इस मेडिसिन का हिन्दी नाम अडूसा है। प्रायः हर प्रकार की खांसी के रोग में वैद्य की चिकित्सा और घरेलू चिकित्सा में इसकी छाल व पत्ता बहुतेरे गृहस्थ उपयोग में लाते हैं। बासक अथवा “बासक सिरप” नामक एक प्रकार की पेटेण्ट औषधि खाँसी-रोग के लिए अब भी बहुतेरे व्यवहार कर रहे हैं। जल में कोई दोष हो जाने पर इसके पत्तों को जल में डालकर उबालने से रोग के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। अडूसा की सूखी पत्तियाँ हुक्के की चीलम में रख हुक्के पीने से साँस का खिंचाव बहुत घट जाता है। सूखी छाल का चूर्ण 10-12 ग्रेन की मात्रा में शहद के साथ सेवन करने से पुराने ब्रोंकाइटिस व श्वास-कास इत्यादि में सरलता से कफ निकल जाता है। अडूसा की छाल व पत्ता उबाल कर उसके काढ़े का सेक देने पर वात का दर्द व शोथ घटता है। रक्तहीन दशा के शोथ में इसके पत्ते का रस देशी चिकित्सागण व्यवहार करते हैं। मूल-चूर्ण मलेरिया ज्वर में उपयोग होता है। पत्ते के रस में उदरामय, रक्तातिसार और पत्तों के काढ़ा से ज्वर की अदम्य प्यास दूर होती है। एलोपैथिक में – यह कफ-निःसारक, आक्षेप दूर करने व रसायन के रूप में उपयोग होता है। होम्योपैथिक मत से इस दवा की अभी भी स्वस्थ शरीर पर परीक्षा नहीं हुई है ; किन्तु वह न होने पर भी यह हर प्रकार के श्वास-यन्त्र के रोग की उत्तम औषधि है और इसमें कोई सन्देह नहीं।
सर्दी, खाँसी, ब्रोंकाइटिस, न्यूमोनिया, थाइसिस की प्रथमावस्था में, रक्त-पित्त, ज्वर, स्वरभंग, इन्फ्लुएंजा के बाद की खांसी में, हर साल जाड़े में होने वाली खांसी इत्यादि में इससे विशेष फायदा होता है। शिशुओं की हूपिंग-खांसी में – जहाँ पर खांसते-खांसते मानो जैसे शिशु का दम ही अटक जाता है, शरीर मानो कड़ा होते जाता है, शरीर का रंग नीला पड़ जाता है, कै होती है, वहाँ इसका व्यवहार करना चाहिए। उक्त रोग में एन्टिम की तरह – छाती मानो सर्दी से भरी पड़ी है, गले में घड़-घड़ शब्द होता है, किन्तु खांसने पर मामूली सी सर्दी निकलती है, यह लक्षण रहने पर इससे अवश्य ही फायदा होगा। इसका रोगी थोड़े में ही गुस्सा हो जाता है, मिजाज अच्छा नहीं रहता।
क्रम – Q, 3x से 30 शक्ति।