इस विटामिन को पायरीडोक्सीन के अतिरिक्त ‘एडार्मिन’ के नाम से भी जाना जाता है । यह तत्त्व (विटामिन) खमीर, यकृत, अनाजों के बाहरी आवरण और दालों में मिलता है । उगने पर अनाजों में इसकी मात्रा बढ़ जाती है । मछली में भी थोड़ी बहुत मात्रा में यह उपस्थित होता है । शाक-भाजियों और दूध में यह अल्प मात्रा में ही होता है। प्राकृतिक दशा में यह विटामिन प्रोटीन से संयुक्त पाया जाता है और अपने इस रूप में इसका अवशोषण पूर्णतय: नहीं हो पाता, इसीलिए इसकी उपयोगिता और आत्मीकरण के लिए भोजन का पकाया जाना आवश्यक है ।
केला, सूखी सेम, सूखी मटर, आलू, साबुत गेहूँ, गरम सुअर का माँस, खमीर (शुष्क), (जिगर) यकृत, गेहूँ का भ्रूण, चावलों के ऊपरी भाग तथा हरी शाक सब्जियों में यह उपलब्ध होता है ।
इससे चूहों, कबूतरों, मुर्गी के बच्चों, कुत्ते और सुअर पर प्रभाव होता है। मनुष्य पर इसका क्या प्रभाव होता है यह अभी तक पूर्ण रूप से ज्ञात नहीं हुआ है । फिर भी इस विटामिन का प्रयोग विभिन्न दशाओं में किया गया है-
पलेग्रा और बेरी-बेरी के उन रोगियों में जिनको बी-1 और बी-2 के प्रयोग करने पर भी लक्षणों में लाभ नहीं हुआ किन्तु इसका प्रयोग करने से लाभ हुआ । त्वचा की विकृतास्थाओं में इसका प्रयोग कराया गया और गर्भावस्था के प्रारम्भिक काल में होने वाली जी मिचलाना, उल्टी आदि में इससे लाभ होता है। विटामिन B6 शरीर में कम हो जाने पर अत्यधिक स्नायु दुर्बलता हो जाती है। नींद न आना, चिड़चिड़ापन, पेट में दर्द होना, कमजोरी, चलते समय लड़खड़ाने लग जाना, चलने में कठिनाई होना, शरीर में रक्त की कमी आदि रोग हो जाते हैं जो रोगी चलते समय लड़खड़ाते हों और चलने में कष्ट होता हो तो विटामिन B6 के मांस में इन्जेक्शन लगाते रहने से उनके यह कष्ट दूर हो जाते हैं। घातक रक्ताल्पता में भी इसके इन्जेक्शन बहुत लाभकारी हैं। क्लोरोफार्म, ईथर आदि की संज्ञाहरण क्रिया के बाद में होने वाली मितली और वमन में भी इसका प्रयोग लाभकारी है ।
Parkinson’s Disease (कम्पन और शरीर की माँसपेशियों का कमजोर हो जाना) के 15 रोगियों को 50 से 100 मिलीग्राम विटामिन B6 के शिरा में इन्जेक्शन प्रतिदिन अथवा एक दिन छोड़कर लगाते रहने से रोगियों की अवस्था काफी सुधर जाती है। गर्भावस्था में कै, मितली और आधे सिर का दर्द होने में भी यह विटामिन बहुत ही लाभकारी है । गर्भवती को 20 से 100 मिलीग्राम प्रतिदिन देने से इसको कै, मितली, सिरदर्द नहीं हो पाते हैं । रोग की अधिकता में 50 से 100 मि.ग्रा. का माँस में इन्जेक्शन लगाया जाता है ।
इस विटामिन का रंग सफेद, बिना गन्ध वाला तथा क्रिस्टलों (कणों) वाला पाउडर के रूप में होता है । जो बच्चे (ऊपरी) डिब्बों का दूध पीते हैं, उनमें इस विटामिन की कमी हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप वे चिड़चिड़े हो जाते हैं । इसकी कमी से पुट्ठे (माँसपेशियाँ) कमजोर हो जाते हैं ।
इसकी मात्रा 30 से 100 मि.ग्रा. तक मुखमार्ग से दी जाती है । पुट्ठों के रोग में इसको खिलाया (मुख मार्ग द्वारा) जाता है और शिरा मार्ग द्वारा इन्जेक्शन लगाये जाते हैं ।
चर्म रोग जैसे चर्म की शोथ, खुजली, कील और मुँहासों को दूर करने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है । बच्चों को ऐंठन के दौरे पड़ने पर उनको 50 से 150 मि.ग्रा. तक प्रतिदिन 4-4 मात्राओं में बाँटकर देना लाभकारी है ।
नोट – आजकल विटामिन बी1, बी6 और बी12 का प्रयोग मिलाकर किया जा रहा है जो स्नायविक और माँसपशियों के लिए हितकारक है।