बच्चों के सूखे की बीमारी (Marasmus of Children) में ऐब्रोटेनम की उपयोगिता अधिक है। इस में सबसे पहले धड़ का निचला भाग दुबला पड़ना अर्थात् सूखना आरम्भ होता है, धड़ का ऊपरी हिस्सा पीछे अर्थात् चेहरा सबसे पीछे सूखता है, एब्रोटेनम के विपरीत लाइकोपोडियम, नेट्रम-म्यूर और सोरिनम है। बच्चों के सूखने के लक्षण पर आयोडियम, नेट्रम-म्यूर, आर्ज नाइट्र, लाइको, सैनिक्यूला इत्यादि औषधियों के साथ इसकी तुलना होनी चाहिए।
आयोडियम में गिल्टियों की वृद्धि, नेट्रम-म्यूर में पहले गर्दन का ज़्यादा सूखना, आर्ज-नाइट्र में मिठाई खाने की अत्यन्त इच्छा, लाइको में पेट में गड़बड़ाहट और उसका फूलना, शाम के वक्त 4 से 8 बजे के अन्दर सब तकलीफों की वद्धि, पेशाब में लाल रेत का जाना, सैनिक्यूला में बच्चे का सिर और गर्दन में अधिक पसीने का होना, पैरों को रजाई के बाहर कर देना, टयूबक्यूंलिनम में बच्चे का खूब अच्छी तरह से खाने पीने पर भी सूखते जाना, इस तरह से औषधियों की तुलना करके लक्षणसमष्टि (Totality of symptoms) पर औषधि का प्रयोग होना चाहिए, केवल एक लक्षण पर औषधि देना बड़ी ही भूल है।
ऐब्रोटेनम बच्चा बहुत ही लडाका और बदमिजाज होता है, जो चीज सामने देखता है उसी पर गुस्से से लात मार देता है। बच्चों की अण्डवृद्धि (Hydrocele) में यह औषधि आराम करती है। बच्चों के नाक से खून के बहने को भी यह रोकती है।
गठिया वात के रोगी (Rheumatic patient) को यदि पतले दस्त आते रहें तो दर्द में कमी हो जाना और यदि कब्ज हो, तो दर्द का बढ़ जाना, इसका एक विशेष लक्षण है जैसे कि नेट्रम-सल्फ और जिंगम में होता है।
एक बीमारी के दबने से दूसरी बीमारी के खड़ा होने पर (Metastasis) ऐब्रोटेनम का अदभुत प्रभाव है। डाक्टरी ऊपरी दवा से कर्णमूल (Mumps) की सूजन दब जाने से पोता (Testes) या स्तन (Mamma) बढ़ कर सख्त हो जाय और कार्बो-वेज या पल्सेटिला से कुछ फायदा न हो, तो ऐब्रोटेनम देनी चाहिए।
पेचिश या दस्त की बीमारी आदि स्थूल दवा (Crude medicines) से अचानक रुक जाए और वात रोग (Rheumatism) हो जाए तो इस पर यह लाभदायक है। गठिया वात मालिश के तेल (Liniment) से दब जाने से दिल की सख्त तकलीफ हो जाने पर यह औषधि देनी चाहिए। यह औषधि लिडम, आरम और कैल्मिया से मिलती जुलती है। एक रोग के दबने पर दूसरे रोग का पैदा होना, कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि चिकित्सा क्षेत्र में असमान विधान तन्त्र (Dissimilar treatment) की कृपा से ऐसे बिगड़े हुए रोग अक्सर पाएंगे। एक रोग के दबने से दूसरा रोग उत्पन्न होने पर ऐलोपैथिक डाक्टर अपने भोले भाले रोगियों को समझा देते हैं कि यह एक नया रोग उत्पन्न हुआ है जिस का पहले रोग से कोई सम्बन्ध नहीं, मैंने तुम्हारे पहले रोग को ठीक कर दिया है इसे भी ठीक कर दूंगा। आजकल अधिकांश रोग बिगड़ने का कारण यही है कि वे रोग निदान (Pathology) अर्थात् रोग का फलस्वरूप (Result of disease) एक मात्र ऊपरी स्थूल लक्षण लेकर चिकित्सा करते हैं। दाँत में दर्द हुआ है या दाँत में कीड़े पड़ गए हैं तो दाँत को उखाड़ डालो। जरायु (Uterus) मे दर्द हुआ है, उसे काट डालो अथवा फेफड़े में घाव हुआ है और मलद्वार में नासूर हुआ है, फेफड़े को और क्या किया जा सकता है। मलद्वार के नासूर का आपरेशन (Operation) करा डालो। यही आजकल की उन्नत चिकित्सा प्रणाली है। शस्त्र की सहायता से बिना कष्ट दाँत का उखाड़ डालना, जरायु का आपरेशन इत्यादि देखकर लोग अचंभित हो रहे हैं और ख्याल करते हैं कि चिकित्सा जगत में क्या उन्नति हुई है। लोग अक्सर कहा करते हैं – ‘आप लोग होमियोपैथी की प्रशंसा करते हैं, किन्तु क्या आप लोगों की सर्जरी (Surgery) अर्थात् शल्य-विद्या है? ऐलोपैथिक शल्य-विद्या की सहायता से क्या नहीं कर रहा है? बहुत से मूर्ख होमियोपैथ भी दु:ख प्रकट करते हैं। ‘होमियोपैथिक चिकित्सक लोग शल्य चिकित्सा नहीं जानते।’ क्या ही मिथ्या धारण है। हम लोग वर्तमान युग को बहादुरी का युग कह सकते हैं। जान चली जाए या रहे, मगर एक बहादुरी करने ही से सब कुछ होगा, अर्थात कुछ नई बात करके दिखलानी ही होगी। बहादुरी कर सकने ही से यश है – ऐसा मुर्ख कौन है जो नहीं जानता कि कुछ ऐसी अवस्थाएं हैं जिनका प्रतिकार आपरेशन के बिना नहीं हो सकता? हड्डी टूट कर अलग हो गई है आपरेशन अवश्य करना होगा, गर्भस्थ भ्रूण का सिर जरायु के मुँह से बहुत बड़ा है, आपरेशन अवश्य करना होगा, दाँत मूलहीन हुआ है, उसे अवश्य उखाड़ डालना पड़ेगा, यह सब अवश्य करना होगा। किन्तु विचार करने का विषय यह है कि हड्डी का टूटना कोई रोग नहीं है, यह यथार्थ ही शल्य-चिकित्सा का विषय है। मनुष्य को जो तकलीफें बाहर से उत्पन्न होती हैं, जिनके कारण स्थूल चोट आदि है, उनकी चिकित्सा भी स्थूल शल्योपचारादि है। रोग का परिणाम कभी-कभी शल्य-चिकित्सा के विषयीभूत होता है। शरीर का कोई अवयव रोगाक्रान्त होकर अत्यन्त कष्टदायक हो और अन्य चिकित्सा के अयोग्य हो, तो उसका विदारण और छेदन ही श्रेयस्कर है। उत्त उदाहरण दन्तक्षत या गर्भस्थ भ्रूण के मस्तक की अत्यन्त वृद्धि जीवन शक्ति के अचिकित्सिक रोग का परिणाम मात्र है। दन्तशूल या दन्तक्षत को केवल दन्तशूल या दन्तक्षत कहकर चिकित्सा न करके रोगी की शारीरिक और मानसिक परिवर्तनसमष्टि लेकर यदि महात्मा हैनिमैन के उपदेशानुसार चिकित्सा होती या गर्भस्थ भ्रूण की प्रसवावस्था के पूर्व, माता के सब अस्वस्थ अस्वाभाविक लक्षण लेकर यदि महात्मा हैनिमैन के पदानुसरणपूर्वक रोगिणी की चिकित्सा की गई होती, तो आज दन्तमूल में क्षत नहीं होता, या गर्भस्थ भ्रूण का मस्तक अस्वाभाविक रूप से बढ़ कर माता के जीवन को संकटापन्न नहीं करता। पहले जो रोग था, अब वह अचिकित्सा के कारण बढ़ कर ऐसी अवस्था में पहुंचा है कि अब शल्योपचार के बिना दूसरा उपाय नहीं है। प्रकृति में रोग का आधार जीवन शक्ति ही है – कारण यह शक्ति रहने ही से रोग होता है वरना नहीं, अब इस जीवनशक्ति का विकृतिसूचक दन्तशूल या गर्भस्थ भ्रुण की अस्वाभाविक अंग विकृति इत्यादि समस्त अंदरूनी चिकित्सा के विषय थे, अब वह बात नहीं रही। परिणामदर्शी मनुष्य के लिए शल्य-चिकित्सा और अंदरूनी चिकित्सा का अन्तर समझने में कष्ट नहीं होता। जो होमियोपैथी का विषय है वह शल्य-चिकित्सा के विषय नहीं है। आभ्यन्तरिक चिकित्सा के विषय को हठ या अज्ञानता से शल्य-चिकित्सा का विषयीभूत करने से जो सर्वनाथ होता है, इसे साधारण लोग या स्थूलबुद्धि चिकित्सक नहीं जानते अथवा स्वीकार नहीं करते। फेफड़े में घाव हुआ है, इस अवस्था में मलद्वार के नासूर को यदि शल्योपचार का विषय मान कर के आपरेशन से उपचार किया जाएगा, तो रोगी के फेफेड़े का घाव बढ़ जायगा और उसकी मत्यु हो जायगी। यह बात लोग नहीं जानते। उत्त दन्तशूल, जरायुशूल और फेफड़े का घाव यह हाथ पैर के टूट जाने की तरह एक सामयिक दुर्घटना नही है। किन्तु बहुत दिनों से रोगी के अन्यान्य शारीरिक और मानसिक विकृत्यादि चरम सीमा तक पहुँचकर अन्त में उसने दन्तशूल आदि का रूप धारण किया है। आधुनिक चिकित्सा जगत इस प्रकार का रोग फल लेकर ही उपचार करता है। उसी को दूर करने के लिए सब कोई छुरी लेकर अत्यन्त फुर्ती दिखा रहे हैं।
परन्तु जिस प्रकार विषवक्ष के केवल फल को नष्ट करने से विषवृक्ष नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार रोग का निदान फल (Pathological change or result of disease) जिस अंग में प्रकाशित होता, उसके पुरजे-पुरजे कर डालने पर भी रोग में आराम नहीं होता। फल उसका एक अंग मात्र है, वृक्ष कहने से जड़, टहनियां, पत्ते, फूल, फल सभी समझे जाते हैं। घड़ी में तेल का अभाव होने से कांटे नहीं चलते, लटकन (Pendulum) हरकत नहीं करता, टक-टक शब्द नहीं होता इत्यादि अस्वाभाविक घटनायें होती हैं। ऐसी अवस्था में काँटे नहीं चलते कहकर काँटों को हजार घुमाते रहने पर कोई फल नहीं होता, वरन वह शिथिल और भग्न होकर हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं। अदृश्य जीवनशक्ति की अन्तस्थ विकृतिजनित रोग में बाहर का एक मात्र लक्षण लेकर चिकित्सा करने से कोई भी फल नहीं होता, वरन वह अंग हमेशा के लिए नष्ट हो जाता हैं।
उपर्युक्त घड़ी के उदाहरण में जिस प्रकार काँटे का न चला, लटकाव का न हिलना, टक-टक शब्द का न होना इत्यादि के समष्टि लेकर निपुण घड़ी साज घड़ी में तेल का अभाव हुआ है सिर्फ इस एक मात्र निर्णय पर पहुँचता है, उसी प्रकार सिर दर्द, निद्राहीनता, क्रोध, किसी से मिलने की अनिच्छा, नाक से रक्तस्राव, प्यास, कब्ज इत्यादि लक्षणों की समष्टि लेकर ही बुद्धिमान चिकित्सक रोगी की जीवनशक्ति की विकृति के विषय में समझ सकते हैं और समलक्षण के अनुसार केवल एक औषधि के साथ सादृश्य देख पाते हैं। अतएव जो बुद्धिमान चिकित्सक शारीरिक और मानसिक परिवर्तन की समष्टि लेकर किसी एक औषधि का सादृश्य या प्रतिकृति देखते हैं और पहचान लेते हैं कि वही रोग की प्रतिकृति या रोग है, वे ही इस समष्टि की सहायता से औषधि का निर्वाचन कर रोग को दूर करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकार रोग की ठीक प्रतिकृति मालूम करने के लिए या एक-मात्र औषधि निर्वाचन करने के लिए बहुत से लक्षण (व्यापक या सर्वागीन लक्षण अर्थात General symptoms; अस्वाभाविक, असाधारण, आश्चर्यजनक लक्षण समुह अर्थात Strange, Rare, or Uncommon symptoms या स्थानीय लक्षण समूह अर्थात Particular symptoms) आवश्यक होते हैं। एक मात्र लक्षण लेकर या उसे एक नाम देकर चेहरे की गम्भीरता दिखाना अपनी अज्ञानता को छिपाने के सिवाय और कुछ भी नहीं हैं। बहुतेरे कहते हैं – ‘खूब बुखार हुआ है, ऐकोनाइट दो।’ यहां पर यह एकमात्र लक्षण बुखार अर्थात शरीर की ताप की अधिकता देखते या सुनते ही गम्भीरता के साथ ऐकोनाइट दो कहने से भोले भाले लोग धोखा खा सकते हैं, किन्तु जिनको होमियोपैथी विज्ञान (Organon of medecine) का जरा भी ज्ञान है वे ही समझ सकते हैं कि तेज बुखार हुआ है, कहने से कोई भी लक्षणसमष्टि नहीं समझा जाता और उसके द्वारा ऐकोनाइट के लक्षणादि का भी हमारे चित्त में उदय नहीं होता। इसी प्रकार टान्सिल (Tonsilitis) बढ़ गया है, सुनते ही बैराइटा कार्ब दो, न्यूरैस्थीनिया (Neutrasthenia – स्नायुदौर्बल्य) हुआ है फास्फोरस दो इत्यादि सुनने में आता है। यथार्थ शिक्षार्थी लोग इस प्रकार की शिक्षा से बचते रहेंगे, यही महात्मा हैनिमैन का उद्देश्य है। रोग सूचक परिवर्तन समष्टि ही दूर करनी होगी – केवल एकमात्र लक्षण दूर करने से रोग दूर नहीं होगा यह महात्मा हैनिमैन का उपदेश भी है।
लक्षणसमष्टि दूर होने से अन्तस्थ जीवनशक्ति की विकृति भी दूर होती है और रोग भी दूर हो जाता है। केवल एक लक्षण दूर करने से रोग दूर नहीं होता। कारण उत्तरूप से सिर्फ एक लक्षण दूर करने से अक्सर रोगी की अवस्था शोचनीय हो जाने पर वह बहुत जल्द मृत्युपथ का पथिक हो जाता है। इसी को अच्छी तरह से समझाने के लिए महात्मा हैनिमैन ने निरोग हो जाने का एक निश्चित लक्षण बतलाया है कि यथार्थ आरोग्य लाभ होने से रोगी फिर पूर्व स्वास्थ्य पाता है।
जो सब चिकित्सक नष्ट स्वास्थ्य के पुनरुद्धार के साथ-साथ आरोग्य करना नहीं जानते, वे ही लोग रोग निदान या रोग का फल स्वरूप एकमात्र ऊपरी लक्षण लेकर व्यस्त और नाना प्रकार आडम्बर से अपनी अज्ञानता को छिपाने की चेष्टा करते हैं।
महात्मा हैनिमैन ने इसीलिए कहा है कि लक्षण समष्टि को छोड़कर केवल एक लक्षण को लेकर उसे दूर करने की विफल चेष्टता यथार्थ ज्ञानी चिकित्सक कभी नहीं करते। मेरे एक ऐलोपैथ मित्र मुझ से अक्सर कहा करते हैं – “ऐलोपैथ डाक्टर रोग लेकर ही व्यग्र रहते हैं और होमियोपैथ डाक्टर रोगी लेकर।’ यह बात पूर्ण सत्य है। ऐलोपैथ और होमियोपैथ में वास्तव में यही फर्क है। ऐलोपैथ एक काल्पनिक रोग अर्थात् रोग का फल लेकर उसका कारण, तत्व या उसके जीवाणु का आविष्कार और उसका विनाशोपाय निर्धारण करने में व्यग्र रहते हैं और होमियोपैथ रोगी के पास बैठकर उसके स्वास्थ्य का अस्वाभाविक सब परिवर्तन लक्ष्य करते करते उसी परिवर्तन समष्टि की सहायता से एकमात्र औषधि की प्रतिकृति निकालने की चेष्टा करते हैं इन दोनों का फल सभी जानते हैं। दु:ख का विषय यह है कि अधिकांश होमियोपैथ भी एकमात्र लक्षण देख या सुन कर अथवा रोग का नाम सुन कर औषधि का प्रयोग किया करते हैं। इन को भी ऐलोपैथ ही कहना चाहिये। होमियोपैथिक चिकित्सा में जो सूक्ष्मदर्शिता, विचार और धैर्य आवश्यक हैं, वह आज कल के होमियोपैथिक चिकित्सकों में दुष्प्राप्य हैं। इस बात को सभी स्वीकार करते है, ‘होमियोपैथिक चिकित्सा के समान दूसरी चिकित्सा प्रणाली जगत में नहीं हैं, किन्तु उपयुक्त चिकित्सक का अत्यन्त शोचनीय अभाव है।’
इतना कहने का मेरा यह अभिप्राय है कि मेरे प्रिय पाठक सावधान हो जाए और रोगी के लक्षणसमष्टि पर चिकित्सा करना सीखें, वरना सिर्फ एक लक्षण पर औषधि का प्रयोग करने से रोगी की शोचनीय अवस्था होगी जैसे गठियावात या नसों के दर्द को मालिश के तेल से दबाने से हृद्रोग, पक्षाघात इत्यादि तरह-तरह के पेचिदा रोग, कर्णमूल (Mumps) को ऊपरी दवा से दबाने से पोतों का बढ़ जाना, स्तन में दर्द और सूजन, डिम्बाशय की सूजन, बहुत दिनों की पुरानी पेचिश या दस्त को अन्यथा भाव से रोक देने से वात रोग, मलद्वार के नासूर को आपरेशन से बन्द कर देने के बाद फेफड़े की बीमारी इत्यादि हुआ करती है। होमियोपैथ के लिए रोगी ही सर्वस्व है, रोग क्या है, यह जानना असम्भव है। रोगी के शारीरिक और मानसिक लक्षणों के द्वारा हम समझ सकते हैं कि मनुष्य स्वस्थ है अथवा नहीं है और हम लोग उस रोगी का उपचार करने की चेष्टा करते हैं – ऐसा करने ही से उसके रोग लक्षण अपने आप दूर हो जाते हैं। इन लक्षणों के द्वारा ही रोगी अपनी तकलीफों को बताने में समर्थ होता है – यह रोग लक्षण ही प्रकृति की भाषा है (Symptoms are nature’s language).
मन – चिड़चिड़ा, जिद्दी, अधीर, निराश।
चेहरा – झुर्रीदार, ठंडा, पीला, आंखों के चारों ओर नीले छल्ले, नकसीर।
अमाशय – चिपचिपा स्वाद, भूख खूब लगती है, रात को बढ़ने वाला अमाशय का दर्द, वमन।
उदर – उदर के अन्दर कठोर गांठे। दस्त और कब्ज का पर्यायक्रम, बवासीर, खूनी पाखाना।
श्वास – श्वास लेने व छोड़ने में कठिनाई। अतिसार के बाद सूखी खांसी, हृद-प्रदेश में तेज दर्द।
पीठ – गर्दन कमजोर, रोगी सिर को ऊपर उठाकर नहीं रख सकता, कटि-प्रदेश में पीड़ा।
बाह्वांग – कंधों, भुजाओं, कलाइयों और टखनों में दर्द। उंगलियों और पैरों में पिन चुभने जैसा दर्द। हाथ-पैरों का दर्द।
चर्म – चेहरे पर दाने निकलते तथा दब जाते हैं। चमड़ी का बैंगनी रंग। बाल झड़ना, बिवाइयों में खुजली।
सम्बन्ध (Relations) – फोड़े में हिपर के बाद, प्लूरिसी ( फेफड़े के चारों तरफ की झिल्ली की सूजन) रोग में ऐकोनाइट और ब्रायोनिया के बाद, जब कि जिस तरफ आक्रान्त हो, उस तरफ साँस की रुकावट होने पर।
वृद्धि (Aggravation) – ठण्डी और नम हवा से व स्राव रोकने से।
ह्रास (Amelioration) – गति करने से।
मात्रा – 3 से 30 शक्ति।।