(1) इनका काम कुचलना, पीसना, काटना इत्यादि हैं । दांतों के इन कार्यों को ‘चर्वण क्रिया’ अर्थात् चबाना (Chewing या Mastication) कहते हैं। चबाने से भोजन पिस जाता है।
(2) दांत जीभ को बोलने में सहायता पहुँचाते हैं।
(3) यह भोजन को पचाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। ये भोजन को छोटे-छोटे कणों में विभक्त कर देते हैं जिससे भोजन पर पाचक रसों की क्रिया भली प्रकार होती है।
(4) इनसे सुन्दरता में चार चाँद लग जाते हैं और इनसे आयु के अनुसार उम्र के पहिले दांत खराब होकर उखड़ जाने पर अच्छा-भला सुन्दर मुख मलीन और पोपला नजर आने लगता है, जिससे सुन्दरता नष्ट हो जाती है।
चर्वण क्रिया का भोजन पर प्रभाव (Mastication) – भोजन सर्वप्रथम मुख में जाता है। मुख में दांत भोजन को पीसते और काटते हैं। यही दांतों का प्रधान कार्य है (जिस रूप में हम ठोस भोजन को ग्रहण करते हैं यदि उसको पाचक संस्थान में उसी रूप में धकेल दिया जाये, तो उसका पचना कठिन हो जाता है। दांत आहार को चबाते हुए इतना पतला कर देते हैं कि वह आहार पाचानांगों द्वारा सरलतापूर्वक पच जाता है। दांतों द्वारा भोजन को चबाने को ‘चर्वण क्रिया’ या ‘चबाना’ कहते हैं। चर्वण क्रिया में नीचे के जबड़ों को अपनी माँसपेशियों के साथ गति करने से नीचे के दांत, ऊपर के दांतों के साथ रगड़ खाते हैं और भोजन उनके बीच में आकर पिस जाता है।
हमारे मुँह में 32 दांत होते हैं, इसलिए हमें भोजन के प्रत्येक ग्रास को कम से कम 32 बार अवश्य चबाना चाहिए । इस सम्बन्ध में विद्वानों का मत है कि-‘हमें खाने की चीजों को पीना चाहिए और पीने की चीजों को खाना चाहिए।’ अर्थात् हमें खाने की चीजों को इतना चबाना चाहिए कि चबाते-चबाते वे पानी की तरह पतली हो जायें और जब वे पानी की तरह पतली हो जायें, तब हम उसको निगल जायें । इसी प्रकार हमें पीने की वस्तुओं को खाने की चीजों के समान ही चबा-चबा कर खाना चाहिए। ऐसा करने से दांतों की रगड़ से भोजन खूब भली प्रकार पिस जायेगा और उसमें ‘लालारस’ (लार) भी अच्छी तरह मिल जायेगी। भोजन के खूब पिस जाने से और उसमें लार अच्छी तरह मिल जाने से वह जल्द ही हज्म हो जायेगा तथा पाचानांगों को अतिरिक्त श्रम (भोजन पचाने हेतु) नहीं करना पड़ेगा।
लार-ग्रन्थियाँ (salivary Glands) – मानव के मुख में 6 लार-ग्रन्थियाँ होती हैं। ये ग्रन्थियाँ तीन दाहिनी ओर तथा तीन बाँयी ओर होती हैं। यह लार-ग्रन्थियाँ लार (Saliva) बनाती है अर्थात् इन लाला-ग्रन्थियों से लालारस का स्राव होता है। लालारस (Saliva) में 99.4% जल होता है और केवल 0.6% घन पदार्थ होते हैं। घन पदार्थों में सेन्द्रिय लवण (Organic salts) 0.4% होते हैं। नलियों द्वारा लार निकल कर मुँह में आती है । लालारस जल जैसा स्वच्छ, बेरंग (Colourless), बेस्वाद (Tasteless) और प्रतिक्रिया मर क्षारीय (Alkaline in Action) होता है। इसका आक्षेपिक गुरुत्व (Specific Gravity) 1.002 से लेकर 1.006 तक होता है। यह रस कोई बेकार चीज नहीं है। यह एक रासायनिक वस्तु है-जिसमें टायलीन (Ptyalin) होता है (जो भोजन को कार्बोज तथा श्वेतसार (Starch) को शक्कर में बदल देता है। इसके अतिरिक्त म्यूसिन (Mucin) प्रोटीन (Protein) तथा पोटेशियम सल्फोसायोनायड घन पदार्थों के अन्तर्गत सेन्द्रिय लवण (Organic salts) 0.4% होते हैं और शेष 0.2% निरिन्द्रय लवण होते हैं। जिनमें-सोडियम क्लोराइड (Sodium Chloride), सोडियम कार्बोनेट (Sodium Carbonate), कैल्शियम फास्फेट (Calcium Phosphate), कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नेशियम फास्फेट (Magnacium Phosphate), और पोटाशियाम क्लोराइड होते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ जीवाणु और ऐपीथिलीयल सेल उपस्थित होते हैं। एक दिन में एक हजार से पन्द्रह सौ सी० सी० मात्रा में लाला-स्राव निकलता है । लाला-स्राव में टायलिन नामक तत्व अधिक महत्व का है। वास्तव में यही पाचन में सहायता करता है।
टायलिन को मुख में भोजन पर कार्य करने का बहुत कम समय मिलता है, अत: यह भोजन के साथ मिलकर आमाशय में चला जाता है और वहाँ पर आधा घण्टे तक कार्य करता है। यह स्टार्च पर कार्य करके उसे एमाइलो डेक्ट्रीन में बदल देता है, जो कि घुलनशील होता है। इसके पश्चात् हाइड्रोलायसिस (Hydrolysis) की क्रिया होती है, जिससे वह माल्टोस और एरिथ्रोडेक्स्ट्रीन में बदल जाता है। अब पुन: इस एरिथ्रोडेक्स्ट्रीन को टायलिन माल्टोश और एक्रोडेकस्ट्रीन में बदल देता है। लाला-स्राव आहार के स्टार्च पर केवल इतनी ही प्रक्रिया करता है जो कि उसमें स्थित टायलिन नामक तत्त्व से होती है।
लाला-रस की भोजन पर क्रियाएँ – उपर्युक्त विवेचन से आप जान गये कि दांतों द्वारा भोजन को चबाने से लाला-ग्रन्थियों से लाला-रस निकलकर भोजन में मिल जाता है और ऐसा होने से हमारा भोजन गीला और मुलायम हो जाता है। (यदि चबा हुआ भोजन लाला-रस द्वारा गीला न हो तो उसका निगलना बड़ा कठिन है।) इस प्रकार लाला-रस के निम्नलिखित कार्य हैं :-
- शुष्क भोजन को गीला करता है तथा उसे एक गोली सी बनाकर गले से नीचे अन्न-नली में धकेल देता है।
- घुलनशील पदार्थों को घोलता है।
- कठिन भोज्य पदाथों को स्निग्ध करता है।
- मुख के अन्दर स्वच्छता रखता है।
- प्रधान रूप से भोजन के स्टार्च को माल्टोश में बदलता है।
मुख से आमाशय तक का पाचन – जिस नली द्वारा भोजन मुँह से आमाशय और आँतों में होता हुआ मलद्वार (Anus) तक चला जाता है उसे ‘अन्न प्रणाली’ या ‘अन्नमार्ग’ (Alimentary Canal) कहते हैं। यह मुख में गले (Pharynx) में से एक नली के रूप में शुरू होती है जो लगभग 15 इंच लम्बी होती है। (जो आहार को आमाशय तक ले जाती है) ठीक इसके नीचे गलनली (Gullet) है । इसमें किसी प्रकार की अस्थि नहीं होती है। यह नलिका डायफ्राम के छेद से होकर नीचे आमाशय के हार्दिक द्वारा (Cardiac Orifice) से मिलती है।
अन्ननली वक्ष-उदर मध्यस्थ पेशी के छेद से होकर उदर में पहुँच जाती है और आमाशय से जा मिलती है। उदर में रहने वाले भाग की लम्बाई एक इंच से ज्यादा नहीं होती है। इसमें किसी प्रकार का पाचक रस नहीं बनता है। इस नली का काम भोजन को केवल कण्ठ से आमाशय तक पहुँचाने का है।