लक्षण – (1) मस्तिष्क में रक्त पहुँचाने वाली नाड़ियों में अधिक रक्त-संचय हो जाने, (2) मस्तिष्क में रक्त पहुँचाने वाली नाड़ियों के कट कर अत्यधिक रक्त निकल जाने तथा (3) अचानक ही मस्तिष्क में जल-संचय हो जाने-इन तीन कारणों से यह रोग होता है । यह कभी तो धीरे-धीरे होता है और कभी अचानक ही हो जाता है । इस रोग के होते ही अच्छे-भले व्यक्ति की चलने-फिरने की शक्ति नष्ट हो जाती है ।
इस रोग में श्वास अथवा रक्त-संचालन-क्रिया में कोई बाधा नहीं पड़ती । नाड़ी कभी क्षीण, कभी मृदु और कभी द्रुत-गति से चलती है। आँखों की पुतलियाँ फैल जाती हैं या सिकुड़ जाती है, आधे या सम्पूर्ण अंग में खिंचाव, एक ओर को अकड़न के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। रोगी एकदम अथवा कुछ बेहोश हो जाता है। यदि रोग का आक्रमण धीरे-धीरे होता है तो उस स्थिति में अचानक बेहोश होने से पूर्व कई दिनों तक रोगी के सिर में दर्द, सिर झुकाते ही मिचली अथवा बेहोशी का भाव, माथे के ऊपरी भाग में गर्मी का अनुभव, कब्ज, वमन, पेशाब की मात्रा में कमी तथा मानसिक-चंचलता के लक्षण प्रकट होने लगते हैं ।
आधे अंग के पक्षाघात के कारण एक दूसरे ढंग का सन्यास रोग भी होता है, जिसमें नाड़ी का पूर्ण तथा तेज होना, किन्हीं अंगों का अवश हो जाना, चलने की भी ताकत का न रहना, कान के भीतर एक प्रकार की आवाज आने का अनुभव, सिर में भारीपन, नाक से खून गिरना तथा तन्द्रा आदि के लक्षण दिखाई देते हैं ।
चेहरे का एकदम पीला या नीला पड़ जाना, आँखों के सामने काले धब्बों का फिरने लगना तथा अंधेरा छा जाना, बेहोशी-सी आने लगना, सुपरिचित स्थान भी अपरिचित सा लगना – ये लक्षण प्राय: दोनों प्रकार के सन्यास में पाये जाते हैं ।
कारण – रजोरोध, हृत्पिण्ड की क्रिया में गड़बड़ी, माथे के किसी भाग में चोट पहुँचना, उपदंश रोग, पेशाब में अधिक एल्ब्युमिन, शराब पीना, बहुत अधिक खुराक खाना, कन्धे पर भारी वस्तुओं का बोझ पड़ना, छाती का चौड़ी तथा गर्दन का छोटी होना, गठिया वात, सीसे का अप-व्यवहार, मानसिक-चिन्ता अथवा उत्तेजना आदि कारणों से यह रोग होता है ।
चालीस वर्ष से अधिक आयु में यह रोग प्राय: अधिक खाने-पीने, मूत्रपिण्ड, हृत्पिण्ड के रोग अथवा मानसिक-उत्तेजना के कारण होता है । इस आयु में यह रोग बहुत ही खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित होम्योपैथिक औषधि हितकर सिद्ध होते हैं:-
लारोसेरैसस 1x – अचानक ही उत्पन्न हो जाने वाले सन्यास रोग की यह श्रेष्ठ औषध मानी जाती है ।
एकोनाइट 1x, 3 – अंगों का सुन्न हो जाना, नाड़ी का भारी, तेज अथवा सरल होना, शरीर की त्वचा सूखी और गरम, जीभ के पक्षाघात के कारण बोल न पाना एवं मानसिक तथा शारीरिक बेचैनी में इसे 15-15 मिनट बाद देना चाहिए ।
बेलाडोना 6, 30 – डॉ० ज्हार के मतानुसार मस्तिष्क की नस फट जाने पर जब दिमागी क्रिया बन्द हो जाय और सम्पूर्ण शरीर अथवा उसके किसी एक भाग में पक्षाघात हो जाय तो इस औषध को 15-30 मिनट के अन्तर से देने पर आश्चर्यजनक लाभ होता है । इसके रोगी की आँखों की दोनों पुतलियाँ फैल जाती हैं, नाड़ी तीव्र हो जाती है तथा चेहरा लाल हो जाता है । चेहरे पर लाली, बोल न पाना, बेहोशी, रक्तवाहिनी नलियों का फड़कना, चेहरे तथा हाथ-पाँव में अकड़न, आँखों की पुतली का फैल जाना, नाड़ी भारी तथा उछलती हुई एवं अनजाने में पेशाब निकल जाना – इन लक्षणों में हितकर है ।
ओपियम 30 – यदि बेलाडोना के प्रयोग से रोगी चैतन्य हो गया हो, परन्तु बाद में उसकी चैतन्यता पुन: लुप्त होने लगे और उस संज्ञा-शून्यता में उसके मुँह से घुरघुराहट की आवाज आने लगे तो उसे इस औषध का प्रयोग दिन में 3 बार कराना चाहिए और जब इन लक्षणों में कमी आ जाय, तब पुन: बेलाडोना देना आरम्भ कर देना चाहिए । गाढ़ी नींद जैसी बेहोशी, साँस में जोर की आवाज, चेहरे पर कालिमा युक्त लाल रंग और उसका फूला हुआ होना, आँखों की पुतली अधखुली अथवा फैली हुई, रक्तवाहिनी शिराओं से रक्त-स्राव होना तथा हाथ-पाँवों का ठण्डा होना-इन लक्षणों में ‘ओपियम’ लाभकारी है । जब तक लाभ दिखाई न दे, तब तक इस औषध को एक-एक घण्टे के अन्तर से देते रहना चाहिए । जब रोगी होश में आ जाय और उसमें ‘बेलाडोना’ के लक्षण न हों तो इसके बाद ‘आर्निका 3’ कई बार देना उचित रहेगा ।
आर्निका 6, 200 – वृद्ध-मनुष्यों के मस्तिष्क में रक्त-संचय, गिरने अथवा चोट लगने के कारण होने वाली बीमारी, सम्पूर्ण शरीर में दुखन एवं सिर का गरम तथा शरीर का ठण्डा होना-इन लक्षणों में इस औषध का प्रयोग तब करना चाहिए, जबकि रोगी चैतन्यता प्राप्त कर चुका हो ।
नक्स-वोमिका 6, 12, 30 – मस्तिष्क में रक्त-संचय के कारण होने वाला सन्यास रोग, माथे से रस अथवा रक्त निकलना, रात्रि-जागरण, मद्य-पान अथवा अधिक भोजन करने आदि के उपद्रवों के कारण उत्पन्न बीमारी में यह लाभकर है । यह ओपियम की पूरक-औषध का काम करती है तथा ‘ओपियम’ द्वारा आरम्भ हुई आरोग्यावस्था को सहायता पहुँचाती है । डॉ० क्लार्क के मतानुसार यदि इस के आरम्भ में रोगी का सिर भारी हो सिर में दर्द हो, घुमेरी आती हो एवं रक्त की नाड़ियाँ भारी तथा उभरी हुई दिखाई देती हों तो इसका प्रयोग करना चाहिए ।
ग्लोनायन 6, 30 – ब्लड-प्रेशर के कारण हुए सन्यास रोग में यह लाभकर है। गर्दन से उठने वाला भयंकर सिर-दर्द नाड़ियों में स्पन्दन, सुपरिचित गली-सड़क भी अपरिचित सी जान पड़े। रोगी को किसी को पहिचान न सके एवं मिचली तथा रोशनी में रोग का बढ़ना-इन लक्षणों में इसका प्रयोग करें ।
नेट्रम-कार्ब 6 – यह सूर्य अथवा गैस की गर्मी के कारण उत्पन्न सन्यास रोग में लाभकारी है ।
बैराइटा-कार्ब 3, 6, 30 – जीभ पर रोग का दौरा, दाँये अंग में लकवा मार जाना तथा वृद्धों की बीमारी, उन्हें सन्यास रोग होने की आशंका अथवा इस रोग की प्रवृति में इस औषध का प्रयोग हितकर रहता है ।
इगेशिया 200 – यदि शोक, दुख, चिन्ता अथवा मानसिक-आधात के कारण रोग हुआ हो तो इसका प्रयोग करें।
हायोसायमस 3x, 6 – यदि अनजाने में मल-मूत्र निकल जाये तो इसका प्रयोग करें ।
विशेष – उक्त औषधियों को रोग की बढ़ी हुई अवस्था में 15, 20 या 30 मिनट (आवश्यकतानुसार) के अन्तर से देना चाहिए ।
रोगी को बिस्तर पर पूरी तरह से आराम करायें । गुनगुने पानी में थोड़ा नमक मिलाकर एक दिन के अन्तर से स्नान करायें । उत्तेजक पदार्थों चाय, शराब, गरम मसाले आदि का प्रयोग न करने दें । दूध पथ्य है ।