(1) हूपिंग-कफ़ ( चिपचिपा लसदार ) बलगम जो डोरे की तरह लम्बा खिंच जाय – Coccus औषधि हूपिंग-कफ़ में काम आती है। श्वास-नलिका (Larynx) में खुरखुराहट होती है। रोगी इस खुरखुराहट से 2.30 बजे जाग उठता है। बहुत अधिक मात्रा में चिपचिपा, लसदार बलगम जो डोरी की तरह लम्बा खिंच जाय, निकलता है। खांसते-खांसते उल्टी तक हो जाती है। बहुधा चिकित्सक गाढ़ा, डोरे-सरीखा, लसदार बलगम देखकर कैलि बाईक्रोम दिया करते हैं, परन्तु इस प्रकार के बलगम में Coccus कम नहीं है। कैलि बाईक्रोम का बलगम पीला होता है, ऐलब्यूमिन की तरह साफ नहीं होता, इस औषधि का बलगम साफ होता है, ऐलब्यूमिन की तरह का लम्बा तार दोनों में खिंचता है।
(हूपिंग-कफ़ की मुख्य-मुख्य औषधियां)
( balgam wali khansi ka ilaj )
हूप-खांसी एक संक्रामक, फैलनेवाली खांसी है जिसमें रोगी ऐंठ जाता है। इसमें निम्न औषधियां लाभप्रद है।
(i) Coccus Cacti – रात अढ़ाई बजे या सवेरे इसका कष्टप्रद समय है। दूसरे समय भी दौरा पड़ सकता है, परन्तु दौर पड़ने का अधिकतर यह समय है। खांसी में मुख से डोरे-सरीखे तार निकलते हैं। इसके बलगम का रंग ऐलब्यूमिन जैसा साफ होता है।
(ii) इपिकाक – हूपिंग-कफ की प्रथम अवस्था में जब बलगम उपस्थित नहीं होता, दौर पड़ने से पहले गले में ‘संकोच’ (Spasm) पड़ता है, खांसी के समय बच्चा ऐंठ और अकड़ जाता है, नाक तथा मुंह से खून निकलता है और उल्टी आ जाती है, ऐसे क्रूप में इपिकाक उत्तम औषधि है।
(iii) ऐन्टिम टार्ट – जब छाती में बलगम इकट्ठा होकर छाती और गले में घड़घड़ शब्द करने लगता है, और रोगी खांसी का दौर समाप्त होने के बाद निंदासा हो जाता है, तब ऐन्टिम टार्ट उपयोगी है।
(iv) क्यूप्रम – उस हूपिंग-कफ में जब केवल गले में ही संकोच (Spasm) नहीं पड़ता, परन्तु जब सारा शरीर ऐंठ जाता है। दौर पड़ने में बच्चा अचेत हो जाता है, सांस भी रुक-सा जाता है।
(v) Drosera – मध्य-रात्रि के बाद दौरा शिखर पर पहुंच जाता है, गले की घुटन और उल्टी प्रमुख रूप धारण कर लेती है।
(vi) हायोसाइमस – कफ़ इतनी जोर का नहीं होता परन्तु लगातार होता रहता है। लेटने पर खांसी चलती रहती है, उठ कर बैठ जाने से खांसी रुक जाती है। यह खांसी प्राय: गले की काक-जिहवा (Uvula) के सूजने तथा उसके श्वास-नलिका को स्पर्श करने से उठा करती है।
(vii) सल्फर – हूपिंग-कफ़ के दो दौर एक-दूसरे के बाद एक-साथ पड़ते हैं, उसके बाद रोगी को कुछ देर आराम रहता है।
(2) रक्त के मोटे थक्के जरायु का मार्ग अवरुद्ध रखते हैं – जरायु में रक्त के मोटे-मोटे थक्के भरे होते हैं, जो निकलने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रयत्न में रोगी को प्रजनन का-सा कष्ट, दर्द होता है। जब वे एक बार निकल जाते हैं तब फिर बनने लगते हैं। इन थक्कों के बनने-निकलने के कारण रोगी को पेशाब जाने की हाजत बनी रहती है परन्तु पेशाब उतरता नहीं है। Coccus Cacti 30 से इन लक्षणों में लाभ होता है।
(3) रोगी शीत-प्रधान होता है, परन्तु ठंड के कारण जुकाम आदि लग जाने का ठंड को ही पसन्द करता है – रोगी शीत-प्रधान होता है और ठंड लगने से ही उसे रोग आ घेरता है, परन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि रोगी के स्वभाव और उसके रोग के स्वभाव में भेद भी हो सकता है। दोने परस्पर विरुद्ध-स्वभाव के भी हो सकते है। Coccus Cacti का रोगी, जो स्वयं शीत-प्रधान है क्योंकि ठंड लगने से उसे रोग आसानी से पकड़ लेता है, वह ठंड लगने से जुकाम आदि हो जाने के बाद गर्म कमरे में रहना पसन्द नहीं करता, उसे ठंडी हवा ही पसन्द होती है। यह पस्पर-विरुद्ध बात लगती है, परन्तु इन विरोधों को ध्यान में रखना चिकित्सक का कर्तव्य है। अगर इस रोगी को ठंड लगने से खांसी हो गई, तो यद्यपि रोगी शीत-प्रकृति का है, तब भी उसकी खांसी गर्म कमरे में, गर्म बिस्तर में, गर्म चाय आदि पीने से बढ़ जाती है। अगर वह ठंडी वस्तुएं खाये-पीये, ठंडे कमरे में रहे, तो उसे आराम मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जब एक बार रोग प्रारंभ हो गया तब वह उल्टे कदम चलने लगता है, हुआ तो ठंड लगकर लेकिन आराम भी अब उसे ठंड से ही प्रतीत होता है।
(4) ठंड से लाभ और ठंड से हानि ( इन दोनों विरोधी गुणों का समाधान ) – ऊपर हमने जो कुछ लिखा उससे एक समस्या पैदा हो गई। समस्या यह है कि यह कैसे हो सकता है कि किसी रोग में ठंड से लाभ हो, ठंड से हानि भी हो? डॉ० कैन्ट लिखते हैं कि उन्होंने अनेक औषधियों को ‘ठंड से लाभ’ ( Better by cold ) और ‘ ठंड से हानि’ ( Worse by cold ) इन दोनों शीर्षकों में दिया है और चिकित्सक लोग उनसे पूछा करते हैं कि यह परस्पर-विरुद्ध बात कैसे हो सकती है। इसका उत्तर देते हुए उन्होंने लिखा है कि अनेक होम्योपैथिक औषधियों में यह विल्क्षणता पायी जाती है कि रोगी स्वयं किसी एक प्रकृति का होता है परन्तु उसके अंग रोगी की प्रकृति से उल्टी प्रकृति के होते हैं। उदाहरणार्थ, फॉसफोरस शीत-प्रकृति का रोगी है, परन्तु उसका पेट तथा सिर ऊष्ण-प्रकृति के होते हैं इसलिये फॉसफोरस का रोगी सारे शरीर में तो सर्दी अनुभव करता है, कपड़ा लपेटे रहता है, परन्तु पेट में वह बर्फ का-सा ठंडा पानी पीना चाहता है, सिर पर ठंडी हवा पसन्द करता है। इस दृष्टि से.जब हम कहते हैं कि फॉसफोरस शीत-प्रधान है, तब हमारा अभिप्राय यह होता है कि इसका रोगी छाती पर ठंड बर्दाश्त नहीं कर सकता, शरीर को कपड़े से ढांप कर रखना चाहता है; और जब हम कहते हैं कि वह ऊष्ण प्रधान है तब हमारा अभिप्राय यह होता है कि पेट में तथा सिर पर वह गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकता, उन्हें वह ठंडा रखना चाहता है। इसी दृष्टि से Coccus Cacti का रोगी शीत-प्रधान होता है, परन्तु खांसी-जुकाम हो जाने पर ठंड को ही पसन्द करता है।
(5) शक्ति तथा प्रकृति – 3, 6, 30 (औषधि ‘सर्द’-प्रकृति के लिये है, परन्तु खांसी-जुकाम में उसे शीत ही पसन्द है)