आज के इस चकाचौंध भरे युग में, जबकि महंगाई चरम सीमा पर हो और बीमारियां नए-नए रूप धारण करके अनेकानेक जटिलताएं उत्पन्न कर रही हों, आम आदमी इन (बीमारियों) से छुटकारा पाने के लिए कुछ सस्ते उपाय खोजता है और मूर्ख नीम-हकीमों के चक्कर में पड़कर अपने स्वास्थ्य को और चौपट कर लेता है।
ऐसे में, विगत 200 वर्षों से भी अधिक समय से जनसमुदाय की सेवा में रत, सस्ती,सरल एवं सम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति-‘होमियोपैथी’ जटिल से जटिल रोगों से राहत दिलाने में अत्यंत सफल सिद्ध रही है।
होमियोपैथी क्यों श्रेयस्कर है ?
होमियोपैथी में व्यक्ति के मानसिक एवं शारीरिक लक्षणों के साथ-साथ उसकी प्रकृति, व्यवहार, आचार-विचार आदि पर गौर करने के बाद ही दवा दी जाती है, जिससे व्यक्ति के रोग का ही नहीं, वरन् उसमें छिपी समस्त ज्ञात एवं अज्ञात बीमारियों व लक्षणों का वास्तविक इलाज सम्भव हो पाता है। साथ ही व्यक्ति के लक्षणों की प्रकृति अर्थात् कब परेशानी बढ़ती है, कब घटती है, कैसे आराम मिलता है, शरीर के किस भाग में परेशानी रहती है,किस प्रकार का दर्द होता है, आदि बातों पर भी ध्यान दिया जाता है, जिससे व्यक्ति के इलाज में कोई कमी नहीं रहती व वह पूर्णरूपेण स्वस्थ एवं निरोगी हो जाता है। होमियोपैथिक औषधियों का कोई ‘साइडइफैक्ट्स’ अर्थात् विपरीत प्रभाव भी नहीं होता, बशर्तें औषधि बताई गई विधि के अनुसार सूक्ष्म मात्रा में व्यक्ति के लक्षणों को मिलाकर ली गई हो।
चूंकि यह चिकित्सा पद्धति ‘समः समम् समयते’ अर्थात् similia similibus Curentur (Let likes be treated by likes) अर्थात् लक्षणों की समानता के आधार पर कार्य करती है। अत: एक ही रोग होने पर भी दो भिन्न व्यक्तियों के लक्षणों के आधार पर दोनों के लिए भिन्न-भिन्न औषधियां भी दी जाती हैं। इसमें रोग से ज्यादा महत्त्व लक्षणों का है। उदाहरण के तौर पर एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में जुकाम-खांसी होने पर दो भिन्न व्यक्तियों को भी एक ही प्रकार की दवा दी जाती है, किंतु होमियोपैथी में दोनों व्यक्तियों को लक्षणों के आधार पर दवाएं दी जाएंगी, जो कि दोनों व्यक्तियों के भिन्न लक्षणों के आधार पर भिन्न भी हो सकती हैं। इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। तभी स्वयं चिकित्सा लाभप्रद रहेगी।
औषधि का चुनाव किस प्रकार करें
औषधि का चुनाव करते समय निम्न बातों का विशेष ध्यान रखें –
1. मानसिक लक्षण – जैसे भय, अकेला रहने की इच्छा, निराशा, उतेजना, जल्दबाजी, रोने की प्रवृत्ति, ईर्ष्या, चिड़चिड़ाहट, क्रोध, किसी काम की सनक, चुपचाप रहना अथवा अधिक बोलना, संगीत के प्रति रुचि अथवा अरुचि आदि।
2. लक्षणों का स्थान – जैसे सिर दर्द है, तो सिर के किस हिस्से में है या पेट दर्द है, तोन पेट की दाईं ओर है या बाईं ओर, शरीर का दायां भाग ज्यादा प्रभावित रहता है या बायां या आगे का भाग या पीछे का आदि।
3. लक्षणों का अनुभव – रोगी लक्षणों को कैसे अनुभव करता है अर्थात् यदि सिर में दर्द है, तो यह तीव्र है या हलका, सिर फटा जा रहा है अथवा जलन महसूस हो रही है या सिर में ऐसा महसूस हो रहा है, जैसे हथौड़े बज रहे हों या कीलें चुभ रही हों आदि।
4. लक्षणों की घट-बढ़ अर्थात् कोई लक्षण किस समय बढ़ता है, कब घटता है, उदाहरण के तौर पर यदि सिर दर्द ही है, तो कब प्रारम्भ होता है, किस समय अधिक होता है, किस समय घटता है, किस प्रकार बढ़ता-घटता है अर्थात् उठने, बैठने, लेटने, चलने, खाने-पीने, बोलने, खांसने, दबाने आदि पर बढ़ता है या घटता है आदि।
5. इन सबके अलावा यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी एक रोग (लक्षण) के कारण या साथ ही अन्य लक्षण भी तो प्रकट नहीं होते। जैसे यदि कब्ज है तो सिर दर्द तो नहीं रहता या कब्ज होने पर ही सिर दर्द होता है और कब्ज दूर होने पर सिर दर्द नहीं रहता आदि।
6. रोगी की प्यास कैसी है, भूख लगती है या नहीं, नींद आती है या नहीं, पाखाना ठीक होता है या नहीं आदि लक्षणों पर भी गौर करना अत्यंत आवश्यक होता है।
7. होमियोपैथिक चिकित्सा में सपनों का भी विशेष महत्त्व है जैसे डरावने सपने, जंगली जानवरों के सपने, कोई एक सपना ही लगातार दिखाई दे आदि लक्षणों पर भी गौर करना चाहिए।
8. मानसिक लक्षणों में यह भी गौर करना आवश्यक है कि व्यक्ति को भूत-प्रेत का तो डर नहीं रहता, अपने को हवा में तैरता तो महसूस नहीं करता, ऐसा तो नहीं महसूस होता कि सोते समय उसके बिस्तर पर कोई और तो नहीं सो रहा है या उसका शरीर कांच का बना है या रोगी में मरने की प्रबल इच्छा नहीं है, आत्महत्या की प्रवृत्ति तो नहीं है, प्रेम निराशा तो नहीं है या किसी दुखद सदमे का तो शिकार नहीं हुआ है आदि।
9. रोगी को अधिक ठंड या अधिक गर्मी लगती है, रोगी पतला-दुबला है या मोटा-तगड़ा है, स्त्री सुंदर है या बदसूरत है, रोगी सफाई पसंद है या गंदगी में ही रहता है, बच्चा जिद्दी है या रोता ही रहता है आदि लक्षणों का भी विशेष महत्त्व होता है। व्यक्ति के शरीर से किस प्रकार की दुर्गध आती है, उसके स्रावों से किस प्रकार की दुर्गंध आती है, व्यक्ति झगड़ालू प्रवृत्ति का तो नहीं है, पाखाने-पेशाब का रंग कैसा है, उल्टी का रंग कैसा है, प्रदर किस रंग का है आदि लक्षणों पर भी गौर करना आवश्यक होता है।
इन सबके बाद ही रोग के चारित्रिक लक्षणों का मिलान करके उपयुक्त औषधि का चुनाव करना रोगी के पूर्ण स्वस्थ होने के लिए आवश्यक है और इस प्रकार चुनी गई औषधि की विधि के अनुसार सेवन करने के बाद व्यक्ति सदैव ही निरोगी बना रहता है। यही होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति की विशेषता है और इन्हीं कारणों से यह चिकित्सा पद्धति अन्य चिकित्सा पद्धतियों से सर्वथा भिन्न एवं श्रेष्ठ ही नहीं, बल्कि ‘सर्वश्रेष्ठ’ है।
होमियोपैथिक औषधियां लेने के नियम
• जो दवाएं सुबह (प्रातः) ली जाती हैं (2-3 खुराक), वे निराहार,15-15 मिनट के अंतर पर दो-तीन खुराकें ही लें।
• सुबह उक्त प्रकार ली जाने वाली औषधि प्रायः उच्च शक्ति (200 या 1000 या अधिक) की होती है।
• अल्पकालिक रोगों अर्थात वे रोग जो बहुत पुराने नहीं होते, उनमें बहुधा निम्न शक्ति (3 × से 30) की औषधियां ली जाती हैं।
• दीर्घ स्थायी अर्थात् पुराने एवं जटिल रोगों में रोगी के मानसिक एवं व्यक्तिगत चारित्रिक लक्षणों के आधार पर मिलाकर एक औषधि उच्च शक्ति (200 या अधिक) की कुछ खुराक लेनी चाहिए। साथ ही निम्न शक्ति (3x, 6 x, 12 x या 30) की औषधि दिन में तीन बार 10-15 दिन तक लगातार लेनी चाहिए। फिर लक्षणों में हुए परिवर्तन को ध्यान में रखकर पुन: नई औषधिया पूर्व में ली गई उसी औषधि का सेवन करना चाहिए।
• ‘मूल अर्क’ की 5 से 15-20 बूंद, एक चौथाई कप पानी में मिलाकर लें।
• यदि औषधि विलयन अर्थात् ‘द्रव’ (liquid) के रूप में लें, तो एक बार में दो से चार बूंद से अधिक न लें।
• ‘गोलियों’ में लेने पर, 30 या 40 नम्बर की गोलियां, 4-5 गोलियां एक बार में लेनी चाहिए।
• बायोकेमिक औषधियों की भी 4 गोलियां एक बार में लेनी चाहिए।
• यदि किसी कारण एलोपैथिक औषधियां ले रहे हैं तो होमियो औषधि से 2 घंटे का अंतर रखना चाहिए।
• दो भिन्न औषधियों के मध्य लगभग आधे घंटे का अंतर रखना चाहिए।
• औषधि लेने से 15 मिनट पूर्व साफ पानी से मुंह साफ (कुल्ला) कर लें। औषधि लेने से 15 मिनट पूर्व एवं औषधि लेने के 15 मिनट बाद तक कुछ न खाएं पिएं।
• पान, तम्बाकू, पान-मसाला, सिगरेट-बीड़ी, शराब एवं अन्य खुशबूदार वस्तुओं से परहेज रखना सदैव हितकर होता है और औषधियां अधिक तेजी से कार्य करती हैं।
• पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए खुराक समान होती है, किंतु बच्चों में खुराक कम होती है। 3 साल तक के बच्चों की खुराक, बड़ों की खुराक की एक-चौथाई रखनी चाहिए इतने छोटे बच्चों में एक चम्मच में थोड़ा-सा पानी लेकर उसमें दवा की एक बूंद मिला लें व यदि औषधि गोलियों में हो, तो 40 नम्बर की एक गोली इसी प्रकार चम्मच में घोल लें व पिला दें।
• 12 साल तक के बच्चों को बड़ों की खुराक से आधी खुराक (अर्थात् अधिकतम दो बूंद दवा एक बार में व गोलियां हों, तो दो गोलियां (40 नम्बर की) दें।
• कभी-कभी खुजली या ‘एक्जीमा’ आदि रोगों में औषधि देने पर रोग कुछ बढ़ा-सा प्रतीत होता है। ऐसे मामलों में घबराने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ‘होमियोपैथिक दर्शन’ के अनुसार ऐसा सम्भव है और यह इस बात का भी द्योतक है कि दवा ठीक चुनी गई है, किंतु यदि 2-3 दिन में रोग में लाभ न मिले और रोग बढ़ता ही रहे, तो योग्य चिकित्सक से परामर्श ले लेना चाहिए। अत: जनसमुदाय में व्याप्त यह भ्रांति कि होमियो औषधियां रोग बढ़ाती हैं, हर रोग के संबंध में उचित नहीं है।
• औषधियों की निर्धारित मात्रा लेना ही हितकर होता है। होमियोपैथिक औषधियां सूक्ष्म मात्रा में ही कार्य करती हैं। अधिक मात्रा में दवा लेने पर दवा के अन्य लक्षण रोगी में प्रकट होने लगते हैं और रोग बढ़ सकता है। अत: सावधानी बरतें।
• औषधियां किसी विश्वसनीय दुकान से श्रेष्ठ क्वालिटी एवं श्रेष्ठ कम्पनी की ही खरीदनी चाहिए, जिससे वास्तविक लाभ मिल सके।
कुछ होमियोपैथिक दवा विक्रेता लाभ कमाने के चक्कर में नकली दवाइयां भी बेचते हैं और जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करते हैं। इसकी पहचान के लिए यदि दवा की शीशी में गोलियां गल जाएं, तो निश्चय ही दवा नहीं, पानी है, क्योंकि दवा ‘एल्कोहल’ में बनती हैं, जिसमें होमियोपैथी की मीठी गोलियां नहीं गलतीं।
होमियोपैथिक औषधियों के सेवन के साथ परहेज
ऐसी धारणा बनी हुई है कि होमियोपैथिक औषधियों के सेवन के साथ परहेज अधिक रखने पड़ते हैं। यह उचित नहीं है। कुछ दवाओं के साथ कुछ विशेष वस्तुओं का ही परहेज रखना चाहिए। जैसे-जब जुकाम आदि व्याधियों में ‘एलियम सीपा’ नामक दवा दी जाती है, तो प्याज का परहेज करवा देते हैं, क्योंकि उक्त दवा प्याज से ही बनती है। अब यदि दवा के साथ, मरीज प्याज खाता रहेगा तो उक्त कच्चा प्याज दवा की शक्ति को ‘न्यूट्रल’ अर्थात् निष्प्रभावी कर देगा और दवा का कोई प्रभाव नहीं होगा। ऐसे ही ‘एलियम सैटाइवम’ औषधि लहसुन से बनती है, जिसमें लहसुन का प्रयोग निषिद्ध होता है। इसी प्रकार ‘नक्सवोमिका’, ‘एसिड फॉस’, ‘कैमोमिला’ एवं ‘स्टेफीसेग्रिया’ औषधियों के साथ कॉफी, चाय, शराब, रम आदि का परहेज कराया जाता है, क्योंकि ये पदार्थ उक्त दवाओं का असर नष्ट कर देते हैं।
होमियोपैथिक चिकित्सा और सर्जरी
सर्जरी, चिकित्सा विज्ञान की एक अलग शाखा है। जहां ऑपरेशन की आवश्यकता होती है वहाँ सर्जरी ही की जाती है, किन्तु कुछ रोगों, जैसे – ‘पित्ताशय की पथरी’, ‘गुर्दे की पथरी’, ‘फोड़ा’, ‘ हड्डियों का नासूर’, ‘मस्से’, ‘गैंगरीन’ की प्रारम्भिक अवस्था, ‘बवासीर’, आदि में सर्जरी से बेहतर कार्य होमियोपैथिक औषधियां कर देती हैं।