जो बुखार जाने के बाद फिर लौट आता है, उसे ‘सविराम-ज्वर’ कहते हैं । इस श्रेणी के ज्वर में-दिन में दो बार आने वाला ज्वर, जाड़ा लग कर दिन में एक ही बार आने वाला ज्वर, धीमा-ज्वर आदि सभी सम्मिलित हैं । इस ज्वर में यदि शीघ्र छुटकारा नहीं मिलता तो शोथ (सूजन), प्लीहा, यकृत-वृद्धि आदि अनेक उपसर्ग प्रकट हो सकते हैं, जो रोगी की शारीरिक-स्थिति को अधिक बिगाड़ देते हैं ।
इस श्रेणी के मलेरिया में (1) एक दिन में छोड़कर आने वाले ज्वर को ‘इकतरा’। (2) दो दिन छोड़कर आने वाले ज्वर को ‘तिजारी’। (3) तीन दिन छोड़कर आने वाले ज्वर को ‘चैथैया’ तथा (4) चौबीस घण्टे में दो बार आने वाले ज्वर को ‘द्विकालीन’ कहते हैं ।
एक दिन में दो बार आनेवाला ज्वर बहुत कठिन होता है। इसकी चिकित्सा में विशेष सावधानी बरतनी पड़ती है। कोई विषम-ज्वर नित्य एक ही निश्चित समय पर नियमित रूप से आता है और कोई बिना कोई निश्चित समय के चाहे जब आ धमकता है । जो दैनिक-ज्वर अपने निश्चित समय के एक-दो घण्टे के पहले ही आ जाता हो, उसे अधिक भय का कारण समझा जाता है, परन्तु जो निश्चित समय से एक-दो घण्टे बाद आता है, उसे अच्छा लक्षण समझते हैं । प्रात:काल ज्वर का चढ़ना-अशुभ लक्षण माना जाता है ।
‘एनोफेलिस’ (Anopheles) नामक मच्छर को मलेरिया-ज्वर के रोगाणुओं का वाहक माना जाता है। ये मच्छर पानी भरी गन्दी जगहों में जन्म लेते हैं तथा बड़े होकर सीलन तथा अँधेरी जगहों में छिपे रहते हैं और विशेषकर रात के समय मनुष्यों को काटते हैं। इनके द्वारा काटे गये मनुष्य के शरीर में जब मलेरिया के कीटाणु प्रविष्ट हो जाते हैं, तब 10-15 दिन के अन्दर ही उसे ज्वर आना शुरू हो जाता है ।
मलेरिया-ज्वर की प्राय: तीन अवस्थायें होती हैं :-
(1) शीतावस्था – यह रोग की पहली अवस्था है। इसमें रोगी को पहले जाड़ा लगता है, फिर शरीर में कंपकंपी बढ़ती है। कभी-कभी जाड़ा इतनी जोर से लगता है कि कई रजाइयों के ओढ़ लेने पर भी ठण्ड दूर नहीं होती। जाड़ा लगने के साथ ही शरीर में दर्द, माथे में टपक, प्यास तथा कभी-कभी सूखी खाँसी के लक्षण भी दिखायी देते हैं।
(2) उष्णावस्था – यह ज्वर की दूसरी अवस्था है, इसमें शरीर का तापमान 100 डिग्री से 107 डिग्री तक बढ़ जाता है । शरीर में दाह उत्पन्न हो जाने के कारण ठण्ड लगने में भी कमी आ जाती है तथा सिर में दर्द, चेहरे का लाल पड़ जाना, त्वचा में रूखापन, तीव्र प्यास तथा श्वासोच्छवास में कष्ट के लक्षण प्रकट होते हैं ।
(3) पसीने की अवस्था – रोग की इस तीसरी अवस्था में रोगी को पसीना आकर बुखार उतर जाता है। यह अवस्था कभी-कभी कई घण्टों बाद आती है। उक्त तीनों अवस्थाएं क्रमश: दिखायी देती हैं । बाद में एक चौथी अवस्था ‘ज्वर न रहने’ की भी आती है ।
यदि प्रतिदिन नियमित समय पर आने वाला ज्वर अपने निश्चित समय से एक-दो घण्टे पहले आना आरम्भ कर दे अथवा ‘सविराम-ज्वर’ निरन्तर (लगातार) ज्वर में बदल जाय तो ‘रोग कठिन होता जा रहा है ‘- यह समझना चाहिए। ज्वर का निश्चित समय से हट कर आना-अच्छा लक्षण माना जाता है ।
विषम-ज्वर की विभिन्न अवस्थाओं में उसके विभिन्न लक्षणों के आधार पर औषध का चुनाव करना चाहिए । औषध-निर्वाचन के समय रोग के कारणों पर विचार करना आवश्यक है तथा ज्वर के समय को भी ध्यान में रखना चाहिए । विषम-ज्वर अब चढ़ा हुआ हो, उस समय औषध देना वर्जित है। जब ज्वर न हो, तभी औषध का प्रयोग करना चाहिए । आगे विभिन्न प्रकार के विषम-ज्वरों की औषधियों का उल्लेख किया जा रहा हैं । इनमें जो औषध लक्षणानुसार सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत हो – वही देनी चाहिए।
मलेरिया की होम्योपैथिक दवा
चिनिनम सल्फ (क्विनीनम ) 1x, 3x वि० – महात्मा हैनीमैन ने सर्वप्रथम इसी औषध के गुणों का गहन अध्ययन करने के पश्चात् ‘होम्योपैथी’ को जन्म दिया था । यह ‘सिनकोना’ नामक वृक्ष की छाल के क्वाथ से तैयार की जाती है । इसे क्विनीन भी कहते हैं। यदि किसी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर पर क्विनीन का प्रयोग किया जाय तो उसके शरीर में ‘मलेरिया-ज्वर’ जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, अत: यह औषध मलेरिया-ज्वर को दूर करने के लिए भी उपयुक्त मानी जाती है। ऐलोपैथी में मलेरिया-ज्वर के लिए इस औषध का प्रयोग किया जाना ‘सदृश विधान’ की श्रेणी में ही आता है। यों, ऐलोपैथी, ‘विपरीत विधान चिकित्सा पद्धति है’, परन्तु ऐलोपैथी तथा आयुर्वेद में कुछ औषधियाँ ‘सदृश विधान चिकित्सा’ की भी समाविष्ट कर ली गयी हैं । ‘क्विनीन’ को उसी श्रेणी की औषधियों में से एक समझना चाहिए । जिस प्रकार ऐलोपैथी में मलेरिया-ज्वर के लिए ‘क्विनीन’ को प्रमुख औषध माना जाता है, उसी प्रकार होम्योपैथी में भी इसे मलेरिया अर्थात् विषम-ज्वर की मुख्य औषध स्वीकार किया गया है ।
चूँकि मलेरिया के लिए ऐलोपैथी में भी क्विनीन का ही प्रयोग किया जाता है, अत: होम्योपैथी में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए – ऐसा सोचना अनावश्यक है ।
‘सविराम-मलेरिया-ज्वर’ में जब ज्वर की तीनों अवस्थाएं – (1) शीत, (2) ताप तथा (3) पसीना-दृष्टिगत हों, तब ‘क्विनीन सल्फ’ का प्रयोग करना लाभकारी होता है । ऐलोपैथी तथा होम्योपैथी दोनों में ही मलेरिया के लिए क्विनीन का प्रयोग करने में ही मुख्य अन्तर यही है कि ऐलोपैथ-चिकित्सक इसकी बड़ी मात्रा में प्रयोग करते हैं, जिसके कारण रोगी को हानि भी पहुँच सकती है। ऐलोपैथी के अनुसार क्विनीन के अधिक व्यवहार से बहरापन आदि दुष्प्रभाव प्रकट होते हैं, जब कि होम्योपैथी में इसी औषध का सूक्ष्म तथा शक्तिकृत मात्रा में प्रयोग किया जाता है, जिसके कारण रोगी को कोई अन्य हानि होने की सम्भावना नहीं रहती ।
नये सविराम मलेरिया ज्वर में, जब रोगी की तीनों अवस्थाएं क्रमश: स्पष्ट दिखायी देती हों, तब विराम अवस्था (जब ज्वर न हो) में इस औषध का प्रयोग तीन-तीन घण्टे के अन्तर से करना चाहिए ।
चायना 3x, 6x, 30, 200 – मलेरिया-ज्वर में जब रोग की तीनों अवस्थाएं स्पष्ट हों तथा ज्वर का आरम्भ होते ही दिल का धड़कना तथा हिलना, सम्पूर्ण शरीर में जाड़े का अनुभव, शीत तथा उष्णावस्था में एकदम पहले अथवा बाद में प्यास लगना, नाड़ी का धीमा, तेज तथा अनियमित गति से चलना, भोजन के उपरान्त नाड़ी के वेग में कमी आ जाना, तन्द्रा, प्लीहा तथा यकृत की वृद्धि एवं उनमें दर्द होना, सिर में तीव्र वेदना, पानी जैसे अथवा गोंद की भाँति लसदार अथवा पित्त मिश्रित दस्तों का होना, कपाल की शिराओं का फूल जाना, शीतावस्था में सिर-दर्द होना, मिचली तथा प्यास का न रहना, उष्णावस्था में मुँह तथा होठों का सूख जाना एवं जलन होना, उष्णावस्था के बाद प्यास लगना, शीतावस्था के पूर्व भूख-प्यास लगना तथा उष्णावस्था के बाद कमजोर करने वाला अत्यधिक पसीना आना-ऐसे लक्षणों में इस औषध का प्रयोग हितकर है ।
स्मरणीय है कि ‘चायना’ के लक्षणों वाला बुखार रात में नहीं आता तथा ज्वर का अगला आक्रमण-पहले आक्रमण से 2-3 घण्टे पूर्व ही हो जाता है । इसका बुखार सातवें अथवा चौदहवें दिन भी आता है ।
कभी-कभी ‘चायना’ के रोगी में-शीतावस्था में प्यास तथा पसीना के लक्षण भी नहीं रहते । क्विनीन के अपव्यवहार के कारण उत्पन्न मलेरिया ज्वर में चायना लाभ नहीं करता – यह मान्यता है । ऐसी स्थिति में सम्भव है कि इसकी 200 अथवा इससे अधिक ऊँची शक्ति लाभ करती है ।
इपिकाक 3x, 6, 30 – ‘क्विनीन’ के अपव्यवहार से उत्पन्न मलेरिया-ज्वर में जब विशेष लक्षण प्रकट न हों, तब इसका प्रयोग करना चाहिए। मलेरिया से उत्पन्न पुराने ज्वर में, विशेषकर एक दिन के अन्तर से आने वाले बुखार में भी यदि मुख्य लक्षण प्रकट न हों तो ‘इपिकाक 30’ का प्रयोग करना उचित रहता है । इस औषध को देने के बाद जब अन्य लक्षण स्पष्ट हो जाय, तब इनके आधार पर नयी दवा का चुनाव करना चाहिए । डॉ० कंपकंपी देकर आने वाले ज्वर में ‘इपिकाक 30’ की केवल एक मात्रा देने के लिए कहते हैं । उनके अनुसार – ‘इपिकाक’ के प्रयोग से ज्वर या तो उतर जाता है अथवा लक्षणों को स्पष्ट कर देता है ।
ज्वर में जाड़ा लगने से पूर्व अथवा ‘शीत’ या ‘ताप’ की अवस्था में जी घबड़ाना अथवा मतली होना – इस औषध का मुख्य लक्षण है। पाकाशय की क्रिया की गड़बड़ी के कारण उत्पन्न ज्वर खान-पान के दोष के कारण उत्पन्न ज्वर, जीभ का पीला हो जाना, मिचली अथवा वमन, कुछ देर तक अत्यधिक जाड़े का अनुभव, तत्पश्चात उष्णावस्था का अधिक देर तक बने रहना, ज्वर चढ़ने से पूर्व जम्हाई, अंगड़ाई आदि के लक्षण प्रकट होना, बाह्य-गर्म प्रयोग से ठण्ड का अधिक बढ़ना, उष्णावस्था में तीव्र प्यास, परन्तु शीतावस्था में प्यास का अभाव, उष्णावस्था के बाद अत्यधिक पसीना आना, मुँह के स्वाद में तीतापन तथा हरे रंग के आँवयुक्त पतले दस्त होना – इन सब लक्षणों में यह औषध लाभकर है।
आर्सेनिक-एल्ब 3, 6, 30, 200 – विषम-ज्वर में जब शीत या ताप की अवस्था का पूर्ण विकास न हुआ हो अथवा इनमें से कोई एक अवस्था बहुत कम और बहुत अधिक हो, पसीना बिल्कुल न आता हो अथवा उष्णावस्था के बहुत देर बाद, बहुत देर तक अधिक पसीना आता हो, ‘शीत’ की अवस्था में प्यास न हो, ताप की अवस्था में थोड़ा-थोड़ा अर्थात् घूंट-घूंट पानी पीने की इच्छा हो तथा पसीने की अवस्था में अधिक प्यास लगे, रात्रि को 12-1 बजे के लगभग ज्वर बढ़ जाता हो, ज्वर के समय बेचैनी, दर्द तथा प्रलाप के लक्षण दिखायी दें तथा ज्वर के न रहने पर भी, इन उपसर्गों के साथ कमजोरी तथा सुस्ती प्रतीत हो तो – यह औषध विशेष लाभ करती है । ‘क्विनीन’ के अपव्यवहार के कारण उत्पन्न विषम-ज्वर, एक-दो या तीन दिन के अन्तर से आने वाला मलेरिया, ज्वर के प्रारम्भ में हाथ-पाँवों का ठण्डा हो जाना, कंपकंपी आरम्भ होने के पूर्व ही शारीरिक ताप का बढ़ जाना तथा जलन की भाँति दाह होने लगना, अत्यधिक प्यास का अनुभव होने पर भी थोड़ी-सा पानी पीते ही प्यास का कम हो जाना, धीमे ज्वर में यकृत तथा प्लीहा में विकार, पुराने ज्वर में सूजन, हर बार ज्वर छूटने के बाद रोगी का अत्यधिक कमजोर होते जाना, श्वास लेने में कष्ट, पानी अथवा किसी अन्य पेय पदार्थ के पीते ही मिचली अथवा वमन, प्लीहा तथा यकृत की वृद्धि एवं जीभ का साफ रहना – इन सब लक्षणों में यह औषध विशेष लाभ करती है ।
नेट्रम-म्यूर 30, 200 – ‘क्विनीन’ अथवा ‘आर्सेनिक’ के अपव्यवहार से उत्पन्न ज्वर में यह लाभकारी है । यह पुराने (Chronic) मलेरिया-ज्वर की प्रसिद्ध औषध है । यदि अधिक ‘क्विनीन’ देकर ज्वर को दबा दिया गया हो और उसके कारण कोई उपद्रव उठ खड़ा हुआ हो तो उसे दूर करने के लिए भी इस औषध का प्रयोग करना हितकर रहता है। दबे हुए ज्वर के लौट आने की सम्भावना रहती है, परन्तु इस औषध के सेवन से दबा हुआ ज्वर अव्वल तो लौटता ही नहीं है और यदि लौटता भी है तो फिर वह समूल नष्ट भी हो जाता है।
इस औषध का ज्वर दिन में 10-11 बजे के लगभग आता है । ज्वर आने के साथ ही तेज जाड़ा लगता है तथा प्यास भी बढ़ जाती है। उष्णावस्था में तथा उसके बाद बहुत तीव्र सिर-दर्द होता है एवं ज्वर के छूट जाने पर सुस्ती तथा बहुत पसीना आता है। पसीने वाली अवस्था में सिर-दर्द के अतिरिक्त अन्य सभी उपसर्गों में कमी आ जाती है। इसके ज्वर में शरीर एकदम शीर्ण हो जाता है। होठों पर ज्वर के कारण दाने से उभर आते हैं तथा प्लीहा और यकृत की वृद्धि हो जाती है।
कार्बोवेज 6, 30 – यह पुराने (Chronic) मलेरिया के लिए उत्तम औषध है। इस औषध के रोगी की नाड़ी क्षीण तथा तेज रहती है। सन्ध्या के समय ठण्ड अधिक लगती है । कभी-कभी शरीर के केवल एक भाग में ही ठण्ड प्रतीत होती हैं। शीतावस्था आरम्भ होने से पूर्व ही हाथ-पाँव ठण्डे हो जाते हैं तथा प्यास लगती है। जाड़ा लगने से पूर्व सिर में दर्द, अंगो में दर्द, ठण्डी साँस तथा चेहरे पर लाली के लक्षण प्रकट होते हैं । रोगी निरन्तर हवा करने के लिए कहता है । शीतावस्था में पहले प्यास लगती है, फिर तीव्र दाह होता है और अन्त में कमजोर कर देने वाला खट्टी गन्धयुक्त पसीना निकलता है । धूप लगने के कारण बुखार आने में भी यह लाभकारी है । ‘क्विनीन’ अथवा ‘मरकरी’ के अपव्यवहार के कारण उत्पन्न ज्वर में भी इसका प्रयोग हितकर सिद्ध होता है ।
युपेटोरियम 1, 3 – ज्वर आने से पूर्व ही मिचली आना, पीठ में ठण्ड लगकर बुखार का आरम्भ होना तथा ठण्ड लगने के पहले से ही ताप चढ़ने तक प्यास का निरन्तर बने रहना, पानी पीने के बाद वमन होना, उष्णावस्था के बाद थोड़ा पसीना आता हो तथा हड्डियों एवं हड्डी के जोड़ों में तीव्र दर्द होने के कारण रोगी छटपटाता हो, परन्तु हिलने-डुलने से दर्द में कोई कमी न आती हो तो इसका प्रयोग हितकर रहता है । मुख्यत: हड्डियों में तीव्र वेदना वाले विषम-ज्वर में यह विशेष लाभकारी है ।
सल्फर 30, 200 – इस औषध के रोगी को ठण्ड लगने से पूर्व प्यास लगती है, परन्तु बाद में प्यास नहीं रहती । ज्वर का ताप 105 डिग्री तक पहुँच जाता है तथा ऐसा प्रतीत होता है, मानो सम्पूर्ण शरीर जल रहा हो। इतना ताप दिन-रात हर समय मौजूद रहता है। रात के समय अधिक पसीना आता है तथा ज्वर हट जाने पर रोगी एकदम सुस्त होकर पड़ा रहता है । रोगी की जीभ सफेद अथवा पीली आभा लिये रहती है – इन सब लक्षणों से युक्त नये अथवा पुराने विषम-ज्वर में, विशेष कर ‘क्विनीन’ के अपव्यवहार से उत्पन्न ज्वर में यह बहुत लाभ करती है। डॉ० एच. सी. ऐलेन के मतानुसार विषम-ज्वर में ‘क्विनीन’ की जगह ‘सल्फर’ देना अधिक हितकर है। किसी प्रकार के चर्म-रोग के बैठ जाने के कारण उत्पन्न हुए ज्वर में भी यह लाभकारी है।
नक्सवोमिका 3x, 6, 30 – इस औषध का रोगी विषम ज्वर की तीनों अवस्थाओं-शीत ताप तथा पसीना में कपड़ा ओढ़े पड़ा रहता है तथा शरीर का कोई भी भाग उघड़ जाने पर ठण्ड से काँप उठता है । वह यथार्थ में चादर ओढ़ना नहीं चाहता, परन्तु ओढ़े बिना भी नहीं रह पाता। यद्यपि उसका शरीर आग की भाँति जल रहा होता है तथा चेहरा लाल बना रहता है, परन्तु कपड़ा हटाते ही वह ठिठुरने लगता है – जिसे एक ‘विचित्र लक्षण’ कहा जा सकता है। कभी-कभी भीतर जाड़ा और बाहर ताप अथवा भीतर ताप और बाहर जाड़े का अनुभव होता है। शीतावस्था में कंपकंपी आकर जाड़ा लगता है तथा पानी पीने से वह और अधिक बढ़ जाता है। बाहरी गर्मी से जाड़ा कम नहीं होता । ठण्ड लगने से पहले तथा बाद में उत्ताप की अवस्था रहती है । प्रात:काल अथवा आधी रात के समय खट्टी गन्ध वाला पसीना आता है। तीसरे प्रहर संन्ध्या समय अथवा रात्रि में बुखार आते ही हाथ-पाँव ढीले पड़ जाते हैं, ज्वर आने के पूर्व से ही बहुत जम्हाइयाँ आती हैं या शरीर टूटता है। मिचली, कब्ज, सिर में चक्कर, हाथ-पाँवों के नखों का नीला पड़ जाना आदि लक्षणों में प्रात:काल आने वाले ज्वर में अथवा जो ज्वर नित्य समय बढ़ कर आता हो, उसमें यह औषध विशेष लाभ करती है। इसे ठीक सूर्यास्त के समय सेवन करने से शीघ्र तथा उत्तम लाभ होता है ।
लाइकोपोडियम 12, 30, 200 – संध्या को 4 बजे से 8 बजे के बीच आने वाले मलेरिया अथवा अन्य किसी भी ज्वर में यह बहुत लाभकारी है। ज्वर सायं 4 बजे से आकर, 8 बजे तक बढ़ता जाय, सभी अंगो में ठण्डक प्रतीत हो, अत्यधिक कंपकंपी तथा जाड़ा लगे, यकृत प्रदेश में दर्द हो, पेट फूला रहे तथा कब्ज एवं दाह के लक्षण हों तो – यह औषध विशेष हितकर सिद्ध होती है ।
सिड्रन 1x, 2x, 2, 3 – यदि ज्वर घड़ी की सुई के अनुसार नित्य एक निश्चित समय पर ही आता हो तो – इसे देना बहुत लाभकर रहता है। पसीना बहुत थोड़ा अथवा बिल्कुल ही न होना, जाड़ा और कंपकंपी मिश्रित ज्वर, निचले स्थान अथवा पानी भरे स्थान का ज्वर तथा मस्तिष्क में रक्त संचय के कारण होने वाले ज्वर में हितकर है।
आर्निका 30, 200 – प्रात:काल आने वाले विषम-ज्वर में यह औषध लाभकारी है। ठण्ड लगना आरम्भ होने से पूर्व बहुत जम्हाई आना, अत्यन्त कमजोरी, हड्डियों के भीतर तीव्र वेदना, मस्तक तथा चेहरे का गर्म हो जाना, मुलायम बिस्तर का भी कड़ा अनुभव होना, पसीना न आना अथवा पसीने में खट्टी दुर्गन्ध होना-आदि लक्षणों में हितकर हैं ।
कैप्सिकम 6 – ठण्ड लगने से पूर्व प्यास लगना, विशेषकर-प्रात:काल ज्वर के समय पित्त की वमन, उष्णावस्था आरम्भ होने के बाद कुछ देर पश्चात ही थोड़ा पसीना आना, परन्तु पसीने की हालत में प्यास का रहना एवं हड्डियों में दर्द होना आदि लक्षणों में हितकर है ।
बैराइटा-कार्ब 6, 30 – इस औषध के रोगी को विषम-ज्वर की तीनों अवस्थाओं-शीत, ताप एवं पसीना में प्यास तनिक भी नहीं लगती । ऐसे लक्षणों में इसका प्रयोग लाभकारी रहता है ।
एण्टिम-क्रूड 6 – अत्यधिक ठण्ड लगना, यहाँ तक कि गरम कमरे में भी ठण्ड का न घटना, प्यास न लगना, नाड़ी का वेग नियमित रहना, रात के समय पाँवों के तलवों का ठंडा हो जाना, प्रातः काल सोकर उठते समय पसीना आना, निरन्तर सोते रहने की इच्छा, खट्टी वस्तुओं के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं को खाने की इच्छा न करना, पर्याय-क्रम से कब्ज तथा पतले दस्तों की शिकायत, जीभ का सादा अथवा सफेद मैल चढ़ी होना – इन लक्षणों में हितकर है ।
साइमेक्स 30 – शीतावस्था में शरीर की सन्धियों – विशेष कर घुटनों में इतनी पीड़ा होना कि वहाँ की पेशियाँ ही छोटी-सी प्रतीत हो उठें । ठण्ड लगना आरम्भ होने के साथ पहले से ही प्यास लगना, पसीना आना एवं सिर में भारीपन, ठण्ड आरम्भ होते समय हाथों की मुट्ठी बाँधे रखना, ठण्ड छूट जाने पर तीव्र प्यास लगना तथा पानी पीने के पश्चात तुरन्त ही पेशाब करना – आदि लक्षणों में लाभकारी है ।
इग्नेशिया 6, 12, 3 – विषम-ज्वर में बाहर ठण्ड तथा भीतर गर्मी अथवा भीतर ठण्ड और बाहर गर्मी का अनुभव, केवल ठण्ड लगने की अवस्था में प्यास लगना तथा गर्मी अथवा पसीने की अवस्था में प्यास का न लगना, बाहरी गर्मी से ठण्ड का कम हो जाना एवं ताप वाली अवस्था में सिर का भारी तथा चेहरे का दबा हुआ रहना – इन लक्षणों में एवं शोक-दु:ख के कारण आये हुए ज्वर में यह औषध विशेष लाभ करती है ।
एण्टिम-टार्ट 3 वि० अथवा 6 – विषम-ज्वर की शीतावस्था में प्यास की कमी, सम्पूर्ण शरीर में ठण्ड, लसदार पसीना, सम्पूर्ण शरीर में अत्यधिक दाह, ज्वर के समय तन्द्रालुता तथा जाँघों में दर्द – इन सभी लक्षणों में लाभकारी है।
पोडोफाइलम 6 – शीतावस्था आरम्भ होने से पूर्व पीठ में तीव्र-वेदना, पसीने वाली अवस्था में नींद आ जाना, श्वास में दुर्गन्ध, जीभ पर सफेदी का लेप, भूख न लगना, प्लीहा तथा यकृत प्रदेश में दर्द, प्रात:काल आने वाले ज्वर के साथ ही पतले दस्त होने की शिकायत-जिसमें कि दस्त का रंग हर बार बदलता रहे इन-लक्षणों में लाभकारी है ।
सिपिया 12,30 – ज्वरावस्था में हिलने-डुलने मात्र से ही सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग जैसे बर्फ में गढ़ गये हों – ऐसी ठण्ड का अनुभव, प्यास रहने वाला ज्वर, पुराना, विषम ज्वर तथा गर्भिणी के ज्वर में लाभकारी है ।
रस टाक्स 6, 30 – यदि ‘सविराम ज्वर’ ने बदल कर ‘एक-ज्वर’का रूप धारण कर लिया हो अथवा पानी में भीगने अथवा गीले वस्त्र पहनने के कारण ज्वर आया हो, कमर में दर्द, अतिसार, रत-मिश्रित पतले दस्त, बेचैनी, रोगी का बिस्तर पर निरन्तर करवट बदलते रहना, जिस ज्वर में ठण्ड लगने से कई घण्टे पूर्व से ही कष्टदायक एवं सुस्त बना देने वाली सूखी-खाँसी आती हो और वह तब तक बनी रहती हो, जब तक कि जाड़ा विद्यमान रहे – ऐसे ज्वर में यह औषध लाभ करती है।
ऐरानिया 6 – ठण्ड अथवा कंपकंपी का तेजी के साथ लगना तथा अधिक देर तक ठहरना, कभी-कभी 24 घण्टे तक दिन-रात ठण्ड का अनुभव होना, तापावस्था एवं पसीने की अवस्था का न होना, प्यास न लगना, पानी से भींगने अथवा नमी वाले स्थान में रहने के कारण आने वाले ज्वर तथा प्लीहा-वृद्धि की अवस्था में इस औषध के प्रयोग से पर्यात लाभ होता है ।
इलाटेरियम 3, 6 – प्रात:काल आने वाला ज्वर, ज्वर के हट जाने पर जुलपित्ती का निकल आना तथा उसे खुजलाने पर आराम का अनुभव होना – इन लक्षणों में यह औषध हितकर है ।
फॉस्फोरिक-एसिड 2x, 6 – तीव्र ज्वर तथा कंपकंपी के साथ तीव्र ताप, तदुपरान्त दुर्बलताकारक पसीना आना, शीत एवं ताप वाली अवस्था में प्यास का अनुभव, परन्तु पसीने वाली अवस्था में तीव्र-प्यास, उदासी, गहरी नींद, सिर-दर्द, प्रलाप, स्वपनदोष, बिना कष्ट का उदरामय एवं रक्तस्राव आदि लक्षणों में यह औषध लाभकारी हैं ।
डाइड्रैस्टिस Q – रोगी के शरीर में मलेरिया का विष रहने के कारण उत्पन्न धातु-विकार तथा यकृत एवं पाकाशय की गड़बड़ी के लक्षण हों तो इसका प्रयोग करना लाभकारी है ।
विरेट्रम-ऐल्ब 3x, 30 – प्रात: 6 बजे के समय ठण्ड लग कर आने वाला ज्वर, जिसमें देर तक ठण्ड लगती रहती है । शीतावस्था में प्यास के साथ सम्पूर्ण शरीर में ठण्डक, अवसन्नता एवं नाड़ी-क्षीणता के लक्षण तथा उष्णावस्था में कपाल में ठण्डा पसीना एवं पसीने की अवस्था में चेहरे का मुर्दे की भाँति बदरंग हो जाने के लक्षण, तीव्र मलेरिया-ज्वर, जिसमें जीवनी-शक्ति का तेजी से क्षय होकर अत्यधिक कमजोर भली-भाँति स्पष्ट हो वहाँ यह औषध विशेष लाभ करती है ।
इस औषध का ज्वर तीसरे प्रहर अथवा 6-7 बजे भी आता है एवं रात भर बना रहता है। जीर्ण-ज्वर में पेशाब का रंग लाल हो जाने तथा बालू के कण की तलछट पड़ने, जैसे प्रकट होते हैं। ऐसी हालत में ‘विरेट्रम-एल्ब’ के प्रयोग से लाभ होता देखा गया है ।
विरेट्रम-विरिडि Q, 1, 3x – नाड़ी भारी, कठिन तीव्र, उछलती हुई, कलेजे का जोर से धड़कना, शरीर में प्रबल ऐंठन, मस्तिष्क में रक्त-संचय, शरीर का अत्यधिक गरम होना तथा मिचली के साथ जाड़ा लगना – इन सब लक्षणों में यह औषध विशेष लाभ करती हैं ।
पल्सेटिला 6, 12, 30 – तीसरे प्रहर 1 से 4 बजे के भीतर जाड़ा लगकर ज्वर आना, सूर्यास्त के समय बिना प्यास का ज्वर, अधिक देर तक ठण्ड लगना तथा शरीर का काँपना, तापावस्था का थोड़ी देर तक टिकना, बिना पसीने का असह्य उत्ताप, विशेषकर प्रात: एवं सन्ध्या के समय । कभी-कभी ठण्ड के कुछ देर बाद ही तापावस्था का आना अथवा दोनों अवस्थाओं का एक-साथ प्रकट होना, शरीर के एक ही ओर-विशेषकर चेहरे पर पसीना आना, हाथ-पाँवों में जलन का अनुभव, पाकाशय की गड़बड़ी के कारण उत्पन्न ज्वर अथवा पैत्तिक-ज्वर, क्विनीन के अपव्यवहार के कारण उत्पन्न ज्वर, भोजनोपरांत तिन्द्रा, हर समय सम्पूर्ण शरीर में ठण्ड का अनुभव, यहाँ तक कि कमरे में भीतर भी ठण्ड लगना – इन सब लक्षणों की यह उत्कृष्ट एवं उत्तम औषध है ।
थूजा 30, 200 – इस औषध का ज्वर प्रात: 3-4 बजे के लगभग खूब ठण्ड लग कर आता है। गर्म-वायु यहाँ तक कि धूप में भी ठण्ड दूर नहीं होती । ठण्ड लगना प्राय: हृदय-प्रदेश से आरम्भ होता है और वह सम्पूर्ण शरीर को कंपा देता है। शरीर से वस्त्र उतारते ही ठण्ड लगने लगती है, शरीर खूब गरम रहता है, प्यास अधिक तथा मुँह सूखा रहता है । उत्तापावस्था में तेज प्यास, बाहर उत्ताप तथा भीतर शीत की स्थिति रहती है । सोते ही पसीना आने लगता है.और जागते हीं पसीना आना बन्द हो जाता है। शीत के बाद प्यास, फिर अत्यधिक पसीना आता है, परन्तु सिर में पसीना नहीं आता ।
प्रमेह-विष से दूषित धातु वालों तथा थोड़ी सी ठण्डी हवा लगने मात्रा से ही बीमार हो जाने वाले मनुष्यों के लिए यह औषध विशेष हितकर है।
ओपियम 6, 30 – नवीन ज्वर में नाड़ी भरी हुई तथा धीमी चाल वाली, गहरी नींद में रोगी का मुँह फाड़े रहना तथा नाक से घर-घर की आवाज निकलना, शीत, ताप तथा पसीना – इन तीनों ही अवस्थाओं में नींद आना, पसीना आने के बाद तीव्र दाह का अनुभव होना-इन लक्षणों में विशेष हितकर है । विषम-ज्वर में अधिक ठण्ड तथा कंपकंपी लगकर ज्वर आना, प्रबल शीतावस्था में नींद आना, अंगो का फड़कना तथा प्यास का न रहना, उष्णावस्था में प्यास तथा पसीने की अधिकता एवं आँखों का अधखुला रहना – इन लक्षणों में यह औषध बहुत लाभ करती है । बालक तथा वृद्धों के ज्वर में विशेष हितकर है ।
बैप्टीशिया Q, 6 – सड़े मल अथवा दुर्गन्धित कीचड़- आदि की गैस के साँस में प्रविष्ट हो जाने अथवा सड़ा-तालाबों का पानी पीने के कारण उत्पन्न होने वाला ज्वर-जिसके प्रकोप से एक दो दिन में ही रोगी अत्यधिक कमजोर होकर शय्या पर जा गिरता हो । सिर में तीव्र वेदना, अण्ट-शण्ट प्रलाप, शरीर के दो-तीन भागों में बँट जाने का अनुभव और वेदना, काले अथवा स्लेटी रंग के दस्त, पेशाब बहुत कम परिमाण में होना तथा तीव्र ताप के साथ ज्वर का 104 से 107 डिग्री तक बढ़ जाना आदि लक्षणों में हितकर है ।
कैल्के-कार्ब 6, 30 – पुराना मलेरिया-ज्वर, ज्वर के उतर जाने पर भी, जिसका कुछ अंश रह जाता हो, धीमा ज्वर, 11 बजे अथवा 2 बजे के लगभग ज्वर प्यास तथा गर्मी अथवा पसीने की अवस्था, प्यास का प्राय: अभाव-इन लक्षणों में यह औषध हितकर है। जिन रोगियों का पेट बढ़ा रहता हो अथवा जिन्हें आसानी से सर्दी लग जाती हो, उनके लिए विशेष लाभकारी है ।
एपिस मेल 3, 6, 30 – सन्ध्या के पूर्व दाँयें अंग में ठण्ड लगना, खुले स्थान की बजाय कमरे के भीतर अधिक ठण्ड का अनुभव, प्यास कम अथवा बिल्कुल ही न रहना, कभी-कभी पसीना अत्यधिक आना, पसीने की अवस्था में नींद आना, नाड़ी का पूर्ण तथा तेज चलना, सिर में भारीपन और दर्द, कभी ठण्ड और कभी गर्मी का अनुभव, जीभ पर पीलापन तथा जीभ का फूल जाना, स्वाद में तीतापन, पीठ, कोख तथा यकृत-स्थान में दर्द, खाँसी, पित्त की वमन, सूजन, शरीर की त्वचा में रूक्षता तथा सूखापन, प्रलाप, स्पर्श, ज्ञान एवं हिलने-डुलने की शक्ति का लोप हो जाना, पेशाब अल्प परिमाण में होना, अकस्मात् बड़ी जोर से चिल्ला उठना (विशेष कर बच्चों का) – इन सब लक्षणों में यह औषध लाभ करती है । इस औषध का रोगी यदि अधिक समय तक ज्वर भोग चुका होता है तो उसे प्राय: पसीना नहीं आता ।