छिटपुट जलने की घंटनाएं अक्सर घटती रहती है, लेकिन जलना मनुष्य को अत्यधिक पीड़ा देने वाली दुर्घटना है। इससे कभी-कभी मनुष्य कुरूप, अपंग व मृत्यु का शिकार भी हो जाता है। जलने के कई कारण हो सकते हैं। आग अथवा किसी जलती हई वस्तु के सम्पर्क से – जैसे जलते हुए कपड़े, गर्म पानी, भाप, गर्म तेल, गर्म बर्तन, बम, पटाखे आदि जलने का कारण हो सकते हैं। हमारे देश में मिट्टी के तेल व रसोई गैस से भी जलने के कई उदाहरण मिलते हैं; विशेषकर महिलाओं को। बिजली भी जलने का कारण हो सकती है। आकाश की बिजली भी कभी-कभी घातक सिद्ध होती है। बिजली के उपकरणों से काम करते समय अक्सर करंट लगने के कारण व बिजली के तारों के सम्पर्क में आने से भी जलने की दुर्घटना होती है।
रासायनिक पदार्थ, विशेषकर प्रयोगशाला व फैक्ट्री में अम्ल व अन्य तेज रासायनिक पदार्थ, पिघली हुई धातु आदि भी जलने का कारण बन जाती है। एक्स किरणे व अन्य चिकित्सा भी जलने का कारण हो सकते हैं। सूर्य की गर्मी जहां मनुष्य को सुख पहुंचाती है, वहीं कभी-कभी मनुष्य के दुख का कारण भी बन जाती है अर्थात् त्वचा को जला भी देती है। इसे ‘सनबर्न’ कहते हैं।
जलने की श्रेणियां : जलने की गंभीरता को देखते हए ‘जलने’ को तीन श्रेणियों में रखा गया है। प्रथम श्रेणी में त्वचा लाल होकर सूज जाती है जिससे जलन होती है। इसमें त्वचा की ऊपरी परत नष्ट हो जाती है, परन्तु अंदर की त्वचा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जिससे नई त्वचा आसानी से आ जाती है। इसमें कभी-कभी छाले भी पड़ जाते हैं।
द्वितीय श्रेणी के जलने में तुरंत छाले पड़ जाते हैं। त्वचा की ऊपरी सतह जल जाती है। इसके घाव ठीक होने व नई त्वचा आने में समय लगता है।
तृतीय श्रेणी का जलना सबसे खतरनाक है। इसमें त्वचा बहुत गहराई तक जल जाती है। मांसपेशियों व हड्डियों तक में घाव हो जाते हैं। कभी-कभी नई त्वचा नहीं आती है। अत: त्वचा रोपित करनी पड़ती है। चूंकि इससे तंत्रिकाएं भी जल जाती हैं। इसलिए कभी-कभी दर्द का भी आभास नहीं होता। अधिक जलने की अवस्था में रक्त प्लाज्मा काफी मात्रा में नष्ट हो जाता है। अतः रक्त के गाढ़ा हो जाने से हृदय को अधिक श्रम करना पड़ता है।
वयस्क मनुष्य की ‘हथेली’ बराबर भाग के जलने पर ‘एक प्रतिशत बर्न’ कहते हैं। इसी प्रकार शरीर के जले हिस्सों का प्रतिशत निकाला जा सकता है। एक हाथ या पैर की पूरी त्वचा जलने पर नौ प्रतिशत बर्न व छाती-पेट (उदर) जलने पर अठारह प्रतिशत बर्न कहते हैं। पूरी पीठ जलने पर भी अठारह प्रतिशत बर्न होता है।
अधिक क्षेत्र में फैले प्रथम और द्वितीय श्रेणी का जलना कम क्षेत्र में फैले तृतीय श्रेणी के जलने से अधिक खतरनाक हो सकता है।
जलने का प्रभाव
जलने से शरीर की सभी क्रियाएं अव्यवस्थित हो जाती हैं। त्वचा के साथ-साथ रक्त संचार व शरीर के भीतरी अंगों पर भी प्रभाव पड़ता है और शरीर में पानी की मात्रा में कमी आ जाती है। जलने से सर्वप्रथम त्वचा के ऊतक नष्ट हो जाते हैं अथवा सूज जाते हैं। रक्त कोशिकाएं प्राय: नष्ट हो जाती हैं व रक्त से प्लाज्मा रिसने लगता है। अधिक जलने पर तांत्रिक सिरे नष्ट हो जाते हैं और त्वचा की संवेदनशील शक्ति लगभग समाप्त हो जाती है।
जलने के तुरंत बाद रोगी भय व घबराहट की अवस्था में होता है। इस अवस्था में रोगी बेचैन रहता है। उसे बहुत प्यास लगती है व ठंडक भी महसूस होती है। रक्त कणिकाओं के नष्ट हो जाने के कारण खून की कमी हो जाती है। जलने के करीब 24 घंटे बाद कई प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं जिससे संक्रमण का भय रहता है। इससे रोगी को ज्वर आता है। भूख नहीं लगती। सेप्टीसीगिया जैसे रोग हो सकते हैं व रोग प्रतिरोधकता भी कम हो जाती है। कभी-कभी गुर्दे भी काम करना बंद कर देते हैं जिससे मृत्यु भी हो सकती है। अधिक गहराई तक जलने पर (नाड़ियों व धमनियों के भी जलने पर) कई बार प्रभावित अंग सड़ जाता है और उसमें जीवाणु पनपने लगते हैं। इस गलाव को ‘गैगरीन’ कहते हैं। ऐसी स्थिति में रोगी की जान बचाने के लिए प्रभावित अंग को काटना पड़ता है, अन्यथा उक्त जहर सम्पूर्ण शरीर में फैलकर रोगी की मृत्यु का कारण बन जाता है। चिकित्सकीय भाषा में इसे ‘एमप्यूटेशन’ कहते हैं। किसी व्यक्ति अथवा बच्चे के शरीर का हाथ या पैर काटना न सिर्फ व्यक्ति के लिए, वरन् डॉक्टर के लिए भी अत्यंत कष्टप्रद घटना होती है, पर उसकी जान बचाने के लिए इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं होता।
आग से जलने पर उपचार
हलके जलने को छोड़कर सर्वप्रथम जले (दुर्घटनाग्रस्त) रोगी को तुरंत डाक्टर से उपचार कराना चाहिए। प्राथमिक चिकित्सा में सबसे अधिक आवश्यक है कि जलन को कम करना, भय को रोकना व संक्रमण से बचाना। सर्वप्रथम जले भाग से कपड़ों को काट कर हटाना चाहिए, खींचकर नहीं। हलके जलने के घाव को ठंडे पानी से धोने से आराम मिलता है। बर्फ रगड़ने से भी लाभ पहुंचता है। हर प्रकार के घाव को स्वच्छ कपड़े से ढक देना चाहिए। जलने से शरीर का पानी कम हो जाता है। इसलिए पीने के लिए पानी दिया जा सकता है। इससे घबराहट भी कम होती है। द्वितीय श्रेणी के जलने में मवाद को रोकने व प्रोटीन के एगुलेशन को बढ़ावा देने के लिए सिल्वर नाइट्रेट घोल की पट्टियों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु छोटी मोटी अनदेखी जलने की घटनाओं का उपचार आप घरेलु पद्धति से भी कर सकते हैं।
• दही – हल्के जलने पर तुरन्त इसका लेप लगाने से छाले नहीं पड़ते।
• आलू – छिले हुए आलू को काट कर जले भाग पर रगड़ने से जलन नहीं होती।
• नारियल का तेलं – जलने पर नारियल का तेल लगाने से छाले नहीं पड़ते।
• तिल का तेल और चूने का पानी – इस घोल को तीन दिन तक जले भाग पर लगाने से लाभ होता है।
• केले के पते पर मक्खन – इसे चुपड़कर जले भाग व छालों पर लगाने से लाभ होता है।
• आम की पत्तियां – इन्हें जलाकर इनकी राख को जले स्थान पर लगाया जाता है।
• आक (कैलोट्रापिस जाति) – इनकी पत्तियों को आग पर गर्म कर उनका रस निकाल कर जले भाग पर लगाने से विशेष लाभ पहुंचता है।
• जामुन की पत्तियां – इन्हें भाप पर रख कर गंर्म करके जले भाग पर रखकर साफ पट्टी बांधे। यह क्रिया तब तक प्रतिदिन करें, जब तक घाव ठीक न हो जाए।
• सफेद बबूल (एकेसिया ल्यूकोफ्लोइया) की गोंद और बरेक्स पाउडर अथवा बबूल की गोंद, हल्दी और नारियल के तेल का लेप लगाने से भी जलने में लाभ होता है।
• कुमारी, घृतकुमारी – यह सहज में ही उगने वाला घरेलू पौधा है। इसकी मोटी-मोटी पत्तियों में एक अदभुत रस होता है जिसे अधिकतर सौंदर्य प्रसाधनों में प्रयोग किया जाता है। जलने पर यह द्रव लगने से भी ठंडक पहुंचती है व घाव ठीक होने में सहायता मिलती है।
बचने के उपाय
इलाज से बचाव बेहतर है। महिलाओं को अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। सर्वप्रथम रसोई में काम करते समय सिंथेटिक कपड़े नहीं पहनने चाहिए, सूती कपड़े ठीक रहते हैं। गैस के चूल्हे, स्टोव व बिजली के उपकरणों का सही चुनाव होना चाहिए तथा इनके ऊपर मुंह करके या बिलकुल चिपक कर काम नहीं करना चाहिए। रसोई के कपड़े बहुत ढीले नहीं हों और साड़ी, दुपट्टा कमर में खुसा होना चाहिए। बिजली के उपकरणों की वायरिंग ठीक रहनी चाहिए व गीले हाथों से ऐसे उपकरण नहीं छूने चाहिए। गैस, स्टोव आदि ऊंचे स्थान पर रखे हुए हों, तो दुर्घटना होने की संभावना कम हो जाती है।
जलने का होमियोपैथिक उपचार
• जले पर लगाने के लिए ‘आर्टिकायूंरेंस’ मदर टिंचर बहुत उपयोगी है।
• ‘केंथेरिस’ मदर टिंचर घाव पर लगाने के लिए व शक्तिकृत औषधि 6 से 30 शक्ति तक नियमित सेवन करने से आशातीत लाभ मिलता है।
• यदि जलने का निशान पड़ जाए या रोगी अपनी परेशानी का विवरण कुछ इस प्रकार दे कि जब से जला हूं, ठीक नहीं हुआ, चाहे उसके घाव वगैरह भर चुके हों और जले हुए भी एक अरसा हो गया हो, तो ‘कास्टिकम’ औषधि 200 शक्ति में देना हितकर रहता है।
• गैस या स्टोव की गर्मी से परेशानी, धूप बर्दाश्त नहीं होती, सनबर्न हो जाता है, तो ‘ग्लोनाइन’ 6 से 30 शक्ति तक नियमित सेवन करने से लाभ मिलता है।
गैंगरीन
अंगों में सड़ाव पड़ने को गैगरीन कहते हैं। मधुमेह आदि रोगों के कारण, जलने के बाद, जीवाणु संक्रमण के कारण गैगरीन हो जाती है। एलोपैथिक चिकित्सा में गैंगरीन का एकमात्र उपाय प्रभावित अंग को काट देना है, किंतु होमियोपैथिक चिकित्सा में ऐसेदर्द निवारक रोगों की सफल चिकित्सा है।
‘आर्सेनिक’, ‘एंथ्रासिनम’, ‘कार्बोवेज’, ‘एचीनेशिया’, ‘यूफोर्बियम’, ‘कालीक्लोर’, ‘लैकेसिस’, ‘सल्फ्यूरिक एसिड’।
योग्य चिकित्सक की देखरेख में नियमित एवं समय से औषधि सेवन करने पर अंग-विच्छेदन से बचा जा सकता है।