इस रोग को एल्ब्यूमिनोरिया (Albuminuria) के नाम से भी जाना जाता है । इस रोग को डॉक्टर रिचर्ड ब्राइट ने आविष्कार किया था, इसलिए उनके नाम पर ही इस रोग का नाम रख दिया गया है । इस रोग में वृक्क अपना कार्य करने के अयोग्य हो जाते हैं । इस रोग में कई रोग सम्मिलित हैं। वृक्कों में सूजन हो जाना, छोटे जोड़ों का दर्द होना, सिक्के के विष का प्रभाव, अत्यधिक मद्यपान, क्षय रोग और दूसरे कमजोर कर देने वाले रोगों के कारण यह रोग हो जाया करता है ।
यह रोग चाहे किसी भी कारण से हो, इससे वृक्कों की रचना और कार्य में गड़बड़ी हो जाती है जिससे कई विभिन्न लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं सबसे बड़ा लक्षण (जो इस रोग के हर प्रकार में) हो जाता है वह है रोगी के मूत्र में एल्ब्यूमिन आने लग जाता है । यह मूत्र को देखने पर दिखाई नहीं देता है परन्तु टेस्ट ट्यूब में लोहा या चाँदी के चम्मच में थोड़ा सा मूत्र उबालने पर यदि उसमें एल्ब्यूमिन होगा तो मूत्र थोड़ा या अधिक सफेद हो जायेगा और यदि उसमें 1 या 2 बूंद शोरे का खालिस तेजाब (Strong Nitric Acid) के मिला देने पर भी साफ न हो तो मूत्र में एल्ब्यूमिन होने का पक्का प्रमाण है । परन्तु मूत्र में एल्ब्यूमिन होने का यह जरूरी अर्थ नहीं है कि रोगी को ब्राईटस डिजीज हो चुकी है क्योंकि मूत्र में एल्ब्यूमिन ठण्डे पानी से स्नान करने और कई प्रकार के भोजन करने जैसे पनीर, अण्डे, पेस्ट्री खाते रहने से भी आने लग जाती है। अजीर्ण हो जाने से भी यह लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं । यकृत ठीक काम न करने पर वृक्कों से यह छील देने वाला अम्ल (तेजाब) गुजरने पर उस मार्ग में खराश उत्पन्न कर देता है । यदि यकृत ठीक काम करती हो तो यह शरीर में घुल जाते हैं। कई मनुष्यों को व्यायाम करने से भी मूत्र में एल्ब्यूमिन आने लग जाता है (परन्तु इसको वृक्क रोग नहीं कहा जा सकता है) परन्तु यदि एल्ब्यूमिन के साथ ही वृक्कों की मूत्र ले जाने वाली नलिकाओं में कास्ट (Casts) भी आने लग जाये तो यह वृक्क रोग का ही परिणाम है (परन्तु कास्टों को अनुवीक्ष्ण यन्त्र से देखा जा सकता है) मूत्र में एल्ब्यूमिन आने के साथ ही रोगी में इस रोग से ग्रसित होने पर ये लक्षण भी पाये जाते हैं –
मूत्र की मात्रा कम हो जाना, रात्रि में बार-बार मूत्र त्याग होना, कमर के निचले भाग में भारीपन और कष्ट, अजीर्ण और बिना किसी कारण के रोगी का कमजोर हो जाना आदि । रोग बढ़ जाने पर – कमजोरी, सिरदर्द, आँखों के पपोटे फूले हुए, छोटे-छोटे साँस आना, बार-बार मूत्र बढ़ जाने पर हृदय भी कमजोर होने लगता है और रोगी के शरीर में पानी (Dropsy) पड़ सकता है । यह रोग हो जाने पर वायु प्रणालियों के रोग, ऐंठन वाले दौरे, बेहोशी के दौरे, मिर्गी जैसे दौरे (जैसे कि यूरेमिया अर्थात् मूत्रं में विष में पड़ते हैं) आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं ।
ब्राइट्स डिजीज का इलाज
रोग ग्रस्त रोगी को दिमागी काम, चिन्ता और क्रोध आदि से बचायें ।
रोगी को केवल पेय पदार्थ दें । रोगी को बिस्तर पर लिटाये रखें । उसको दूध 1-1 घूँट करके पिलायें (वह समस्त दूध एक ही बार में न पी ले) एक वयस्क रोगी को दिन भर में दो कि.ग्रा. दूध घूँट-घूँट करके पिलाना लाभकारी सिद्ध होता है। इसके साथ ही वह पानी भी अधिक मात्रा में पीता रहे जिससे रक्त में बनी विष मूत्र के साथ निकल जाये । रोग के आरम्भ में तो रोगी को पानी बहुत अधिक मात्रा में पिलाना बहुत ही आवश्यक है। यदि रोगी दूध हजम न कर सके तो जौ का पानी या लस्सी पिलानी परम लाभकारी रहता है। अलसी की गरम-गरम पुल्टिस वृक्क के स्थान पर बाँधने और टकोर करने से भी लाभ प्राप्त होता है। कम्पिंग ग्लास से भी कष्ट कम हो जाता है। राई (मस्टर्ड) भी ब्राइट्स डिजीज की प्राकृतिक एवं अनुभूत चिकित्सा है।