एसक्यूलस के लक्षण तथा मुख्य-रोग
( Aesculus Hippocastanum uses in hindi )
(1) मल-द्वारा-शिराओं में रक्त-संचय (बवासीर तथा गले, पेट, फेफड़े, आँख आदि की शिराओं में रक्तसंचय से उनमें फूलापन अनुभव करना )
(2) कमर-दर्द – कमर की नीचे की हड्डी (त्रिकास्थि) में दर्द जिसे चिनका पड़ जाना कहते हैं।
(3) दर्द का स्थान परिवर्तन करना।
लक्षणों में कमी
(i) बवासीर का खून निकलने से
(ii) ठंड से रोग में कमी
लक्षणों में वृद्धि
(i) प्रात:काल रोग बढ़ना
(ii) ठंडी हवा में सांस लेने से
(iii) शौच या पेशाब के बाद
(iv) हिलने-डुलने तथा घूमने से
(1) मल-द्वार की शिराओं (veins) में रक्त-संचय (बवासीर) – हमारे शरीर में दो प्रकार की रक्त-वाहिनी नाड़ियां हैं – धमनियां’ (Arteries) तथा ‘शिराएँ’ (Veins)। धमनियों में शुद्ध-रक्त बहता है, शिराओं में अशुद्ध-रक्त-नीला रक्त-बहता है, जो पहले हृदय में इकट्ठा होता है, वहां से शुद्ध होने के लिये फेफड़ों में जाकर फिर हृदय में लौटता है। फेफड़ों में से ऑक्सीजन लेकर वह शुद्ध, अर्थात् लाल रंग का होकर फिर हृदय में आ जाता है, और वहां से धमनियों द्वारा पुन: शरीर में संचार करता है। जब शरीर की मांस पेशियां ढीली पड़ जाती हैं, तब शिराओं में भी शिथिलता आ जाती है, और जहां शिराओं का समूह अधिक तौर से होता है, वहां अशुद्ध-रक्त ले जाने वाली इन शिराओं (Veins) में अशुद्ध-रक्त इकट्ठा हो जाता है। अशुद्ध-रक्त के एक स्थान पर इसी संचय को शिरा-रक्त संचय कहते हैं। ‘शिरा-रक्त-शोथ’ से बवासीर की उत्पत्ति होती है।
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बवासीर दो प्रकार की होती है – बादी बवासीर और खूनी बवासीर, यह प्राय: बादी में अधिक उपयोगी है – बवासीर में कभी खून आता है. कभी नहीं आता। एसक्यूलस प्राय: बादी बवासीर में, जिसमें खून आता, अधिक उपयोगी है, परन्तु खूनी बवासीर में भी यह लाभ पहुँचाती है। इस दवा का कार्य क्षेत्र बहुत विस्तृत नहीं है, परन्तु बवासीर तथा जहां-जहां शिराओं में रक्त-संचय की शिकायत हो, वहां-वहां इसका कार्य निस्सन्दिग्ध है। क्योंकि एसक्यूलस का प्रभाव ‘शिराओं’ (Veins) पर होता है इसलिये जहां-जहां लाल-नीले (Purple) रंग का रुधिर दिखे, बवासीर के मस्सों में, घाव में, कहीं भी, वहां-वहां यह उपयोगी औषधि है।
खून बवासीर में कोलिनसोनिया उत्कृष्ट दवा है। कोलिनसोनिया से लाभ होने के बाद जो कुछ शेष रहे, उसे एसक्यूलस ठीक कर देता है। इसी प्रकार नक्स वोमिका तथा सल्फर से जब रोग में कमी आ जाय, और बवासीर में पूरा लाभ न हो, तब एसक्यूलस बचे हुए रोग को समाप्त कर देता है।
रक्त-संचय के कारण किसी अंग में भारी-भारीपन (sense of fullness) अनुभव करना – इस औषधि का विशेष लक्षण यह है कि शिराओं के रक्त-संचय के कारण रोगी किसी भी अंग में भारी-भारीपन, फूलापन (Fullness) अनुभव करता है। बवासीर में क्योंकि गुदा की शिराओं में नीला रक्त संचित हो जाता है, इसलिये वहां पर रोगी को भारीपन अनुभव होता है, हल्कापन अनुभव नहीं होता। मल-द्वार में भारीपन अनुभव करना एसक्यूलस औषधि का विशेष लक्षण है।
मलद्वार में तिनके – से ठूंसे अनुभव होना – मलद्वारा का स्थान नीचे की ओर है, इसलिये जब वहां की शिराओं में अशुद्ध-रक्त संचित हो जाता है, ऊपर की तरफ नहीं लौटता, तब रोगी को ऐसा अनुभव होता है जैसे मल-द्वार में तिनके-से ठूंसे हुए हों। इस औषधि का केन्द्र-स्थान गुदा प्रदेश है, और जिन व्यक्तियों की रुधिर-प्रणालिकाएँ अधिक फूली रहती हैं (Plethoric individuals) उनमें इस प्रकार के अनुभव विशेष तौर पर पाये जाते हैं।
एसक्यूलस तथा नाइट्रिक एसिड की तुलना – इस औषधि में गुदा में तिनके चुभे-से अनुभव होते हैं, नाइट्रिक एसिड में ऐसा अनुभव होता है कि शौच करते समय गुदा में कहीं हड्डी का टुकड़ा चुभ रहा है। इन दोनों में भेद यह है कि एसक्यूलस में तो शौच करने के कुछ घंटें के बाद चुभन का दर्द प्रारंभ होता है, जबकि नाइट्रिक एसिड में शौच करते समय और शौच करने के कई घंटे बाद तक यह चुभन बनी रहती है। नाइट्रिक एसिड में खूनी बवासीर होती है, एसक्यूलस में नीले रंग के बाहर निकले हुए बड़े मस्मे होते हैं जिनमें चाकू से काटने जैसा दर्द होता है और इसमें रोगी न खड़ा रह सकता है, न लेट सकता है, न बैठ सकता हैं, बैठ सकता है तो केवल घुटनों के बल।
मुख, गले, पेट, फेफड़े आँख आदि की शिराओं में रक्त-संचय से उनमें फूला-फूलापन अनुभव करना – जैसे गुदा की शिराओं में रक्त-संचय से फूलापन अनुभव होता है, वैसे मुख की या गले की शिराओं में भी रक्त-संचय के कारण फूलापन अनुभव होता है। इसी प्रकार का अनुभव पेट में हृदय में, फेफड़ों में भी फूलापन प्रतीत होने पर एसक्यूलस उपयोगी औषधि है। गले को देखने से गला नीली शिराओं से भरा दिखता है। आँखों में भी शिराओं की सूजन से, उनमें रक्त-संचय से जो कष्ट उत्पन्न हो जाता है उसके लिये यह उत्तम है।
(2) कमर के नीचे की त्रिकास्थित (sacrum) में दर्द जिसे चिनका पड़ना कहते हैं – इस औषधि की मुख्य क्रिया गुदा-प्रदेश तथा पीठ के नीचे के स्थान में जिसे त्रिकास्थि (Sacrum) कहते हैं वहां पर दिखलाई देती है। त्रिकास्थि का स्थान रीढ़ की अन्तिम हड्डी (Coccyx) के ठीक ऊपर है। कमर के नीचे इस हड्डी में दर्द होना जो चलने-फिरने, हिलने-डोलने तथा झुकने से बढ़ जाय इस औषधि का विशिष्ट लक्षण है। पीठ में चिनका पड़ जाने पर यह औषधि उपयुक्त है। पीठ के दर्द के कारण रोगी सब काम-धंधे छोड़ बैठता है। कमर दर्द की एसक्यूलस उत्तम औषधि है।
कमर के नीचे के हिस्से के दर्द में एसक्यूलस तथा एगैरिकस की तुलना – कमर के नीचे के हिस्से में (In sacral region) दर्द इन दोनों औषधियों में है, परन्तु एगैरिकस में कमर-दर्द बैठी हालत में होता है, चलते-फिरते रहने से चला जाता है, एसक्यूलस में यह दर्द बैठी हुई हालत से उठने या झुकने से या चलने-फिरने से यह हरकत करने से होता है। रोगी एक तरह का लगड़ापन (Lameness) अनुभव करता है, यह अनुभव कूल्हे या टांग तक जाता है। एसक्यूलस के कमर-दर्द का वर्णन करते हुए कहा जाता हैं : Lameness in the lower back which gives out when walking.
(3) दर्द का स्थान परिवर्तन करना – एसक्यूलस औषधि में दर्द स्थान परिवर्तन करती रहती हैं, कभी इधर, कभी उधर। कभी-कभी ये दर्द स्नायु के मार्ग पर होती हैं। पल्सेटिला तथा कैली कार्ब में भी इस प्रकार की स्थान परिवर्तन करने वाली दर्द पायी जाती है। पल्सेटिला तथा एसक्यूलस दोनों ऊष्णता-प्रधान औषधियां हैं, दोनों ठंड को पसंद करती हैं, दोनों में दर्द स्थान-परितर्वन करता रहता हैं, ऊष्णता-प्रधान होने पर भी दोनों दर्द के स्थान में गर्मी को पसन्द करती हैं। इसी प्रकार सिकेल भी ऊष्णता-प्रधान रोगी हैं, ठंड को पसन्द करता है, परन्तु दर्द वाले स्थान पर गर्मी चाहता है। कैम्फर का रोगी भी दर्द की हालत में कमरा बन्द चाहता है, परन्तु दर्द हटते ही कपड़े उतार फेंकता है और कमरे के दरवाजे तथा खिड़कियां खोल देना चाहता है। रोगी का ऊष्णता-प्रधान होने के कारण ठंड चाहना ‘व्यापक’ (General) लक्षण है, और दर्द के स्थान पर गर्मी चाहना ‘एकांगी’ (Particular) लक्षण है।
एसक्यलूस में गुदा के लक्षणों की प्रधानता होती है, पल्सेटिला में पेट के लक्षणों की प्रधानती होती है, पल्सेटिला की स्त्री मोटी होती है, सिकेल की स्त्री पतली-दुबली, झुर्रियों वाली होती है। सिकेल का रोगी ठंड चाहता है, कैम्फर का रोगी भी ठंड चाहता है, परन्तु भेद यह है कि कैम्फर का रोगी जब कपड़े उतार फेकता है तब उसे फिर ठंड लगने लगती है, जब कपड़े से अपने को ढक लेता है तब एकदम गर्मी का दौर होने लगता है।
एसक्यूलस औषधि के अन्य लक्षण
(i) ठंडी हवा में सांस लेते समय हवा का नाक में लगना (जुकाम) – ऐसे जुकाम में जो आर्सेनिक के लक्षणों जैसा हो, जिसमें पतला पनीला, जलन वाला जुकाम हो और ठंडी हवा में सांस लेने से जो नाक में लगता हो (Sensitive to inhaled cold air) – ऐसे जुकाम को यह ठीक करती है।
(ii) प्रदर में जब कमर कमजोर अनुभव हो और चलने में टांगें थकी-थकी महसूस हों, थोड़ी दूर भी चलना भारी प्रतीत हो, ऐसे प्रदर को यह ठीक करती है।
शक्ति तथा प्रकृति – 3, 6, 30 (औषधि ‘गर्म’-Hot-है)