यह रोग किसी भी आयु के व्यक्ति को हो सकता है। इस रोग में सबसे पहले तेज बुखार, ठण्ड लगना, पूरे शरीर में दर्द, दाह, वमन आदि लक्षण प्रकट होते हैं । ज्वर आने के 2-3 दिनों में शरीर पर दाने निकलने लगते हैं जिन्हें बोल-चाल में गोटियाँ कहा जाता है । 5-6 दिन में इन दानों में पानी भर जाता है और वह पीव बनने लगता है । इन दिनों ज्वर बढ़ने लगता और ऐसे में उचित परिचर्या के अभाव में रोगी की मृत्यु तक संभव है। 10 दिन में चेचक के दाने सूखने लगते हैं और तीन सप्ताह में यह गिर जाते हैं और दानों की जगह चिन्ह (गड्ढे से) बन जाते हैं । चेचक के रोगी की चिकित्सा बड़े ध्यान से करनी चाहिये अन्यथा उसके अन्धे हो जाने या मर जाने का डर रहता है । दानों में खुजली बहुत होती है पर उन्हें खुजाना नहीं चाहिये । रोगी के हाथों पर दस्तानों की तरह सूती कपड़ा बाँध देना चाहिये ताकि वह दानों को खुजला न पाये । रोगी के वस्त्रों को प्रतिदिन गर्म पानी से धोना चाहिये और उसके बिस्तर को प्रतिदिन धूप लगानी चाहिये। रोगी के पास नीम की चार-पाँच ताजी डालियाँ प्रतिदिन रखनी चाहिये । रोगी को अन्य पथ्यों के साथ गाय या गधी का दूध भी थोड़ी-थोड़ी मात्रा में दे सकते हैं । रोगी के परिचारक को स्वयं अपनी सुरक्षा का ध्यान भी रखना चाहिये और स्वयं को स्वच्छ बनाये रखना चाहिये ।
वैरियोलिनम 200- यह चेचक की एक प्रतिषेधक दवा है । प्रतिषेधक के रूप में इसकी एक मात्रा प्रति सप्ताह लेनी चाहिये। कुछ चिकित्सक बीचबीच में सल्फर 200 भी देने को कहते हैं। कुछ चिकित्सकों का यह कहना है कि वैरियोलिनम को 200 की जगह 6x या 12x शक्ति में सप्ताह में एक बार के हिसाब से लगातार तीन सप्ताह तक देना चाहियें । इस दवा को चेचक हो जाने के बाद उपचार के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है ।
मैलेण्डूिनम 30- कुछ विद्वानों के अनुसार यह भी चेचक की एक प्रतिषेधक दवा है- प्रति सप्ताह एक मात्रा देनी चाहिये ।
जेल्सिमियम 3, 30- रोग की प्रारंभिक अवस्था में दें जबकि तीव्र ज्वर हो और बेचैनी हो । कुछ चिकित्सक ऐसी अवस्था में एकोनाइट देने को कहते हैं परन्तु व्यवहार में हमने जेल्सिमियम को ही अधिक उपयोगी पाया है । वैसे ऐसी अवस्था में लक्षण-भेद से बेलाडोना भी लाभप्रद है ।
ब्रायोनिया 30- रोग की प्रारंभिक अवस्था में दें जबकि तीव्र सिर-दर्द हो, तेज बुखार हो, जी मिचलाये, वमन हो, किसी भी प्रकार की हरकत से रोगी को कष्ट होता हो और दाने निकलने में देर लग रही हो ।
थूजा Q, 30- डॉ० बोनिनधासन के अनुसार चेचक की द्वितीयावस्था में जबकि त्वचा काली पड़ जाये और सूज जाये, त्वचा पर चपटे और पीवमिश्रित दाने निकल आयें तो यह दवा उपयोगी है ।
मर्कसॉल 30- चेचक की तृतीयावस्था में जबकि दाने पकने लगें तो यह दवा अत्यन्त उपयोगी है ।
हाइडैस्टिस केन Q, 30- डॉ० गार्थ विलकिन्सन के अनुसार यह चेचक रोग की स्पेसिफिक दवा है– लक्षणानुसार देनी चाहिये ।
क्रोटेलस हॉरिडस 6- यदि चेचक का स्वरूप आरंभ से ही घातक लग रहा हो तो यह दवा लाभप्रद हैं ।
सल्फर 30- चेचक के दानों पर से भूसी उड़ने लगे तो लाभप्रद है ।
सारासिनिया 1x, 3- अनेक विद्वानों के अनुसार यह चेचक रोग की प्रमुख दवा है और रोग की सभी अवस्थाओं में दी जा सकती है। यह रोग की तीव्रता को कम करती है और दानों में पीव भरने से भी रोकती है । लक्षणानुसार देनी चाहिये ।