विवरण – यह स्नायु-संस्थान का रोग है, जो प्राय: 10-15 वर्ष की आयु के बच्चों में अधिक पाया जाता है। इसे स्नायु-संस्थान की ऐच्छिक-पेशियों का उन्माद भी कह सकते हैं । अपना भोग-काल समाप्त होने के बाद यह रोग प्राय: स्वत: ही शान्त हो जाता है ।
क्षय अथवा कमजोर करने वाली बीमारियाँ, शारीरिक अथवा मानसिक-सुस्ती, अत्यधिक उत्तेजना, हृत्पिण्ड की गड़बड़ी, हस्त-मैथुन, रक्ताल्पता, अपुष्टिकर भोजन, गन्दी जगह पर निवास, कृमि. अनियमित-ऋतु तथा प्रथम-रजोदर्शन में विलम्ब आदि कारणों से यह रोग होता है । किसी-किसी को यह रोग वंशानुगत भी होता है।
ताण्डव रोग की चिकित्सा
इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभ करती हैं:-
ऐगारिकस 6x, 30, 200 – डॉ० वार्टलर्ट के मतानुसार यह इस रोग की सर्वश्रेष्ठ औषध है । अंगों का फड़कना, फुदकना, काँपना तथा उनमें खुजली होना आदि लक्षणों में हितकर है । जगते समय रोगी अपने अंगों को तोड़ता-मरोड़ता है, परन्तु सोते समय कम्पन समाप्त हो जाता है – यह इस औषध का मुख्य लक्षण है ।
जेल्सीमियम 3 – डॉ० ग्रेगरी के मतानुसार यह इस रोग की श्रेष्ठ औषध है । कम्पन, सिर चकराना, सुस्ती, ऊँघना आदि लक्षणों तथा किसी अशुभ समाचार के प्राप्त होने के कारण हो जाने वाले ताण्डव रोग में यह औषध बहुत लाभ करती है ।
इग्नेशिया 200 – आतंक, धमकी, भय, अशुभ समाचार अथवा मानसिक कष्ट के कारण उत्पन्न होने वाले कोरिया रोग में यह औषध हितकर है । इसका रोगी आंहे भरता रहता है ।
नक्स-वोमिका 30 – रोगी का डगमगाते हुए तथा पाँव घसीटते हुए चलना एवं कब्ज की शिकायत वाली बीमारी में यह लाभकर है ।
कास्टिकम 30 – डॉ. ज्हार के मतानुसार यह कोरिया रोग की अत्युतम औषध है । उनके कथनानुसार ‘इग्नेशिया’ से आरम्भ करके उससे लाभ न होने पर वे ‘कास्टिकम’ देते थे । यदि किसी भी औषध से लाभ न होता हो तो ‘सल्फर’ तथा ‘कैल्केरिया-कार्ब’ के प्रयोग से सभी रोगियों को लाभ हो जाता है ।
क्युप्रम 6, 30 – अँगुलियों तथा अँगूठों से आरम्भ होने वाली ऐंठन जो अन्य अंगों की ओर जाती हो, रोगी जब तक सोता रहे तब तक ठीक रहे परन्तु जगते ही ऐंठन आरम्भ हो जाय तो इस औषध का प्रयोग करना चाहिए ।
जिंकम मेटालिकम 30 – सोते समय भी टाँगें हिलती रहने के लक्षणों में यह औषध लाभ करती है ।
टैरेण्टुला-हिस्पेनिया 6, 30 – रात में ऊँघते तथा उबासियाँ लेते समय भी टाँगों को स्थिर न रख पाना तथा चलने की अपेक्षा भागना अधिक पसन्द करना-इन लक्षणों में लाभकर है ।
(1) कृमि के कारण उत्पन्न बीमारी में – स्पाइजीलिया, सैण्टोनाइन, नेट्रम फॉस, साइना, मर्क्युरियस ।
(2) भय के कारण उत्पन्न बीमारी में – स्ट्रैमोनियम, इग्नेशिया, एकोनाइट ।
(3) हस्तमैथुन के कारण रोग हो तो – प्लैटिना, कैन्थरिस, एसिड-फॉस ।
(4) वात के कारण उत्पन्न बीमारी में – स्पाइजीलिया, सिमिसिफ्यूगा।
(5) कमजोरी के कारण उत्पन्न बीमारी में – फेरम, आयोड ।
(6) रोग के यथार्थ कारण का पता न चलने पर – आर्स, हायोस, ऐगारिकस बेल, क्युप्रम-मेट, जिंकम आदि ।
टिप्पणी – उत्त सभी औषधियों को 6 क्रम में देना चाहिए ।
- रोगी के सम्मुख सहानुभूति प्रकट नहीं करनी चाहिए और न उसके रोग की चर्चा ही करनी चाहिए ।
- कभी-कभी बिजली की चिकित्सा भी इस रोग में लाभ करती है।
- शरीर तथा मन को पूर्ण आराम, स्वास्थ्यवर्द्धक–पौष्टिक भोजन, व्यायाम तथा खुली हवा में रहना – ये सब रोगी के लिए पथ्य है।
- एक ताण्डव रोग के रोगी को दूसरे इसी रोग के रोगी से अधिक मिलना – जुलना नहीं चाहिए।