‘कार्बंकल‘ को अदृष्ट-व्रण, पृष्ठ-व्रण तथा ‘अदीठ-फोड़ा‘ आदि नामों से पुकारा जाता है। यह फोड़ा विशेष कर पीठ पर होता है, इसलिए इसका एक नाम “पृष्ठ-व्रण’ है ।
यह एक प्रकार का बड़ा, गोल, चपटा तथा कुछ कालिमा लिए लाल रंग का फोड़ा होता है । उसकी उत्पति के मुख्य कारण एक प्रकार के जीवाणु माने जाते हैं। यह गर्दन के पिछले भाग में, कमर पर, कूल्हे पर, कन्धे पर अथवा पीठ पर भी हो सकता है। अधिकतर यह फोड़ा डायबिटीज (मधुमेह) के रोगियों को होता है। ऐसे रोगियों को होने वाला ‘कार्बंकल’ कष्ट-साध्य होता है और उसके ठीक होने की आशा बहुत ही कम रहती है।
इस फोड़े की जड़ें शरीर-तन्तुओं के भीतरी भाग तक पहुँच जाती हैं। अत: जब भी यह फूटता है, तब कई स्थानों पर फूट पड़ता है। इसमें सामान्य फोड़े अथवा व्रण की भाँति एक मुँह न होकर चलनी की भाँति अनेक छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। इसके सभी छिद्रों से पतले फेन जैसा मवाद निकला करता है। यह व्रण पहले थोड़ा स्थान घेरता है, परन्तु बाद में अधिक बढ़ता चला जाता है। हर दो-तीन सप्ताह के बाद ही यह व्रण जिस स्थान पर होता है, वहाँ तथा वहाँ से नीचे के गहरे अंश तक सड़ने लगता है। यह फोड़ा प्राय: 40 वर्ष से अधिक आयु वाले मनुष्यों को ही होता है, परन्तु कभी-कभी वह छोटी आयु बालकों को भी हो जाता है। इस व्रण में ज्वर सिर-दर्द (अनिद्रा, अरुचि तथा कमजोरी आदि उपसर्ग प्रकट होते हैं । रोग-वृद्धि के साथ ही उपसर्ग भी बढ़ते चले जाते हैं ।
चिकित्सा – इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभ करती हैं
बेलाडोना 1x, 3x अथवा साइलीशिया 3x वि० – ये दोनों औषधियाँ इस रोग की प्रतिषेधक मानी जाती हैं। इनमें से किसी एक औषध का सेवन करने से अथवा रोगी स्थान पर पहले ‘स्प्रिट-कैम्फर’ और उसके बाद ‘जैतून का तैल’ लगाने से यह व्रण जोर नहीं पकड़ता । फोड़े वाली जगह का लाल होना, खोंचा मारने जैसा दर्द, नींद न आना आदि लक्षणों में ‘बेलाडोना 3x’ का प्रयोग लाभकारी सिद्ध होता है । पीब उत्पन्न होने वाली प्रदाहावस्था में ‘बेलाडोना’ को बारम्बार देना हितकर है ।
ऐन्थ्राक्सिनम 30, 1M – रोग की प्रारम्भिक-अवस्था में इस औषध की 30 शक्ति की मात्राएँ तीन-तीन घण्टे का अन्तर देकर खिलाते रहने से रोग की वृद्धि रुक जाती है तथा किसी अन्य औषध को देने की आवश्यकता नहीं पड़ती । ‘ऐन्थ्राक्सिनम’ को इस रोग की अत्युतम औषध माना जाता है। फोड़े वाले स्थान का सड़ना, निर्जीव हो जाना, एक के बाद दूसरे फोड़े का निकलना एवं असह्य पीड़ा – इन सब लक्षणों में इस औषध की उच्च-शक्ति 1M की केवल एक ही मात्रा देने से स्थिति में बहुत सुधार आ जाता है । यदि इसे आरम्भ में ही दे दिया जाय तो रोग पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है । यदि रोग के आरम्भ में ‘रस-टाक्स’ दिया गया हो और उससे रोग की वृद्धि न रुक सकी हो, तो फिर इसको देने की आवश्यकता पड़ती है । उच्च-शक्ति में इसे 15 दिन में एक बार देना चाहिए ।
रसटाक्स 30 – डॉ० फैरिंगटन के मतानुसार इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में, जबकि भयंकर दर्द तथा रोगी स्थान का लाल-काला पड़ जाना-ये लक्षण दिखाई दें, तब इस औषध का प्रयोग करने से रोग की वृद्धि रुक जाती है। यदि इससे रोग-वृद्धि न रुके तो ‘ऐन्थ्राक्सिनम’ अथवा अन्य औषधियाँ देनी चाहिएं।
कार्बोलिक-एसिड 3, 30 – डायबिटीज के ‘कार्बंकल’ में जिसमें से कि दुर्गन्धित मवाद निकलता हो-यह औषध बहुत लाभदायक सिद्ध होती है।
आर्सेनिक 3x, 30, 200 – यदि व्रण बढ़ने तथा सड़ने लगें तो ‘आर्सेनिक 3x’ का प्रयोग करना चाहिए। यदि रोगी के फोड़े पर औगारे रखें होने जैसा दर्द हो, मध्य-रात्रि के समय कष्ट बढ़ जाता हो, अत्यधिक बेचैनी के लक्षण पाये जाते हों तथा ‘ऐन्थ्राक्सिनम’ के प्रयोग से लाभ न हो तो इसका प्रयोग हितकर है ।
टैरेण्टुला-क्युबैसिस 30 – डॉ० फैरिंगटन के मतानुसार यह औषध भी ‘कार्बंकल’ में लाभ करती है। यदि रोगी स्वयं को अत्यधिक अशक्त अनभव करता हो, ज्वर आता हो, ज्वर के साथ दस्त आते हों तथा सायंकाल में रोग के लक्षण बढ़ जाते हों तो इस औषध के प्रयोग से निश्चित लाभ होता है। कष्ट दूर करने की यह एक उत्तम औषध है ।
कार्बो-वेज 6, 30 – कार्बंकल का व्रण नीला पड़ गया हो, पस से दुर्गन्ध आती हो एवं दर्द के साथ जलन के लक्षण हों तो इसे देना चाहिए। इस औषध में ‘आर्सेनिक’ जैसे लक्षण पाये जाते हैं, परन्तु इसमें ‘आर्सेनिक’ जैसी बेचैनी नहीं पायी जाती है ।
साइलीशिया 30, 200 – धीरे-धीरे बढ़ने वाले कार्बंकल में से जब पस जारी हो जाय, तब इस औषध का प्रयोग हितकर रहता है। तीव्र दर्द एवं जलन के साथ दुर्गन्धित पीव बहना एवं नीचे के विधान-तंतुओं का सड़ने लगना – इन लक्षणों में बहुत लाभकारी है।
गन-पाउडर 3x – कार्बंकल के लिए निर्वाचित अन्य किसी औषध के साथ ही इसे भी प्रति 4 घण्टे बाद देते रहने से अनेक रोगियों को लाभ हुआ है – यह डॉ० क्लार्क का कथन है ।
एपिस-मेल 3 – व्रण वाली जगह का फूली तथा लाल होना एवं व्रण में जलन अथवा डंक मारने जैसे दर्द के लक्षणों में हितकर है।
(1) ‘कैलेण्डुला’ अथवा ‘बोरासिक-एसिड’ के मरहम से फोड़े को बाँधे रखने से बहुत आराम मिलता है एक ड्राम ‘बोरासिक-एसिड’ के चूर्ण को एक औंस ‘अॉलिव-ऑयल’ के साथ मिला देने पर मरहम तैयार हो जाता है ।
(2) मैदा अथवा अलसी की पुल्टिस बाँधने से व्रण की टपक में कमी आ जाती है । पुल्टिस के ऊपर थोड़ी-सी कोयले की बुकनी छिड़क देने से व्रण का सड़ना तथा उससे दुर्गन्ध आना बन्द हो जाता है ।
(3) ‘कार्बोलिक-लोशन’ द्वारा घाव को धोने से उसका सड़ना तथा दुर्गन्ध आना समाप्त हो जाता है ।
(4) गरम पानी में फ्लैनेल को भिगोकर व्रण की सिकाई करने से रोगी को बहुत आराम मिलता है तथा रोग में भी लाभ होता है ।
विशेष – रोगी को भोजन में साबूदाना, बार्ली, काडलिवर-ऑयल आदि हल्का तथा पुष्टिकर पथ्य देना चाहिए ।