वचा में ही न्यच्छ, तिल आदि रोग अधिष्ठित रहते हैं । श्वेता त्वचा में व्यंग, चर्मदल, अजमली रोग, ताम्रा त्वचा जो रंग वाले स्तर में है किलास, कुष्ठरोग, वेदिनी त्वचा में कुष्ठ, विसर्प रोग, रोहिणी में श्लीपद, गलगण्ड तथा मांसधरा त्वचा में अर्श, भगन्दर, विद्रधि आदि रोग अधिष्ठित रह सकते हैं ।