Cimicifuga Racemosa Homeopathy In Hindi
- यह दवा स्त्री-रोग में विशेष उपयोगी रहती है – हिस्टीरिया रोग, रजोधर्म तथा जरायु को रोग में अच्छा काम करता है।
- शारीरिक लक्षण के दबने पर मानसिक लक्षण उत्पन्न हो जाता है।
- हर तीसरे महीने गर्भपात हो जाने के लक्षण में भी इस दवा को देना चाहिए।
- गठिया अगर नमी के कारण शरीर की मांसपेशियों, जोड़ों, सिर, जरायु आदि में दर्द उत्पन्न हो जाये, तो भी यहाँ दवा उपयोगी है।
- गर्म कपड़े पहनने से और कुछ खा लेने से रोग में कमी आती है।
- रजोधर्म के दिनों में और ठण्ड से रोग बढ़ता है।
(1) सिमिसिफ्यूगा औषधि की परीक्षा बहुत सीमति क्षेत्र में ही हुई है, परन्तु फिर भी कई रोगों में यह औषधि कारगर सिद्ध हुई है। इसकी मुख्य उपयोगिता स्त्रियों के रोगों में पायी जाती है जिनमें से मुख्य हिस्टीरिया तथा गठिया आदि वात-रोग हैं।
हिस्टीरिया के लक्षण – सोते समय मांस-पेशियों का कंपन तथा उससे अनिद्रा – ज्यों ही रोगिणी सोने के लिये बिस्तर पर लेटती हैं, तब जिस तरफ लेटती है उसी तरफ की मांस-पेशियों में कंपन होने लगता है। अगर वह पीठ के बल लेट जाती है, तो पीठ की मांस-पेशियों में कंपन शुरू हो जाता है, कन्धों में कंपन शुरू हो जाता हैं। दायें, बांयें, सीधे-किसी तरफ लेटने से उसी तरफ कंपन का होना उसे बेचैन कर देता है और वह सो नहीं सकती। कभी कंपन, कभी सुन्न भाव, कभी दर्द-ठीक उस तरफ जिधर वह लेटती है – यह एक विलक्षण-लक्षण (Peculiar symptom) है जो इस औषधि में पाया जाता है।
रजोधर्म के दिनों में लक्षणों में वृद्धि – रजोधर्म के विषय में रोगिणी से पूछना चाहिये कि उसके लक्षण रजोधर्म से पहले बढ़ते हैं, रजोधर्म के दिनों में बढ़ते हैं, या रजोधर्म के बाद बढ़ते हैं। प्राय: रजोधर्म हो जाने से स्त्रियों की तकलीफ घट जाती हैं, यह स्वाभाविक है। परन्तु ऐक्टिया रेसिमोसा ( सिमिसिफ्यूगा ) का विशेष लक्षण यह है कि जब रजोधर्म हो रहा होता है, उस समय रोगिणी की तकलीफ बढ़ जाती हैं, और जितना ही अधिक रुधिर जारी होता है उतनी ही उसकी तकलीफ बढ़ती है। रजोधर्म के दिनों में स्त्री में उदासीनता, रुआई, अविश्वास, मांसपेशियों का कंपन, सुन्नभाव-जिधर लेटती हैं उधर ही मांस-पेशियां फड़कने लगती हैं, बैचनी से वह बिस्तर पर उठ बैठती है. सो नहीं सकती – ये सब उपद्रव रजोधर्म के दिनों में प्रकट होते हैं, और रजोधर्म के निकल जाने पर ये लक्षण भी जाते रहते हैं। लैकेसिस और जिंकम में ठीक इससे उल्टा होता हैं। इनमें रजोधर्म के होने से स्त्री के सब उपद्रव शान्त हो जाते हैं, न होने पर बने रहते हैं।
Video On Cimicifuga Racemosa
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शारीरिक-लक्षणों के दबने पर मानसिक-लक्षणों का प्रकट होना तथा मानसिक-लक्षणों के दबने पर शारीरिक-लक्षणों का प्रकट होना – कभी-कभी रोगी के शारीरिक-लक्षणों को तेज दवाओं से दबा दिया जाता है, परंतु वे दब कर और गहराई में जाकर मानसिक-लक्षणों को उत्पन्न कर देते हैं। उदाहरणार्थ अगर गठिये को दबा दिया जाय, तो रोगी का मानसिक-असंतुलन हो जाता है, कभी-कभी गठिया भी ठीक हो जाता है, मानसिक संतुलन भी बना रहता हैं, परन्तु दस्त आने लगते हैं, पेट में दर्द होने लगता है, स्त्रियों में जरायु से रुधिर आने लगता है। इस प्रकार का स्रावों का प्रवाह रोग को शान्त बनाये रहता है। शारीरिक-लक्षणों के हटने पर मानसिक-लक्षणों का आ जाना तथा मानसिक-लक्षणों के हटने पर शारीरिक-लक्षणों का आ जाना इस औषधि में पाया जाता है।
ऐक्टिया रेसिमोसा की रोगिणी एक दिन आकर कहती है कि उसके सारे शरीर में दर्द होता है, जिस तरफ भी लेटे उस तरफ की मांस-पेशियां फड़कने लगती है, इस कारण वह उठ बैठती है, इसी कारण रात को नींद नहीं आती, अगली बार आकर अपने शारीरिक-कष्ट की कोई बात नहीं कहती, सिर्फ इतना कहती है कि जी घबड़ाया रहता है, कुछ करने को जी नहीं करता, रो-रोकर अपना दिल हल्का करना चाहती है. कहती है रोने को जी करता है। शारीरिक-लक्षणों के दब जाने पर मानसिक-लक्षणों का प्रकट हो जाना और मानसिक-लक्षणों के दब जाने पर शारीरिक-लक्षणों का प्रकट होना इस औषधि का विशेष गुण है।
ऐक्टिया रेसिमोसा तथा पल्सेटिला की तुलना – लक्षणों का इस प्रकार एक-दूसरे में परिवर्तन ऐक्टिया रेसिमोसा की तरह पल्सेटिला में भी पाया जाता है, परन्तु ऐक्टिया शीत-प्रधान औषधि है, पल्सेटिला ऊष्णता-प्रधान औषधि है। पल्सेटिला में रोग अपना स्थान बदलता हैं, रूप नहीं बदलता। अगर घुटने में दर्द है तो वह दर्द दूसरे घुटने में बाँह में या अन्य कहीं जा सकता है, परन्तु दर्द दर्द ही बना रहेगा, कोई और रूप धारण नहीं करेगा। ऐक्टिया रेसिमोसा में दर्द दबकर मानसिक रूप धारण कर लेता है – उदासी, निराशा, रोना, जीवन से उपरामता आदि। इस दृष्टि से ऐक्टिया रेसिमोसा की एब्रोटेनम से तुलना की जा सकती है, परन्तु उसमें एक शारीरिक-लक्षण दब कर दूसरा शारीरिक लक्षण-बिल्कुल नया लक्षण-प्रकट हो जाता है, मानसिक क्षण नहीं। उदाहरणार्थ, एब्रोटेनम में दस्त दब कर गठिया हो जायगा, बवासीर हो जायगी, कर्णमूल दब कर पोते बढ़ जायेंगे। ऐक्टिया रेसिमोसा का एब्रोटेनम की अपेक्षा मन पर, स्नायु-मंडल पर अधिक प्रभाव है।
ऐक्टिया रेसिमोसा और इग्नेशिया की तुलना – लक्षणों की परिवर्तनशीलता इग्नेशिया में भी पायी जाती है। इग्नेशिया भी ऐक्टिया की तरह शीत-प्रधान है, परन्तु भेद यह है कि इग्नेशिया की बीमारी अधिकत: दु:ख के कारण होती है। किसी का पति मर गया, किसी की स्त्री मर गई, कोई अतृप्त प्रेम से व्याकुल है। इस प्रकार के दु:ख जनित रोगों में इग्नेशिया व्यवहृत होती है।
तीसरे महीने गर्भपात हो जाना तथा प्रसव सहज होना – अगर तीसरे महीने गर्भपात हो जाता हो, तो ऐसी दशा में प्रसव के एक या दो मास पूर्व से अगर गर्भवती स्त्री को ऐक्टिया रेसिमोसा की 3x की मात्रा प्रति 3 घंटे सेवन कराई जाय, तो गर्भपात नहीं होता। सैबाइना भी तीसरे महीने के गर्भपात को रोकता हैं। पांचवें या सातवें महीने गर्भपात होता हो, तो सीपिया 30 की प्रति चार घंटे के बाद मात्रा सेवन कराई जाय तों गर्भपात नहीं होता। जिन स्त्रियों को स्वभावत: गर्भपात हो जाता है उन्हें वाइबरनम के मदर टिंचर के 4-5 बूंद प्रतिदिन देने चाहियें।
(2) गठिया – इसका रोगी शीत-प्रधान होता है, सर्द और नम हवा से उसक शरीर में गठिये के रोग की दशा उत्पन्न हो जाती है, केवल मांसपेशियों और जोड़ों में ही दर्द नहीं होता, सारे शरीर में दर्द होने लगता है, स्नायु-मार्ग में, नसों में दर्द होता है। यकृत् और जरायु में भी नम-मौसम के शीत से दर्द होता है, सारे शरीर में इस शीत से दर्द होता है, परन्तु सिर में वह ठंडी हवा चाहता है। रोगी शीत-प्रधान है-यह तो रोगी का ‘व्यापक’ (General) रूप है, परन्तु सिर ठंडक चाहता है-यह रोगी का ‘एकांगी’ (Particular) रूप है। यह हम पहले ही कह चुके हैं कि जब रोगी के शारीरिक-कष्ट-गठिये का दर्द आदि-दब जाते हैं तब उसके मानसिक-कष्ट-हतोत्साह, निराशा, रुआई-आदि प्रकट होने लगते हैं, और जब उसके मानसिक-कष्ट प्रकट होते हैं तब उसके शारीरिक-कष्ट दब जाते हैं। ऐक्टिया रेसिमोसा से लाभ होता है।
ऐक्टिया रेसिमोसा ( सिमिसिफ्यूगा ) औषधि के अन्य लक्षण
(i) प्रसव के बाद ठंड लग जाने से पागलपन या डिलीरियम।
(ii) प्रसव के बाद जरायु के नियमित संकोचन के न होने से मैले-पानी (Lochia) या नारबेल (Placenta) के न निकलने पर इसे दिया जाता है।
(iii) जरायु में दर्द (Ulterine neuralgia) जो कभी एक और कभी दूसरी ओर जाता है, इसके लिये यह महौषध है। यदि यह दर्द दाई तरफ से बाई तरफ जाय, तो लाइकोपोडियम और अगर बाई तरफ से दाहिनी तरफ जाय, तो इपिकाक या लैंकेसिस उपयोगी है।
(iv) रजोधर्म की खराबी के कारण शरीर में बिजली के शॉक (धक्के) के समान स्नाय शूल (Neuralgia) को यह ठीक करता है।
(v) जराय से संबद्ध सिर-दर्द ऐक्टिया का सिर-दर्द आँख से शुरू होकर सिर की चोटी या उसके ठीक पीछे सिर की गुद्दी तक फैल जाता है; स्पाइलेजिया का सिर-दर्द सिर के पीछे की बाई तरफ से शुरू होकर, सिर के ऊपर चोटी से होता हुआ बाई आंख पर आ टिकता है। ऐक्टिया रेसिमोसा का सिर-दर्द दिन की अपेक्षा रात को अधिक होता है; इसके विपरीत स्पाइजेलिया का सिर दर्द दिन को अधिक होता है, सूर्योदय से प्रारंभ होता है और सूर्यास्त तक बना रहता है। प्रतिदिन ठीक एक ही समय बाई आख के आस-पास दर्द हो तो सिड्रन उपयोगी है।
शक्ति तथा प्रकृति – सिमिसिफ्यूगा औषधि 30, 200, 1000 तथा इससे भी ऊंची शक्ति में अच्छा काम करती है। औषधि ‘सर्द’-प्रकृति के लिये हैं।