इस ज्वर को मन्थर ज्वर, आन्त्रिक ज्वर, आन्त्र ज्वर, मोतीझरा का ज्वर और मियादी बुखार आदि नामों से भी जाना जाता है। यह निरन्तर रहने वाला छूत का (संक्रामक) ज्वर है, जो इन्फेक्शन (संक्रमण) लगने के 5 से 14 दिन के बाद कम्पन के साथ प्रकट होता है। ग्रीष्म ऋतु तथा पतझड़ ऋतु में यह ज्वर अधिक होता है । विशेषकर 20 से 24 वर्ष की आयु के व्यक्ति इस ज्वर से अधिक ग्रसित हुआ करते हैं। गर्भवती स्त्रियों और दुग्धपान करने वाले शिशुओं को यह ज्वर बहुत कम होता है, परन्तु बड़े बच्चों को यह ज्वर अधिकता से हुआ करता है वृद्धावस्था में भी यह ज्वर कम होता है। एक बार यह ज्वर हो जाने पर शरीर में इसके विरुद्ध प्रतिरक्षा शक्ति (इम्युनिटी) उत्पन्न हो जाया करती है, इसलिए यह ज्वर प्राय: दोबारा नहीं हुआ करता है। कभी-कभी टायफाइड और मलेरिया ज्वर इकट्ठे भी हो जाया करते हैं। इस रोग का कारण एक अतिसूक्ष्म कीटाणु है जिसे ‘बेसीलस टाइफोसिस’ कहते हैं। यह कीटाणु रोगी के मल-मूत्र में अधिक संख्या में पाया जाता हैं। यह कीटाणु कच्चे दूध, दूषित एवं गन्दे पानी, कच्ची और मैली सब्जियों के द्वारा आँतों में पहुँचकर ज्वर उत्पन्न कर देते हैं ।
यह ज्वर पहले सप्ताह में 1 डिग्री फारेनहाइट प्रतिदिन इस प्रकार बढ़ता जाता है कि शाम के समय डेढ़ डिग्री बढ़ जाता है और सुबह (प्रात: समय) आधी से एक डिग्री घट जाता है । इस प्रकार प्रथम दिन 99 डिग्री फारेनहाईट से आरम्भ होकर 6-7 दिन में 103 डिग्री फारेनहाईट तक हो जाता है । प्रथम सप्ताह के अन्त में छाती और पेट पर गुलाबी रंग के गोल-गोल दाने निकल आते हैं, जो आपस में मिलकर धब्बे बन जाते हैं अथवा गुलाबी रंग के धब्बों की बजाय गर्दन, छाती और पेट पर खसखस की भाँति सफेद दाने निकल आते हैं । दूसरे सप्ताह में ज्वर निरन्तर एक दशा में (102 या 103 डिग्री) रहता है। जीभ पर सफेद मैल की तह जमी होती है, परन्तु जीभ की नोंक और किनारे लाल हो जाते हैं। यह इस रोग के परीक्षण का मुख्य लक्षण माना जाता है। तीसरे सप्ताह ज्वर 1 डिग्री प्रतिदिन कम होना आरम्भ हो जाता है। जी मिचलाता है, सिरदर्द होता है । तिल्ली और यकृत बढ़ जाता है । दाल के पानी जैसे बार-बार
के दस्त आते हैं। पेट फूला हुआ रहता है और दाँयी ओर जाँघ में दर्द होता है । छोटी अन्तड़ियों में घाव होकर रक्तस्राव का भय रहता है, इसीलिए तीसरे सप्ताह को सबसे अधिक गम्भीर समय समझा जाता है। यदि अन्तड़ी (आंत) छिल जाये या रक्त बहने लगे तो उस स्थान पर पेट में दर्द होने लगता है। शरीर का तापमान एकाएक गिर जाता है और रोगी अत्यन्त कमजोर हो जाता है । कभी-कभी नक्सीर भी आने लगती है । यदि गर्भवती स्त्री को यह ज्वर हो जाये तो गर्भपात का भय रहता है । गर्दन और पेट पर खसखस जैसे दाने निकलना और कब्ज रहने के अतिरिक्त अन्य सभी लक्षण घातक और भयानक समझे जाते हैं । इसे ‘एंटेरिक फीवर’ भी कहा जाता है । दानों के ढलने की अवधि में बच्चों को सुस्ती, उदासीपन, कंपकंपी, माथे में दर्द, भूख की कमी, पतले दस्त, नाक से रक्तस्राव, कभी कब्ज और कभी पेट दर्द इत्यादि लक्षण होते हैं ।
टाइफाइड नाशक प्रमुख पेटेण्ट ऐलोपैथिक मेडिसिन
क्लोरोमायसेटीन सक्सीनेट – समय से पहले जन्मे बच्चों में 25 मिलीग्राम तथा नये जन्मे बच्चे 30 मिलीग्राम एवं बड़े बच्चों और वयस्कों में 50 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम शारीरिक भार के अनुसार प्रतिदिन की मात्रा को 6 से 8 घण्टे के अन्तर से कई खुराकों में विभाजित करके दें । बड़े बच्चों एवं वयस्कों को गम्भीरावस्था में दवा की मात्रा को दोगुना किया जा सकता है, किन्तु हालत में सुधार होते ही मात्रा पूर्ववत् कम करके देनी चाहिए । इन्जेक्शन मांसपेशी में लगावें । निर्माता ‘पार्कडेविस’ हैं । बी. पी. एल. कम्पनी बीपीमायसेटीन सक्सीनेट के नाम से तथा ‘बायोकेम कम्पनी’ बायोमायसेटीन के नाम से इन्जेक्शन बनाती हैं, जो इसी के समान गुणकारी है ।
एटेनरोमायसेटीन इन्ट्रामस्कुलर – शिशुओं के लिए 50 मिलीग्राम (प्रति मि.ग्रा. शारीरिक भार के अनुसार) कई खुराकों में बाँटकर बच्चों में (15 कि.ग्रा. से ऊपर वजन वालों को) 100 से 150 मि.ग्रा. प्रति किलोग्राम शारीरिक भार एवं वयस्कों में 250 मि.ग्रा. 8-10 घण्टों पर मांसपेशी में लगावें । निर्माता ‘डेज’ । बीकोन फार्मा की टीफोसिन तथा ‘बी. पी. एल. कंपनी’ बीपीमायसेटीन इन्ट्रामस्कुलर के नाम से इसी के समकक्ष इन्जेक्शन तैयार करती है ।
उपर्युक्त इन्जेक्शनों के अतिरिक्त एंटी टाइफाइड वैक्सीन, पिट्रेसिन (पी. डी.) टी. ए. बी. वैक्सीन, कैल्शियम ग्लूकोनेट, कौंगोरेड, पोलीड़ीन, मुल्टीन, कैफीन सोडा बेन्जोएट अथवा कोरामिन (हृदय के लिए), ग्लूकोज कैल्शियम विद विटामिन बी, मॉर्फिन (रक्तस्राव होने पर), स्ट्रिकनीन (हृदय अवसाद के लिए) इन्जेक्शन भी उपयोगी हैं।
पोलीक्सीन कैप्सूल – 15 से 30 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. शारीरिक भार के अनुसार 3 खुराकों में बाँटकर दें । निर्माता : ‘बी. पी. एल.’, 250 एवं 500 मि.ग्रा. की कैप्सूल बच्चों के लिए, 5 मि.ली. में 125 मि.ग्रा. एमोक्सीसिलीन के रूप में प्राप्य बिल्कुल नई एक एण्टीबायोटिक औषधि है ।
पाराक्सीन कैप्सूल (क्लोरमफेनिकाल के योग) – वयस्कों के लिए अनुपातिक मात्रा 50 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. शारीरिक भार के अनुसार । मात्रा को कई खुराकों में बाँटकर 4-6 घण्टे पर दें। बुखार एवं अन्य स्थिति के सुधार होने पर मात्रा को घटाकर आधा कर दें, किन्तु आन्त्रिक ज्वर में बुखार समाप्ति के 8-10 दिन के बाद तक रोगी को यह औषधि सेवन कराते रहना चाहिए । निर्माता ‘बोहरिंगर नाल’ । यही कैप्सूल ‘डेज कम्पनी’ का ऐन्टेरोमायसिटीन, ‘हेक्स्ट कम्पनी’ कैटीलान के नाम से, विकोन कंपनी टीफोसिन के नाम से, ‘पार्कडेविस कंपनी’ क्लोरोमायसिटीन के नाम से, ‘ईस्ट इण्डिया कंपनी’ ईस्टोफेनिकाल के नाम से, ‘एम. एण्ड बी. कंपनी’ एमबेकेटिन के नाम से,’लिपिटेट कम्पनी’ सिन्थोमायसिटीन के नाम से तथा ‘साराभाई कंपनी’ रेक्लार के नाम से इसी के समकक्ष कैप्सूल निर्माण कर रही है। विशेषत: यह है कि साराभाई रेक्लार कैप्सूल में विटामिन सी मिलाकर तथा बी. नोल पाराक्सिन में विटामिन सी तथा टेट्रासा- यक्लिन का संयुक्त योग दे रहे हैं। स्टेण्डर्ड कम्पनी का सेट्रामायसिटीन भी उत्तम कैप्सूल है।
बैक्ट्रीम टैबलेट – दो टैबलेट दो बार। गम्भीरावस्था में तीन बार भी दे सकते हैं । निर्माता ‘रोश’ । यही टैबलेट ‘बरोज बेल्कम क.’ सेप्ट्रान जी. आर. का सुपरिस्टाल के नाम से प्राप्य है ।
होस्टा कार्टिन एच. – निर्माता ‘हेकेस्ट’ रोगावस्था एवं आयु के अनुसार मात्रा निर्धारित करें । थोड़े दिनों की चिकित्सा के लिए 30-50 मि.ग्रा. प्रतिदिन कई खुराकों में बाँटकर । स्थिति में सुधार होने पर आधी से 1 टैबलेट कम करते जायें । 5 मि.ग्रा. की टैबलेट के रूप में यही दवा ‘वेथ कम्पनी’ वाइसोलान के नाम से ‘आर्गेनिन कम्पनी’ प्रेडमीसोलान के नाम से तथा ‘एलेम्बिक क.’ प्रेसिन के नाम से बनाती है ।
फ्यूरोक्सोन टैबलेट – निर्माता ‘एस. के. एफ.’ । वयस्क 200 मि.ग्रा. 3 या 4 बार प्रतिदिन। बच्चों को 7.5 से 10 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. शारीरिक भार के अनुसार प्रतिदिन की मात्रा को कई मात्राओं में विभाजित कराके दें। ज्वर घटने पर मात्रा कम कर दें। 1 माह से कम आयु के शिशु को 14 दिन से अधिक इस दवा का सेवन कराना वर्जित है।
अल्कासाइट्रन (पेय) – निर्माता ‘ग्लूकोनेट’ वयस्कों को 10 मि.ली., बच्चों को 5 मि.ली. तथा शिशुओं को 2.5 मि.ली. दवा को चार गुना पानी में घोलकर 3-4 बार प्रतिदिन सेवन करायें । यही दवा ‘पार्क डेविस कंपनी’ साट्राल्फा के नाम से, ‘अशोक बायोफार्मा’ अल्काटल के नाम से निर्मित करती है ।
सुप्रीस्टल पेडियाट्रिक सस्पेंशन – निर्माता ‘जर्मन रेमेडीज’। 6 सप्ताह से 9 माह तक के शिशु के लिए 2.5 मि.ली. 2 बार, 6 माह से 5 वर्ष की आयु के शिशुओं को 5 मि.ली. 2 बार, 6 वर्ष से 12 वर्ष तक आयु के बच्चों को 10 मि.ली. 2 बार सेवन करायें ।
पाराक्सिन ड्राई सीरप – निर्माता ‘बी. नाल’ । गरम पानी को ठण्डा करने के बाद दवा की शीशी पर चिन्हित जगह पर पानी घोलने के बाद 50 से 100 मि.ग्रा. प्रति कि. ग्रा. शारीरिक भार के अनुसार (एक दिन की खुराक को, कई खुराकों में बाँटकर) सेवन करायें । इसमें 5 मि.ली. में 125 मि.ग्रा. क्लोरम फेनिकाल होता है । इसके अतिरिक्त ‘ए. एफ. डी. कम्पनी’ एबडीमायसेटीन ड्राईसीरप, ‘बी. पी. एल. कम्पनी’ बीपीमायसेटीन ड्राईसीरप के रूप में बनाती है, जो इसी के समान गुणकारी है तथा क्लोरोमायसेटिन सस्पेशन के रूप में ‘पी. डी. कम्पनी’ भी इसी योग का तैयार करती है ।
नोट – टायफायड के लिए एलोपैथी में क्लोरम फेनिकाल अमृत के समान गुणकारी है। बड़ों को इन्जेक्शन, कैप्सूल, सीरप आदि प्रयोग करायें । बच्चों को इसका चौथाई से आधा कैप्सूल मधु या फलों के रस में मिलाकर प्रत्येक 6-6 घण्टे पर खिलायें । यदि ज्वर उतर कर नार्मल पर आ जाये तो और अधिक सेवन न करायें। इसके साथ ही पेडनी सोलान के योग जैसे डेल्टा कार्टियल (फाईजर), होस्टा कार्टिन एच. (हैक्स्ट) आदि में से किसी एक की बच्चों को चौथाई से तिहाई टिकिया तथा विटामिन बी. कॉम्पलेक्स विद विटामिन सी के योग जैसे-सी. बी. टिना एफ. (कलकत्ता केमि.) अथवा बीकोसूल्स (फाइजर) की आधी से चौथाई कैप्सूल भी मधु या फलों के रस के साथ अवश्य खिलायें । एलर्जिक रोगियों में तथा नवजात शिशुओं को भी इसका सेवन न करायें । इस दवा के प्रयोग के समय रोगी को अधिक से अधिक पानी पिलाते रहना जरूरी है। चूँकि बच्चे कैप्सूल निगल नहीं पाते हैं, इसलिए इनको क्लोरोमायसिटीन पामीटेट का सस्पेन्शन पिलायें ।
रोगी के बेहोश होने अथवा किसी कारणवश मुख से दवा न ले सकने पर इसी औषधि का इन्जेक्शन (क्लोरोमायसिटीन सक्सीनेट सस्पेन्शन) 1 ग्राम दवा को 10 ग्राम वाटर फॉर इन्जेक्शन में घोलकर दिन में तीन बार इन्ट्रामस्कुलर लगाते रहें। बच्चों को 1 सुई 1 कि.ग्रा. वजन के बच्चे के लिए 20 मि.ग्रा. इन्जेक्शन की मात्रा है । बच्चे का वजन जितने किलो हो प्रति कि.ग्रा. उतने 20 मि.ग्रा. दवा लेकर उसके 3 भाग बनाकर इस प्रकार दिन में तीन बार माँस में इन्जेक्शन लगायें । वैसे, मुख द्वारा यह दवा प्रयोग करना अधिक लाभकारी है। क्लोरम फेनिकाल के साथ रोगी को कार्टिकोस्ट्रायड औषधि मिलाकर सेवन कराने से 24 घण्टे के अन्दर ज्वर का तापमान और टायफायड रोग के विषैले संक्रामक प्रभाव दूर होने लग जाते हैं। जो रोगी बेहोश हों अथवा जिनको बार-बार कै आ जाने के कारण दवा बाहर निकल जाये, उनके लिए गुदा में प्रविष्ट करने के लिए क्लोरोमायसेटिन स्पाजिट्रीज (बत्तियाँ) बनाई गई हैं, जिनको गुदा के अन्दर प्रविष्ट करा देने से टायफाइड ज्वर उतरने लग जाता है ।
अन्तड़ियाँ बहुत अधिक फूल जाना – टायफायड रोग में यह बुरा लक्षण है। पेट बहुत फूल जाने पर रोगी को कम से कम मात्रा में और अधिक देर के बाद भोजन खिलाया जाना चाहिए। पेट बहुत समय पर चिकित्सा न करने से रक्त में विषैले प्रभाव फैल सकते हैं तथा अन्तड़ियों में छेद भी हो सकते हैं ।
• भोजन कम मात्रा में खिलायें । दही का मट्ठा (whey), अण्डे की सफेदी पानी में घोलकर दूध के स्थान पर प्रयोग करायें । मीठे सेब का रस पिलाना भी लाभप्रद है।
• 5 मि.ली. तारपीन का तेल सवा किलोग्राम गरम पानी में मिलाकर उसमें फलालेन डुबो और निचोड़कर गद्दी बनाकर रोगी के पेट पर रखकर नरमी से बाँध दें ।
• दालचीनी का तेल 2-3 बूंद पेट फूलने, पेट में दर्द और पेट में वायु पैदा होने के लिए सेवन कराना लाभकारी है ।
• रोगी की गुदा में कैथेटर नं. 12 वाला पड़ा रहने दें, जब तक कि वायु के जोर से अपने आप गुदा में से न निकल जाये ।
• केओलीन या एण्टीफ्लोजिस्टीन की समस्त पेट पर गरम-गरम पुल्टिस फैलाकर ढक देने से भी पेट फूलने को आराम आ जाता है ।
• सोडामिण्ट (बूटस कम्पनी) 2 टिकिया, सेलिन (ग्लैक्सो) आधी या एक टिकिया, एण्ट्रोजाइम (स्टेडमेड कम्पनी) 1 टिकिया । तीनों को मिलाकर ऐसी 1 मात्रा पेट दर्द के समय टायफायड रोगी को 1-2 बार खिलायें । इसके सेवन से पेट दर्द, पेट फूलना एवं वायु की अधिकता को शर्तिया आराम आ जाता है ।
• इण्टोबैक्स (सिबागैगी कंपनी) आधी टिकिया तथा बेरालगन (हैकस्ट) 1 टिकिया ऐसी एक मात्रा पेट दर्द के समय खिलाना भी लाभकारी है।
दस्त – टायफायड रोगी की अन्तड़ियों में खमीर एवं खराश उत्पन्न हो जाने के कारण दस्त आने लग जाते हैं । दस्त बन्द करने के लिए पहले पेट दर्द एवं पेट फूल जाने की चिकित्सा करें ।
• रोगी को दूध के स्थान पर अण्डे की सफेदी पानी में घोलकर अथवा दही का मट्ठा थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बार-बार पिलाते रहने से भी दस्तों में आराम आ जाता है।
•3-4 बूंद दालचीनी का तेल ग्लूकोज आदि में मिलाकर रोगी को 2-3 घण्टे के बाद खिलाते रहने से दस्तों की बू, पेट की वायु और कई दूसरे कष्ट दूर हो जाते हैं।