हमारे शरीर की इमारत जिन सूक्ष्म ईंटों से बनी है, उन्हें ‘कोशिका’ कहते हैं। कैंसर तब होता है, जब शरीर की कुछ कोशिकाएं असामान्य अवस्था में आकर निरंकुश संख्था-वृद्धि करने लगती हैं।
अंडाशय की कोशिका ‘ओवम’ तथा पुरुष शुक्राणु ‘स्पर्म’ के संयोग से बनी कोशिका को ‘जायगोट’ कहते हैं। यह ठीक अपनी जैसी कोशिकाओं में ही बंट जाती है और फिर विभाजन, पुनर्विभाजन द्वारा दो से चार, चार से आठ, आठ से सोलह, सोलह से चौबीस कोशिकाएं और इसी प्रक्रिया द्वारा शीघ्र ही लाखों कोशिकाएं विनिर्मित हो जाती हैं। अब ये अनेक समूहों में बंटकर विशिष्ट रूप और आकार लेकर अति विशिष्ट कार्य प्रारम्भ कर देती हैं, जिससे हड्डियां, मांसपेशियां, नाड़ी तंत्र, फेफड़े, हृदय, मस्तिष्क आदि अंग-प्रत्यंग विकसित होते हैं। यदि कोशिकाओं की संख्या-वृद्धि न रुके और चलती ही रहे, तो असामान्य, अनियंत्रित कोशिका विभाजन से, असामान्य कोशिकाओं की संख्या-वृद्धि से, अनुशासनहीन, कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वहीन कोशिकाओं का विशाल जमघट बनकर विस्फोटक रूप धारण कर लेता है। इसे प्राइमरी ग्रोथ या प्राथमिक गांठ कहते हैं। वस्तुत: यही असली कैंसर है।
सेकेण्डरी ग्रोथ : विस्फोट अर्थात् बिखराव के फलस्वरूप ये ट्यूमर कोशिकाएं आस-पास के अंगों में फैलकर वहां बढ़ने लगती हैं तथा दबाव और अन्य अंगों के कार्य में व्यवधान डालती हैं। ये ट्यूमर सेल्स जब रक्त की नलिकाओं में प्रविष्ट हो जाती हैं, तो इनका बिखराव रक्त प्रवाह के साथ फेफड़ों, यकृत, हड्डियों, मस्तिष्क इत्यादि तक पहुंचता है। वहां भी इनकी कालोनियां बनने लगती हैं और मनुष्य को मृत्यु तक पहुंचा देती हैं। इन्हें दूसरे क्रम के सेकेन्डरी ट्यूमर या केवल सेकेण्डरीज की संज्ञा दी गई है। सेकेण्डरीज उत्पन्न हो जाने के बाद बचने की संभावना क्षीण हो जाती है।
कैंसर की प्रमुख होमियोपैथिक औषधियां:
• हड्डी का कैंसर –‘ओरमआयोड’, ‘फॉस्फोरस’, ‘सिम्फाइटम’ ।
• स्तन कैंसर – ‘आर्सआयोड’, ‘बेरयट आयोड’, ‘कार्बोएनीमेलिस’, ‘कासींनोसीन’, ‘कांडुरंगो’, ‘कोनियम’, ‘हाइड्रेस्टिस’, ‘फाइटोलक्का’, ‘प्लम्बम आयोड’, ‘स्कीरीनम’।
• ग्रंथियों का कैंसर – ‘होआंग नैन’।
• पेट का कैंसर – ‘आर्सेनिक’, ‘कांडुरंगो’, ‘हाइड्रेटिस्ट’, ‘ओरनीथोगेलम’ ।
• गर्भाशय का कैसर – ‘ओरम एम.एन’, ‘कार्बोएन’, ‘हाइड्रेस्टिस’, ‘कार्सीनोसीन’, ‘फ्यूलिगो’, ‘लेपिस एल्बा’, ‘कैडमियमसल्फ’, ‘बिस्मथ’, ‘एसिटिक एसिड’।
• उदर गुहा का कैंसर – ‘ओरम’, ‘सिम्फाइटम’।
• छोटी आंत वा कैंसर – ‘रुटा’।
• सीकम का कैंसर – ‘ओरनीथोगेलम’।
• ओमेण्टम (पेट की पेरिटोनियम झिल्ली के एक भाग) का कैंसर – ‘लोबेलिय एरिन’।
• पेट का कैंसर – ‘आर्सेनिक’, ‘बेलाडोना’, ‘कांडुरंगो’, ‘हाइड्रेस्टिस’, ‘कालीबाई’, ‘क्रियोजोट’, ‘ओरनीथोगेलम’।
कैंसर में दर्द से राहत दिलवाने के लिए निम्नलिखित औषधियां बहुपयोगी हैं –
‘कांडुरंगो’, ‘एपिस’, ‘आर्सेनिक’, ‘एंथ्रासिनम’, ‘एसटेरियास’, ‘कैल्केरिया एसिड’, ‘कार्सीनोसीन’, ‘कोनियम’, ‘हाइड्रेस्टिस’, ‘ओवा टोस्टा’, ‘ओपियम’, ‘मोरफिनम’ आदि।
सूजन भी कैंसर हो सकती है : अपने आरम्भिक चरणों में अण्डग्रंथिय कैंसर अण्डकोष पर एक छोटी-सी पीड़ा रहित सूजन के रूप में उभरता है। बाद में इसमें हल्की-सी कठोरता आ जाती है। साइकिल चलाने वालों को ऐसा अहसास होता है, जैसे-साइकिल कुछ ज्यादा चला लेने पर वह जगह फूल गई हो। इसके बाद इसमें पीड़ा भी होने लगती है। ऐसी कोई भी सूजन जो अण्डकोष में पैदा हो जाए और फिर उसमें पीड़ा भी होने लगे और उसके बाद ये दोनों लक्षण कई दिनों तक मौजूद रहें, तो जरूरी है कि डाक्टर से इसकी जांच करवाई जाए, लेकिन शर्म व संकोच की वजह से लोग, नहीं करवाते।
कैंसर से बचाव
यदि प्रारम्भिक अवस्था में ही पता चल जाए, तो औषधियों द्वारा भी एक निश्चित सीमा तक चिकित्सा संभव है, किन्तु रोग के फैल जाने की स्थिति में प्रभावित अण्डकोष को आपरेशन के द्वारा निकाल दिया जाता है। रोगी को बेहोश करके या लोकल एनेस्थिसिया देकर एक छोटा-सा चीरा जघनास्थि के ऊपर लाकर अण्डकोष को बाहर खींचकर काट दिया जाता है। सारी प्रक्रिया अधिकतम एक घंटे में पूरी हो जाती है।
प्रभावित अण्डकोष निकाले जाने के बाद भी इस बात की संभावना बचती है कि अंदर कुछ कैंसर कोशिकाएं बची रह गई हों। इस सम्भावना को खत्म करने के लिए होमियोपैथिक औषधियों का सेवन भी लाभप्रद रहता है।
स्वयं जांच : दर्द हो या न हो, विशेषज्ञों की सलाह है कि हर वयस्क पुंरुष को महीने में एक बार अपने अण्डकोषों की जांच निम्न तरीके से कराते रहना चाहिए –
जांच का सबसे अच्छा समय नहाने के बाद का होता है। दोनों हाथों के बीच दोनों अण्डकोषों को धीरे-धीरे घुमाइए। यदि चमड़ी पर (बाहर या भीतर की तरफ) कहीं भी कोई भी उभार या सूजन अनुभव करें, तो उसी दिन किसी विशेषज्ञ से मिलें। जरूरी नहीं है कि सूजन खतरनाक हो। यह कोई मामूली-सी चोट भी हो सकती है। कोई नस भी हो सकती है, किन्तु खतरे का संकेत भी हो सकती है।
उपचार : प्रारंभिक अवस्था में एवं आपरेशन के बाद निम्न औषधियां प्रयोग की जाती हैं ‘फ्यूलिगोलिग्नाई’, ‘आर्सेनिक’, ‘थूजा’ आदि। चिकित्सकीय देखरेख में ही औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।
चिमनियों में कार्य करने वाले व्यक्तियों में अण्डकोषों का कैंसर होना आम बात है। ऐसे रोगियों में ‘फ्यूलिगोलिग्नाई’ औषधि 6 × शक्ति में प्रयोग करना हितकर रहता है।
अधिक संतान का परिणाम कैंसर : ग्रीवा कैंसर हालांकि सारे संसार में पाया जाता है, परन्तु विभिन्न देशों में विभिन्न कारणों वश इसके होने की दर अलग-अलग है। वैसे तो कोई भी महिला ग्रीवा कैंसर से ग्रस्त हो सकती है, किन्तु कुछ महिलाओं में दूसरों की अपेक्षा इसके होने की अधिक संभावना रहती है। किसी भी महिला में ग्रीवा कैंसर की संभावना बढ़ सकती है, यदि –
1. उसने अधिक संतानें पैदा की हैं। बांझ महिलाओं को ग्रीवा कैंसर कम ही होता है।
2. वह अपनी योनि एवं बाह्य जननांगों की सफाई ठीक से नहीं करती है।
3. वह पौष्टिक भोजन नहीं करती।
4. उसका पति लिंग के ऊपर जमा होने वाले सफेद पदार्थ को रोज ठीक से साफ नहीं करता।
5. वह एक से अधिक पुरुषों के साथ संभोग करती है।
6. उसने कम उम्र में ही अर्थात् 15 वर्ष की आयु से पूर्व ही सम्भोग शुरू कर दिया था।
प्रारंभिक अवस्था में जबकि कोई लक्षण नहीं पाए जाते, ग्रीवा कैंसर का पता लगाना अति आवश्यक है। इसका पता केवल पेप परीक्षण द्वारा ही लगाया जा सकता है। यह एक बहुत ही साधारण परीक्षण है।
रोग काफी फैल जाने पर पेट, कमर एवं पैरों में दर्द चालू हो जाता है। मूत्राशय एवं मलाशय में भारीपन मालूम पड़ता है। पेशाव या मल में या तो रुकावट मालूम पड़ने लगती है या फिर बार-बार हाजत होने लगती है। पेट या पैरों पर सूजन आ जाती है।
गर्भाशय के कैंसर का जितनी जल्दी निदान एवं उपयुक्त उपचार होता है, उतनी ही अधिक इसके ठीक होने की संभावना भी रहती है। आक्रामक ग्रीवा कैंसर में शल्य चिकित्सा में पूर्ण गर्भाशय, गर्भाशय नलिकाएं डिंब, योनि का ऊपरी भाग और आस-पास की संपूर्ण लसिका ग्रंथियां निकालनी पड़ती हैं, जो कि काफी कठिन एवं घातक आपरेशन है और बहुत अनुभवी विशेषज्ञों द्वारा ही संभव है, वह भी प्रथम अवस्था में अगर इसमें कुछ भी कैंसर से प्रभावित ऊतक या लसिका ग्रंथियां छूट जाती है, तो छूटे हुए रोग को नष्ट करने के लिए आपरेशन के बाद विकिरण चिकित्सा अत्यंत आवश्यक हो जाती है, अन्यथा कुछ समय बाद फिर से कैंसर होने की संभावना रहती है।
उपचार
कैंसर की प्रारंभिक अवस्था में निम्न होमियोपैथिक औषधियां प्रयोग की जा सकती हैं –
• गर्भाशय ग्रीवा (Cervix) पर गांठ (cancer) प्रारंभ होने पर -‘कार्बोएनीमेलिस’, ‘आयोडियम’, ‘क्रियोजोट’, ‘थूजा’।
• गर्भाशय ग्रीवा के कठोर पड़ जाने पर -‘ओरममेट’, ‘ओरमम्यूर’, ‘आयोडियम’, ‘हेलोनियास’, ‘प्लेटिना’, ‘काली सायनेट’, ‘कार्बोएनीमेलिस’, ‘कोनियम’ ।
• गर्भाशय ग्रीवा का संक्रमण – ‘आर्सेनिक’, ‘बेलाडोना’, ‘मर्ककार’, ‘मरक्यूरियस’, ‘नाइट्रिक एसिड’, ‘एण्टिम क्लोर’।
• गर्भाशय ग्रीवा की लाली -‘हायड्रोकोटाइलए’, ‘मिचैला’।
• गर्भाशय ग्रीवा की सूजन -‘एनेन्थेरम’।
• पेशाब की गड़बड़ियों के साथ गर्भाशय ग्रीवा की सूजन -‘केंथेरिस’ ।
• मलोत्सर्ग करने में ऐंठन एवं गर्भाशय ग्रीवा की सूजन -‘बेलाडोना’, ‘फेरममेट’।
मुख कैंसर – तम्बाकू सेवन घातकः भारतवर्ष में पुरुषों में सभी प्रकार के कैंसरो में सबसे अधिक प्रकोप मुख कैंसर (25-30 प्रतिशत) का है, जबकि पश्चिमी व यूरोपियन देशों में मुख कैंसर के सिर्फ 2.5 से 5 प्रतिशत ही रोगी पाए जाते हैं। इसका बहुत बड़ा कारण हमारे देश में मुंह के अंदर कुछ-न-कुछ रखने व चबाने की आदतें हैं जैसे तम्बाकू, पान-मसाला, पान, सुपारी आदि। विदेशों में इस तरह की वस्तुओं का चलन बहुत कम है। मुख कैंसर महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में अधिक पाया जाता है।
मुख कैंसर का कारण
मुख कैंसर बनाने में निम्नलिखित तत्त्व सहायक पाए जाते हैं- जद,सुरती या खैनी, मैनपुरी तम्बाकू, धूम्रपान के रूप में, पान-मसाला, पान, तेज व पैने दांत, शराब, सिफिलिस रोग आदि। जो लोग इसका सेवन अधिकता में करते हैं या एक ही जगह मुंह में लंबे समय तक रखकर इसका आनन्द लेते हैं, उस जगह पर कैंसर बन जाने की संभावना बढ़ जाती है। मुंह के अंदर गाल का कैंसर इन लोगों में अधिक पाया जाता है।
दूसरा तम्बाकू, खैनी या सुरती के रूप में प्रचलित है। इसका प्रयोग निम्न वर्ग के लोगों में व ग्रामीणों में अधिक पाया गया है। इस तरह का तम्बाकू लोग चूने में मिलाकर, होंठ के नीचे दबाए रखते हैं। इसलिए इस तरह का तम्बाकू का उपयोग करने वालों में नीचे के होंठ का कैंसर अधिक पाया जाता है।
कपूरी या मैनपुरी तम्बाकू का चलन भी उत्तरी भारत में अधिक पाया जाता है। इसका सेवन करने वाले पुरुषों या महिलाओं में गाल के अंदर कैंसर बनने की संभावना अधिक रहती है।
धूम्रपान के रूप में तम्बाकू का चलन उच्च सोसायटी में सिगरेट व निम्न सोसायटी के लोगों में बीड़ी के रूप में प्रचलित है। इन में बीड़ी पीने वालों में मुंह का कैंसर अधिक पाया गया है। दक्षिण भारत में कुछ स्थानों पर बीड़ी का जला हुआ हिस्सा मुंह के अंदर रखकर पीने की आदत वहां के ग्रामीणों में पाई गई है, जिसके कारण इन लोगों में तालू का कैंसर अधिक पाया जाता है।
सुपारी व कत्था : सुपारी में एक तरह का पदार्थ ‘एरीकोलीन’ पाया जाता है, जिससे मुंह के अंदर कैंसर इसी तरह कत्थे में भी मौजूद पदार्थ मुंह की त्वचा पर हानिकारक असर रखते हैं। पहले सुपारी, कत्था व चूने का प्रयोग सिर्फ पान में किया जाता था, लेकिन अब इसका प्रचलन मसाले के रूप में अधिक बढ़ गया है।
शराब: पीने वालों में वैसे तो गले या खाने की नली का कैंसर अधिक पाया जाता है, लेकिन मुंह का कैंसर भी अधिक शराब पीने वालों में देखा गया है। शराब पीने वालों में यकृत (लिवर) कैंसर सर्वाधिक पाया जाता है।
तेज व पैने दांत : दांत में कीड़ा लगने के बाद दांत के ऊपर का हिस्सा सड़कर टूट जाता है और जड़ एक धारदार और पैनी नोक के रूप में पड़ी रहती है। यही धारदार पैने दांत व जड़ें गाल के अंदर की सतह व जीभ के किनारे पर, मुंह खोलने व बंद करने में बराबर रगड़ लगाते रहते हैं, जिससे इसमें घाव पैदा हो जाता है।
मुख कैंसर के लक्षण
• मुख के अंदर कोई भी घाव या छाला, जो कि एक महीने के इलाज के बाद भी ठीक न हो रहा हो।
• मुख के अंदर किसी भी हिस्से में मांस का अप्राकृतिक रूप से तेजी से बढ़ना।
• मुख के अंदर कोई भी चकत्ता, जो कि लाल रंग में बदल रहा हो।
• मुख का धीरे-धीरे बंद होने लगना।
• मुख के अंदर तेज पदार्थ या मिर्च-मसालों का असहनीय होना।
इन लक्षणों के अलावा मुख के अंदर कुछ अन्य बीमारियां भी पाई जाती हैं, जिनको कैंसर की प्रारंभिक अवस्था कह सकते हैं। इन बीमारियों का इलाज उचित समय पर ठीक से न करवाया जाए, तो इनमें मुख्य कैंसर बनने की सम्भावना अधिक होती है। ये बीमारियां निम्न हैं ।
ल्यूकोप्लेकिया : यह बीमारी अधिक घातक होती है। इस बीमारी में जबान व गाल के अंदर की त्वचा पर सफेद कड़ी झिल्ली हो जाती है। कैंसर में इस बीमारी के रूपांतरित होने की संभावना अधिक होती है। अत्यधिक पान-मसाला खाने की वजह से दांतों को अधिक कार्य करना पड़ता है, जिससे दांत अधिक पैने हो जाते हैं और पान-मसाले के साथ यह पैना पन गाल के अंदर की त्वचा व जीभ के किनारों को बार-बार रगड़ता है, जिससे वहां पर त्वचा सख्त होकर सफेद झिल्ली का रूप ले लेती है। इस बीमारी पर यदि ध्यान न दिया जाए, तो यह सफेद झिल्ली धीरे-धीरे लाल होने लगती है, जिसकी हम इरिथ्रोप्लेकिया कहते हैं। यही अवस्था निश्चित रूप से कैंसर की प्रथम अवस्था समझी जाती है।
सबम्यूकस फाइब्रीसिस : यह रोग अधिकतर पान-मसाले, सुपारी व पान खाने वालों में पाया जाता है। कैंसर में इस बीमारी के बदलने की 30-40 प्रतिशत संभावना रहती है। पान-मसाले के अत्यधिक बढ़ते चलन के कारण इसका प्रतिशत भी बढ़ता जा रहा है। यह बीमारी युवा एवं किशोरों में भी मिलने लगी है। इस बीमारी की प्रारंभिक अवस्था में मुख के अंदर की त्वचा व जीभ पर प्राय: छाले बन जाते हैं तथा मरीजों को मिर्च या तेज पदार्थ असहनीय हो जाते हैं। बाद में गाल के अंदर की त्वचा, जो मुलायम और लचीली होती है, धीरे-धीरे कड़ी होने लगती है। जब बीमारी का असर खाने की नली में पहुंचने लगता है, तो खाना निगलने में भी कठिनाई होने लगती है और मुख के अंदर सख्त फाइब्रस बैंड बनने लगते हैं। इसके बाद धीरे-धीरे मुख का खुलना भी कम होने लगता है। इस बीमारी की पहचान मरीज स्वयं भी कर सकता है। गाल के अंदर कड़ापन आ जाने की वजह से मरीज को अपने गाल फुलाने में कठिनाई होने लगती है। मरीज शीशे के सामने खड़ा होकर गाल के अंदर हवा भरकर इसको फुलाकर या मुंह के कम खुलने से इस बीमारी का अंदाजा कर संकता है।
कैंसर के उपचार
सर्जरी द्वारा : प्रारंभिक अवस्था के कैंसर को सर्जरी के माध्यम से निकाला जा सकता है। इससे जुबान के हिस्से, गाल के किसी भी भाग को, होंठों का या जबड़े का आपरेशन करके उसे अन्य स्थानों में फैलने से रोका जा सकता है।
विकिरण चिकित्सा द्वारा : कैंसर के इलाज की यह प्रमुख प्रचलित विधि है। कैंसर की कोशिकाओं को कोबाल्ट या रेडियन व अन्य रेडियोऐक्टिव तत्त्वों के माध्यम से निष्क्रिय किया जाता है।
कीमोथेरेपी द्वारा : जबकि कैंसर अधिक बढ़ चुका हो या शरीर के अन्य भागों में फैल चुका हो, तो कुछ दवाएं एक निश्चित सीमा तक कार्य कर सकती हैं।
कैंसर की प्रारंभिक अवस्था में इसे बढ़ने से रोकने में एवं आपरेशन के बाद पुनः कैंसर होने से रोकने में एक निश्चित सीमा तक होमियोपैथिक औषधियां कारगर रही हैं। मुख कैंसर में मुख्य रूप से निम्नलिखित होमियोपैथिक औषधियां प्रयुक्त की जा सकती है
• मुंह के अंदर घाव एवं कैंसर जैसी स्थिति होने पर – ‘अर्जेण्टमनाइट्रिकम’, ‘आर्सेनिक, ‘एसिड’, ‘नाइट्रिक एसिड’, ‘रसग्लेबरा’ ।
• ल्यूकोप्लेकिया होने पर – मुख्यतया ‘म्यूरियाटिक एसिड’ एवं ‘नाइट्रिक एसिड’।
• तालु पर घाव आदि होने पर -‘ओरम’, ‘सिनाबिस’, ‘नाइट्रिक एसिड’।
• मुंह के अन्दर संक्रमण एवं सड़ाव होने पर – ‘आर्सेनिक’, ‘कालीवलोर’, ‘क्रियोजोट’, ‘लेकेसिस’, ‘मर्ककॉर, ‘म्यूरियाटिक एसिड’।
• सिफिलिस रोग के कारण मुंह में घाव (कैंसर उत्पत्ति में सहायक) – ‘सिनाबिस , ‘मर्ककॉर’, ‘नाइट्रिक एसिड’, ‘थूजा’।
• जीभ पर गांठ (कैंसर) बनने पर – ‘आर्सेनिक’, ‘ओरम’, ‘कालीबाई’, ‘फ्यूलिगो’ ।
• सिफिलिस रोग के कारण जीभ पर घाव – ‘ओरम’, ‘सिनाबिस’, ‘कालीबाई’, ‘लेकेसिस’, ‘नाइट्रिक एसिड’, ‘मरक्यूरियस’, ‘मेजेरियम’ ।
नोट : कैंसर चिकित्सा में औषधियां प्राय:निम्न शक्ति में ही प्रयुक्त की जाती हैं। औषधि प्रयोग करने से पूर्व योग्य चिकित्सक की उचित सलाह आवश्यक है।
स्तन कैंसर के लक्षण
स्तन कैंसर की जांच स्वयं करें : कैंसर के विषय में जितनी जल्दी पता चलेगा,उसके एकदम ठीक होने की सम्भावना उतनी ही बढ़ जाएगी। आप अपने स्तनों की जांच माह में एक बार करें। यदि आप जांच नियमित रूप से करती हैं, तो आपको याद रखने में सुविधा होगी। कम उम्र की महिलाओं के लिए इसकी जांच करने का सही समय मासिक-धर्म के तुरन्त बाद है। जिन महिलाओं की रजोनिवृत्ति हो रही हो, उनके लिए महीने के प्रारम्भिक दिनों में जांच करना उचित रहता है। मासिक-धर्म के दौरान यह जांच कभी न करें, क्योंकि उस समय स्तन में छोटी-छोटी गांठे बन जाती हैं और आप उन गांठों की जांच नहीं कर रही हैं। स्तनों में कोई परिवर्तन, विशेषतया सिकुड़न, गड्ढे पड़ना या कोई द्रव पदार्थ का बाहर निकलना है, तो आप अपने चिकित्सक की फौरन सलाह लें।
अमेरिका व ब्रिटेन के वैज्ञानिकों को लगातार इस तरह के प्रमाण मिले हैं कि काफी मात्रा में फल और सब्जियां खाने वाले लोगों को कैंसर होने की संभावना कम होती है। इसकी वजह इन फलों और सब्जियों में पाया जाने वाला ‘बीटा कैरोटीन’ है। यह हमारे शरीर की कोशिकाओं को खराब होने या क्षतिग्रस्त होने से बचाता है । यह अत्यंत सक्रिय व क्षतिकारी अणुओं ‘फ्रीरेडिकल्स’ से हमारी कोशिकाओं की सुरक्षा करता है। इसलिए गाजर, पालक जैसी वस्तुएं आपके स्वास्थ को आशातीत लाभ पहुंचाती है।
चेरी सुरक्षा प्रदान करती है कैंसर से
नवीनतम शोधों के अनुसार चेरी का सेवन कैंसर से सुरक्षा प्रदान करता है। चेरी में पैराईल अल्कोहल पाया जाता है जो विभिन्न प्रकार के कैंसर जैसे फेफड़ों, त्वचा, पेट, जिगर व स्तन के कैंसर को होने से रोकता है। चेरी में कुरूसेटिन नामक पदार्थ भी पाया जाता है, जो विशेषज्ञों के अनुसार कैंसर के विरुद्ध सुरक्षा देने वाला एक शक्तिशाली पदार्थ है, कैंसर के हमले से डी.एन.ए. की रक्षा करता है और ट्यूमर को पनपने में जो एंजाइम सहायक होते हैं, उनकी पूर्ति को बंद करता है।
यही नहीं, लॉस एंजिलिस में इंस्टीट्यूट ऑफ मेल यूरोलॉजी के विशेषज्ञों द्वारा किए गए शोध में पाया गया कि कुरूसेटिन प्रोस्टेट ग्रंथि के दर्द को भी कम करता है । इस शोध में 47 व्यक्तियों को 500 मिलीग्राम कुरूसेटिन प्रोस्टेट ग्रंथि के रोगियों को दिया गया। इसके सेवन से प्रोस्टेट ग्रंथि का दर्द कम पाया गया। कुरूसेटिन के अन्य अच्छे स्रोत हैं रेड वाइन, प्याज व हरी चाय।