हमारा रक्त सदा संचार करता रहता है, चलता रहता है। रक्त संचारक यन्त्र हृदय कभी निठल्ला नहीं बैठता है। वह कभी सिकुड़ता है और कभी फैल जाता है। हृदय के सिकुड़ने और फैलने से उसकी रक्त धारक शक्ति घटती और बढ़ती रहती है।
रक्त शरीर के सब भागों की आवश्यक तत्त्व प्रदान करके दो महाशिराओं द्वारा दाहिने ग्राहक कोष्ठ में वापिस आता है। शरीर के ऊपरी भाग का अशुद्ध रक्त उर्ध्व महाशिरा (सुपीरियर वेनाकावा) द्वारा और निचले भाग का अशुद्ध रक्त अधोगा महाशिरा (इन्फीरियर वेनाकावा) द्वारा इकट्ठा होकर दाहिने ग्राहक कोष्ठ में वापिस आता है। ज्यों ही यह ग्राहक कोष्ठ रक्त से भरता है, उसी समय वह सिकुड़ने लगता है, उसके सिकुड़ने से उसकी रक्त की सप्लाई कम हो जाती है, इसलिए यह अशुद्ध रक्त उसमें से (दाहिने ग्राहक कोष्ठ में से) निकल कर दाँये क्षेपक कोष्ठ में त्रिक-कपाट (Tricuspid Valve) द्वारा जाता है। ये कपाट स्वस्थावस्था में सदा नीचे की खुला करते हैं। जब रक्त क्षेपक कोष्ठ में आता है तो इसके कपाट ऊपर को उठकर बन्द होने लगते हैं और जब यह कोष्ठ सिकुड़ने लगता है तो वे अच्छी तरह बन्द हो जाते हैं। किवाड़ के बन्द हो जाने से रक्त दाँये ग्राहक कोष्ठ में दुबारा लौटकर नहीं जा सकता। अब दाहिने क्षेपक कोष्ठ से यह अशुद्ध रक्त शुद्ध होने के लिए दाहिने और बाँये फुफ्फुस में फुफ्फुसीया धमनी (Pulmonary Artery) द्वारा दोनों फुफ्फुसों में प्रवेश करता है।
फुफ्फुस रक्त-शोधक यन्त्र है। अशुद्ध रक्त फेफड़ों से शुद्ध होने के बाद (ऑक्सीजन ग्रहण करने के पश्चात्) यह शुद्ध रक्त चार नलियों द्वारा बाँये ग्राहक कोष्ठ में लौट आता है। रक्त से भर जाने पर यह बाँया ग्राहक कोष्ठ सिकुड़ने लगता है और रक्त उसमें से निकलकर द्विक-कपाट (Bicuspid) द्वारा बाँये क्षेपक कोष्ठ में जाता है। द्विक-कपाट भी त्रिक-कपाट (Tricuspid) के समान नीरोगावस्था में सदा नीचे की ओर ही खुला रहता है।
बाँये क्षेपक कोष्ठ में रक्त आने पर इसके कपाट ऊपर उठकर बन्द होने लगते हैं और जब यह सिकुड़ता है तो वे अच्छी तरह बन्द हो जाते हैं, जिससे रक्त लौटकर बाँये ग्राहक कोष्ठ में वापिस नहीं जा सकता। बाँये क्षेपक कोष्ठ की दीवारें मोटी होती हैं क्योंकि इसको हृदय के अन्य अंगों की अपेक्षा, अधिक काम करना पड़ता है।
जब बाँये क्षेपक की दीवारें सिकुड़ती हैं तो प्रेशर के कारण शुद्ध रक्त महाधमनी (Aorta) में जाता है। इस महाधमनी की अनेक शाखायें फूटी हुई हैं जिनके द्वारा रक्त सारे शरीर में संचार (Circulate) करने लगता है। इसी क्रिया को ‘हृदय का रक्त संचार’ (Blood Circulation) कहा जाता है। इस प्रकार नियमित रूप से निरन्तर शरीर में रक्त का संचार होता रहता है। सांस्थनिक रक्तपरिभ्रमण वाम निलय से प्रारम्भ होकर दक्षिण अलिन्द में समाप्त हो जाता है। हृदय के अर्द्ध दक्षिण भाग में शिरागत रक्त और अर्द्ध वाम भाग में धमनीगत रक्त होता है। हृदय के संकोच को सिस्टोल (Systole) और विकास को (डाइस्टोल ) कहते हैं। हिन्दी में क्रमश: प्रकुंचन और अनुशिथिलन नाम हैं।