लक्षण तथा मुख्य-रोग | लक्षणों में कमी |
पुराने जुकाम में जब नाक खाली होने से तकलीफ हो | गर्मी से रोग में कमी |
भिन्न-भिन्न अंगों में ठंडक लगना | श्लेष्मा निकलने से रोग में कमी |
घी, मांस, नमक से अरुचि, पनीर से विशेष रुचि | लक्षणों में वृद्धि |
शीत से रोग-वृद्धि तथा गर्मी से आराम | ठंडी हवा से रोग में वृद्धि |
कण्ठमालाग्रस्त धातु ( Scrofulous Diathesis ) | मानसिक-उत्तेजना से रोग–वृद्धि |
अंगुलियों का एक्जिमा | शाम को रोग का बढ़ जाना |
(1) पुराने जुकाम में जब नाक खाली होने से तकलीफ हो – सिस्टस औषधि नये जुकाम में उतनी लाभप्रद नहीं है जितनी पुराने जुकाम में, परन्तु नये जुकाम में भी अगर लक्षण मिलें तो लाभ करती है। जुकाम में जब नाक गाढ़े, पीले श्लेष्मा से भर जाती है और जब इसे बाहर निकाल दिया जाता है, तब कभी-कभी नाक के खाली होने पर उसमें चिरमिराहट होने लगती है। रोगी कहते हैं कि नाक खाली होने पर चिरमिराहट होती है, कई कहते हैं नाक में ठंड लगने लगती है, कई कहते हैं कि हल्के अध-पके फोड़े का-सा दर्द होने लगता है, कई कहते हैं कि जलन होने लगती है। जब नाक फिर श्लेष्मा से भर जाती है तब आराम पड़ता है। आर्सेनिक, ऐन्टिम क्रूड तथा एस्क्यूलस में नाक भरी होने पर उसमें जलन होती है, सिस्टस में नाक खाली होने पर उसमें जलन होने लगती है या कष्ट बढ़ता है। खाली नाक में जब रोगी साँस लेता है तो उसे कष्ट होता है। रोगी को यह कष्ट ठंडी हवा के सांस लेने से होता है, वह गर्म हवा लेना चाहता है।
(2) भिन्न-भिन्न अंगों में ठंड अनुभाव होना – रोगी भिन्न-भिन्न स्थानों में ठंड अनुभव करता है। ठंड इस औषधि का मुख्य-लक्षण है। मस्तिष्क में ठंड का अनुभव, जीभ में, गले में, श्वास-नलिका में सांस ठंडा अनुभव हो, पेट में, छाती में, अंगुलियों में, पैरों में – शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों में ठंड के अनुभव करने पर इस औषधि को ध्यान में रखना चाहिये।
(3) घी, मांस, नमक से अरुचि परन्तु पनीर से विशेष रुचि – पुराने जुकाम में अगर पनीर के लिये रोगी में बेहद इच्छा हो, तो यह औषधि चमत्कारी प्रभाव करती है रोगी को घी, मांस तथा नमक के लिये रुचि नहीं होती। डॉ० टायलर ने एक लड़की का उल्लेख किया है जिसे सदा जुकाम सताया करता था। उसे पनीर खाने की प्रबल इच्छा रहती थी। सिस्टस 6 की मात्रा दिन में 3 बार देने से कुछ दिन में ही उसका रोग ठीक हो गया। अगर औषधि का निर्वाचन बिल्कुल ठीक हुआ है, तो वह हर शक्ति में अपना अमिट प्रभाव दिखलाती है।
(4) शीत से रोग-वृद्धि तथा ऊष्णता से आराम – जैसा हम अभी लिख चुके हैं, रोगी को शीत में अत्यन्त कष्ट होता है, उसे गर्मी से आराम मिलता है। नाक की सर्दी में वह स्टोव के पास जाकर गर्म हवा अन्दर लेना चाहता है। रोगी को छूआ जाय, तो त्वचा इतनी ठंडी नहीं महसूस होती जितना वह भीतर से ठंडक अनुभव किया करता है।
(5) कण्ठमालाग्रस्त-धातु का रोगी – कण्ठमालाग्रस्त-धातु का शरीर कैलकेरिया कार्ब की तरह सिस्टस में भी पाया जाता है। शरीर की गिल्टियां दोनों औषधियों में बढ़ जाती हैं। दोनों को सर्दी सताती है। दोनों में क्षय-रोग की संभावना होती है। दोनों में परिश्रम से थकान हो जाती है, सांस भारी आने लगता है, पसीना आदि सब दोनों औषधियों में एक से हैं। कंठमाला-ग्रस्त रोगी के लिये औषधि का निर्वाचन करते हुए इन दोनों औषधियों को ध्यान में रखना चाहिये। डॉ० कैन्ट एक रोगी का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उसके उक्त लक्षणों में कैलकेरिया ठीक नहीं बैठता था, सिस्टस ने उसे ठीक कर दिया।
(6) अंगुलियों का एक्जिमा – सर्दी से हाथ की अंगुलियाँ फट जाती हैं, ठंडे पानी से हाथ धोने से अंगुलियों में छिलकेदार जख्म हो जाते हैं, खून तक निकलने लगता है। इन शिकायतों में सिस्टस 30 औषधि से लाभ होता है।
(7) शक्ति तथा प्रकृति – यह औषधि दीर्घ-क्रिया करने वाली है। सोरा दोष से दूषित, कंठमालाग्रस्त-धातु से शरीर में लाभप्रद है। शक्ति 30, 200 (औषधि ‘सर्द’ (Chilly-प्रकृति के लिये है)