मर्क कौर के लक्षण तथा मुख्य-रोग
( Merc Cor uses in hindi )
(1) पेचिश (डिसेन्ट्री) में मरोड़ और मल के साथ अांव की अपेक्षा खून ज्यादा आना – पेचिश के लिये हम मर्क सौल का जिक्र कर आये हैं। पेचिश में मरोड़ सर्व-प्रधान लक्षण है। ऐंठन के साथ अगर मल में रक्त की अपेक्षा आंव अधिक होग तब मर्क सौल, और अगर मरोड़ के साथ मल में आंव की अपेक्षा रक्त अधिक हो तब मर्क कौर उपयुक्त है। विकट पेचिश में इसी का प्रयोग होता है। मल-त्याग करने पर भी बेहद मरोड़ बनी रहती है। मल में बदबू आती है, खून के साथ श्लैष्मिक-झिल्ली के टुकड़े भी पाये जाते हैं। कभी-कभी निरा खून भी आता है, परन्तु मरोड़ होना जरूरी है। इस का रोगी पर आक्रमण मर्क सौल की अपेक्षा ज्यादा तेज होता है, ज्यादा प्रबल। मल से पहले, मल करते समय, मल-त्याग के बाद मरोड़ बनी रहती है।
(2) मर्क सौल की अपेक्षा मर्क कौर ज्यादा तीव्र रोग की औषधि है – जैसा अभी कहा गया, मर्क कौर तथा मर्क सौल में मुख्य भेद रोग की उग्रता का है। मर्क कौर का आक्रमण तेज होता है, जबर्दस्त, यहाँ तक कि मल-द्वार की मरोड़ के साथ मूत्र-द्वार की भी मरोड़ होती है। मर्क सौल का आक्रमण मध्यम, मर्क कौर का आक्रमण प्रबल होता है। इस धीमेपन और प्रबलता को देखकर ही दोनों औषधियों में से किसी एक का चुनाव करना होता है।
डॉ० कैन्ट लिखते हैं कि जिन रोगों में मर्क सौल के लक्षण दीख पड़ें उनमें अगर तीव्रता नहीं है तब तो वे मर्क सौल देंगे, अगर उनमें तीव्रता है और रोग का रूप साधारण से अधिक है, उग्र रूप है, और वह मर्क सौल से ठीक नहीं हुआ तब वे मर्क कौर देंगे।
(3) मल-द्वार और मूत्र-द्वार दोनों की एक-साथ या एक-दूसरे के बाद ऐंठन – इस औषधि की तेज होने का प्रमाण यह है कि इसमें मल-द्वार और मूत्र-द्वार में या तो एक-साथ मरोड़ होती है, या पहले में शुरू होकर दूसरे में भी होने लगती है। मूत्र-द्वार की मरोड़ में इसकी कैन्थरिस, कैपसिकम तथा नक्स से तुलना की जा सकती है।
(4) सुजाक (प्रमेह) की दूसरी अवस्था में उपयोगी है – सुजाक की दूसरी अवस्था में जब मूत्र-नली में जलन और मरोड़ होने लगती है, जब उसमें से सब्ज रंग का मवाद जाने लगता है, रात में रोग बढ़ जाता है, जननेन्द्रिय की अगली खाल बन्द हो जाती या सिकुड़ जाती है, तब यह औषधि लाभ करती है।
(5) आतशक के विष के कारण आँख की जलन, सुर्खी, पानी निकलना आदि आँख के रोग तथा अन्य जख्म – आंख के अनेक रोगों के लिये यह औषधि विशेष उपयोगी है। इन रोगों का उद्भव शरीर में प्रकट या अप्रकट रूप में आतशक के विष के कारण होता है। आँख में दर्द, जलन, पानी निकलना, आंख में जख्म हो जाना आदि उपद्रव इस औषधि में मर्क सौल की अपेक्षा तेज होते हैं। मर्क कौर का जख्म किसी भी स्थान में एक ही रात में इतना बड़ा हो जाता है फैल जाता है कि उसकी आशा नहीं की जा सकती थी।
(6) अगर तीव्रता और वेग से गले की शोथ हो और तीव्रता और वेग से वह दु:खे – हम ऊपर कह चुके हैं कि इस औषधि के रोगों में तीव्रता और वेग पाया जाता है। अगर गले की शोथ हो, वह दुखने लगे, तो रोग का आक्रमण बड़े वेग से होता है, जल्दी ही सारा गला पक जाता है, गले की गिल्टियां एक दम सूज जाती हैं, बेहद प्यास लगती है। मुंह तर रहने पर भी प्यास लगना तो मर्करी का चरित्रगत लक्षण है ही।
(7) एलब्यूमिनोरिया – अगर मूत्र में एलब्यूमिन ज्यादा आने लगे तो मर्क सौल की अपेक्षा मर्क कौर अधिक उपयोगी साबित होता है। यह ऊपर कहा ही जा चुका है कि इस औषधि में मूत्राशय की ऐंठन है। मूत्राशय की मरोड़ हो, मूत्र में जलन हो, मूत्र में एलब्यूमिन हो, और साथ ही अगर रोगी गठिया रोग से पीड़ित हो, तब यह औषधि अवश्य लाभ करती है।
(8) शक्ति – 6, 30, 200 या उच्च-शक्ति