आंखों के रोग
विटामिन ‘ए’ शरीर में कम हो जाने पर मनुष्य को शाम को, रात को और कम प्रकाश होने पर कम दिखाई देने लगता है । यह विटामिन अधिक या कम हो जाने पर रतौन्धी नामक रोग हो जाता है, जिसमें रात को कुछ भी दिखाई नहीं देता है ।
आँख के ढेले का ऊपरी पर्दा जिसकी-नेत्र श्लेष्म कला अथवा कंजैक्टाइवा (Conjunctiva) कहते हैं, इस विटामिन की कमी से यह शुष्क हो जाता है तथा उसमें झुर्रियाँ पड़ जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप आंखों में खुजली, दर्द, जलन, शोथ हो जाती है। आँखें लाल हो जाती हैं और प्रकाश में देखने और आँखें खोलने पर रोगी को कष्ट होता है। आँख की पुतली खुश्क (शुष्क) हो जाती हैं। अन्त में दृष्टि अत्यधिक कमजोर होकर मनुष्य अन्धा हो जाता है ।
दाँत के रोग
विटामिन ‘ए’ की कमी से दाँतों का एनामेल बनने में रुकावट पैदा होती है । दाँतों पर एनामेल न होने के कारण दाँत कमजोर हो जाते हैं, दाँत में गड्ढे और दरार पड़ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप दाँत शीघ्र सड़ने और टूटने लग जाते हैं ।
श्लैष्मिक विकार
विटामिन ‘ए’ का शरीर के विभिन्न अंगों की श्लैष्मिक कला (म्यूकस मेम्बरेन) पर विशेष प्रभाव पड़ता है । शरीर में इस विटामिन की कमी हो जाने पर नाक, गले, मुँह, वायु प्रणालियों, फेफड़ों, पाचानांगों, वृक्कों, पुरुषों की जननेन्द्रियों और शरीर के समस्त अंगों की म्यूकस मेम्बरेन पर प्रभाव पड़ा करता है । इसकी कमी से यह अंग अपने अन्दर पैदा होने वाले तरल पैदा करने में असमर्थ हो जाते हैं जिसके कारण यह अंग शुष्क हो जाते हैं और उनमें खराश पैदा होने लग जाती है। ऐसी अवस्था में विटामिन ‘ए’ खिलाकर रोगी के कष्ट सुगमतापूर्वक दूर किये जा सकते हैं ।
नजला, जुकाम और फ्लू
ऐसे रोगी जिनको बार-बार सर्दी, जुकाम और फ्लू हो जाता हो और इन रोगों के कीटाणु बार-बार आक्रमण कर देते हों तो ऐसी अवस्था में रोगी को 25000 यूनिट विटामिन ‘ए’ प्रतिदिन खिलाते रहने से उनको यह रोग फिर नहीं हो पाते हैं ।
साइनस सम्बन्धी रोग
विवर (sinus) शरीर के भीतर जैसे खोखले गड्ढे जैसे – नथुने, शिराओं से रक्त ले जाने वाली वाहिनियों, माथे के अन्दर की खोखली नलिका आदि में संक्रमण को दूर करने के लिए विटामिन ‘ए’ खिलाना अत्यन्त ही लाभप्रद है । यह विटामिन इन खोखले भागों की श्लैष्मिक कला को शक्तिशाली बनाता है और उनकी कमजोरी दूर करके कीटाणुओं के संक्रमण को दूर कर देता है । ऐसे रोगियों में प्राय: ‘आँखों के रोग’ भी हो जाया करते हैं । विटामिन ‘ए’ का सभी जीवों के लिए शरीर के भीतरी अंगों की म्यूकस मेम्बरेन के ऊपरी पर्दे में होना बहुत ही आवश्यक है। यह शरीर में नई कोशिकायें पैदा करने में उत्तेजना पैदा करता है ।
संक्रामक रोग
शरीर में विटामिन ‘ए’ की कमी हो जाने से मुँह, गले, फेंफड़ों, नाक, पाचनांग और दूसरे भीतरी अंगों की श्लैष्मिक कला का ऊपरी पर्दा कमजोर हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप रोगी के शरीर में कीटाणु आसानी से पहुँचकर उसके शरीर में संक्रामक रोग (इन्फेक्शन) फैला देते हैं । संक्रामक रोगों में विटामिन ‘ए’ खिलाते रहने से शरीर में शक्ति पैदा हो जाने से शरीर संक्रमणों का मुकाबला करके उनको दूर कर देता है। लाल ज्वर (स्कारलेट फीवर) में फुन्सियाँ निकल आना इत्यादि लक्षण इसके प्रयोग से नष्ट हो जाते हैं । इस विटामिन के प्रयोग से संक्रामक रोगों के प्रभाव का मुकाबला ना करने की शक्ति पैदा हो जाती है । इसलिए विटामिन ‘ए’ को प्रति-संक्रमी (Anti Infective) विटामिन भी कहते हैं ।
बच्चों के रोग
बच्चों को छोटी आयु में विटामिन ‘ए’ उचित मात्रा में खिलाते रहने से वे रोगों से बचे रहकर जवानी में ताकतवर और हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं। इस विटामिन की कमी से बच्चों की बढ़ोतरी रुक जाती है । उनकी हड्डियाँ कमजोर और अपूर्ण रहती हैं, दाँत समय पर नहीं निकलते हैं तथा इसकी कमी के ही परिणामस्वरूप बच्चों को बार-बार न्यूमोनिया, ब्रोंकाइटिस, दस्त आना, जुकाम, नाक से बदबूदार पीप आने लगना इत्यादि शिकायतें हो जाती हैं । बच्चों को 1000 से 3000 यूनिट विटामिन ‘ए’ प्रतिदिन और शिशु को दुग्धपान कराने वाली स्त्री को विटामिन ‘ए’ की 3000 यूनिट की दिन में 3-4 बार आवश्यकता होती है ।
पाचनांगों के रोग
यह विटामिन पाचनांगों (आमाशय और अन्तड़ियों) की श्लैष्मिक कला पर प्रभाव डालकर उनकी शुष्कता को दूर करता है । उनमें खराशें होना और उचित मात्रा में तरल पैदा न होने की कमी को दूर करता है तथा उनको शक्तिशाली बनाकर पाचक रस (Gastric Juice) पैदा करके भूख अधिक लगाता और भोजन को शरीरांश बनाने में सहायता करता है । शरीर को विटामिन ‘ए’ रहित भोजन काफी समय तक मिलने और शरीर का पालन-पोषण भली प्रकार न होने पर पाचनांगों के कई रोग जैसे-अन्तड़ियों में घाव और शोथ, अन्तड़ियों का क्षय, संग्रहणी इत्यादि हो जाया करती हैं । जो रोगी कब्ज दूर करने के लिए बार-बार तरह-तरह की औषधियाँ लेते हैं, उनके शरीर और पाचनांगों में विटामिन ‘ए’ व दूसरे विटामिन नष्ट हो जाते हैं।
बहरापन (कम सुनाई देना)
शरीर में विटामिन ‘ए’ की कमी हो जाने पर दिमाग की 8 वीं नाड़ी (सुनने वाली नाड़ी) पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे पशुओं अथवा मनुष्यों को कम सुनाई देने लग जाता है अथवा वे बहरे हो जाते हैं । कान की दूसरी नाड़ी पर रोगी को Meniere’s Disease हो जाती है, जिसके फलस्वरूप उसके सिर में चक्कर आने लगते हैं ।
वृक्क-शूल और पथरियाँ
विटामिन ‘ए’ खिलाते रहने से वृक्कों (किडनी) में पथरियाँ बनने का डर नहीं रहता है तथा वृक्कों में बनी रेत और पथरियाँ टूटकर और रेत बनकर मूत्र के साथ बाहर निकल जाती हैं। (इसलिए चिकित्सक वृक्क शूल और पथरियों के रोगियों को विटामिन ‘ए’ के कैप्सूल बार-बार खिलाते हैं।) पथरी के कारण वृक्क शूल होने पर रोगी को विटामिन ‘ए’ के कैप्सूल खिलाते रहना चाहिए तथा रोगी को ऐसे भोजन-जिनसे ऑक्जेलिक एसिड अधिक बनता है जैसे चाकलेट, पालक, कालीमिर्च, अंजीर, बादाम, मूंगफली, अखरोट, चांगेरी शाक आदि बन्द कर देने या कम से कम खिलाने से पथरियाँ बननी रुक जाती हैं और बनी हुई पथरियाँ रेत बनकर मूत्र द्वारा बाहर निकल जाती हैं और गुर्दे का दर्द नहीं होने पाता ।
गिल्हड़ (Goitre)
गिल्हड़ एक भयानक रोग होता है जिसमें आँखों के ढेले उभरकर बाहर निकलते चले जाते हैं। इसके लिए विटामिन ‘ए’ बहुत ही सफल औषधि सिद्ध हुई है। इस गिल्हड़ को नेत्रोत्सेवी गलगण्ड कहते हैं । आँखों के ढेले बाहर निकलने के अतिरिक्त इस रोग में हाथों में झटके लगते हैं और कम्पन होती है। हृदय बहुत अधिकता से धड़कने लग जाता है, बेचैनी, चिन्ता इत्यादि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं । इस रोग में पहले एक सप्ताह विटामिन ‘ए’ लाख यूनिट प्रतिदिन दी जाती है तदुपरान्त कई मास तक 50 हजार यूनिट प्रतिदिन विटामिन ‘ए’ खिलाई जाती है। इस चिकित्सा से रोगी को कोई हानि नहीं होती है और रोग शीघ्रता से कम होने लग जाता है ।
नोट – दिल बहुत अधिक धड़कन की शिकायत दूर करन के लिए विटामिन ‘ए’ के साथ ही रोगी को विटामिन B1 भी दी जाती है।
जननेद्रियाँ
शरीर में विटामिन ‘ए’ कम हो जाने पर स्त्री तथा पुरुषों की जननेन्द्रियों में भारी हानि पहुँचती है। स्त्रियों के डिम्बाशय (ovaries) और पुरुषों के खसिये कमजोर होकर सिकुड़ जाते हैं। विटामिन ‘ए’ तथा विटामिन ‘ई’ की कमी से स्त्री-पुरुषों में सम्भोग करने और सन्तान उत्पन्न करने की शक्ति भी कम हो जाती है । पिट्यूट्री ग्लैण्ड जो स्त्री-पुरुषों में जननेन्द्रियों को कण्ट्रोल करती है, को विटामिन ‘ए’ तथा ई की कमी से उसको भारी क्षति पहुँचती है क्योंकि यह ग्लैण्ड विटामिन ‘ई’ से बनी हुई है। यही ग्लैण्ड स्त्री-पुरुषों में कामवासना उत्पन्न करने और वीर्य बनाने में सहायता देती है ।
चर्म रोग
खुजली, खराश, चर्म में दर्द तथा दूसरे (अन्य) साधारण चर्म रोगों में विटामिन ‘ए’ का प्रयोग करने से लाभ होता है। मनुष्य का चर्म सुन्दर, मुलायम, लचीला बनाने में और बालों को शक्तिशाली सुन्दर, मुलायम और लम्बा बनाने में भी विटामिन ‘ए’ बहुत ही लाभप्रद है । इसकी कमी से कमर, बाजुओं, टाँगों, पेट और शरीर के चर्म के ऊपर पिन के सिर जैसे उभार उत्पन्न हो जाते हैं ।
विटामिन ए का अधिक प्रयोग करके मनुष्य अपनी आयु 10 से 15 वर्ष तक बढ़ा सकता है तथा बुढ़ापे में भी युवाओं की माँत ताकतवर रहकर काम कर सकता है । उसको बुढ़ापे के रोग और कष्ट नहीं हो पाते हैं जिससे मनुष्य की धमनियों और शिराएँ लचकदार रहती हैं, हृदय फेल नहीं होता है और मनुष्य लम्बे समय तक जीवित रह कर काम कर सकता है ।
रोगों से बचे रहने के लिए शिशुओं को तथा स्त्रियों को गर्भ के समय और शिशुओं को दुग्धपान कराने के समय विटामिन ‘ए’ का 1-1 कैप्सूल अथवा विटामिन ‘ए’ युक्त भोजन खिलाते रहने से उनका शरीर कमजोर नहीं हो पाता है तथा बाद में भी उनको कोई रोग नहीं सताता है । इससे बच्चे, स्त्रियाँ, पुरुष तथा बूढ़े लोग, सभी हृष्ट, पुष्ट, ताकतवर और सुन्दर बने रहते हैं ।