(1) रसोई की गन्ध से उबकाई आने लगती है – कोलचिकम औषधि का सबसे मुख्य-लक्षण यह है कि रोगी भोजन की गंध को, खासकर मछली, अंडे, चर्बी मिले मांस आदि पकने की गंध को बिल्कुल ही बर्दाश्त नहीं कर सकता, गंध आने से ही उसे उबकाई आने लगती है, जी मिचलाने लगता है। गंध के प्रति उसकी इतनी असहनशीलता होता है कि जो गंध दूसरों को प्रतीत भी नहीं होता वह उसे परेशान कर देता है। रसोईघर कितनी ही दूर क्यों न हो, उसे गंध आ ही जाती है। गंध से उसकी परेशानी को देखकर घर के लोग रसोई के दरवाजे बन्द किये रखते हैं। रसोई की गंध से उबकाई आना – इस औषधि का चरित्रगत-लक्षण है। कोई भी रोग क्यों न हो-गर्भावस्था हो, बुखार हो, पेचिश हो, गठिया हो, दस्त आते हों, अगर रोगी को भोजन की महक से उबकाई आती हो, तो कोलचिकम लाभ करेगा। इस प्रकारण में डॉ० नैश का अनुभव देना प्रकरण-संगत होगा। एक 75 वर्ष की स्त्री को यकायक पेट की शिकायत हो गई, बड़ी मात्रा में पेट से खून की उल्टियां आने लगी, उसके बाद खून के दस्त आने लगे। खून के निकालने की सब दवाइयां उन्होंने दे डालीं – एकोनाइट, मर्क्यूरियस, नक्स वोमिका, इपिकाक, हैमेमेलिस, सल्फर – परन्तु किसी से कुछ लाभ न हुआ। वह स्त्री पकते भोजन की गन्ध को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। रसोई-घर उसके स्थान से तीन कमरे दूर पर रखी गई थी क्योंकि उसके गन्ध से उसे उबकाई आती थी। अन्त में, इस लक्षण पर डॉ० नैश ने उसे कोलचिकम 200 की मात्रा हर दस्त आने के बाद देना शुरू किया और वह स्त्री भली-चंगी हो गई।
(2) पेट के अफारे में यह जानवरों को भी ठीक कर देती है – पेट के अफारे में यह सबसे उत्तम है। डॉ० कैन्ट लिखते हैं कि आदमियों के ही क्या, जानवरों को जब पेट का अफारा हो जाता है और मालूम पड़ता है कि अब इसका पेट फट जायगा, ढोल की तरह फूल जाता है, तब कोलचिकम से गाय, घोड़े तक का अफारा दूर हो जाता है, आदमी का तो कहना ही क्या है? डॉ० फिशर लिखते हैं कि 1870 में उन्होंने डॉ० हेरिंग का एक व्याख्यान सुना जिसमें उन्होंने कहा कि अगर जानवर का किसी प्रकार के घास के खाने से पेट फूल जाय, तो कोलचिकम देने से तुरंत लाभ होगा। यह सुनकर डॉ० फिशर ने अपने एक किसान भाई को कोलचिकम 3x की दो ड्राम की एक शीशी भेज दी और लिखा कि जानवर के पेट फूलने की हालत में यह दवा दे देना। इस दवा के मिलने के बाद इस किसान भाई के अपने जानवर ही ठीक नहीं होने लगे, आस-पास के किसान भी इस दवा को माँगने लगे, और उससे उनके जानवर भी ठीक होने लगे।
(3) पेट में जलन के साथ बर्फ़ जैसी ठंडक महसूस होना – इस औषधि में दो लक्षण एक-दूसरे से विरुद्ध पाये जाते हैं। एक तरफ तो पेट में तेज़ जलन होती है, और दूसरी तरफ पेट में बर्फ के सामने ठंडक की अनुभूति होती है। ‘अजीर्ण-रोग’ में जब रोगी को पेट में जलन होती हो, या ठंडक महसूस होती हो, या दोनों-जलन और ठंडक एक साथ-दोनों महसूस होते हैं, तब कार्बो बेज, चायना और लाइको की अपेक्षा कोलचिकम औषधि से शीघ्र लाभ होता है। अगर इन लक्षणों के साथ पेट में अफारा पड़ गया हो, पेट ढोल की तरह तम्बूरा बन गया हो, तब यही औषधि उपयुक्त रहती है।
(4) पेचिश (डिसेन्ट्री) में ऐसी ऐंठन मानो आंतों से झिल्ली खुरच कर निकल रही हो – पेचिश में मल सफेद होता है या उसमें खून मिला हुआ होता है। देखने से ऐसा लगता है मानो आंतों में से खंड-खंड झिल्ली खुरच कर निकाली गई है। इस मल में मरोड़, ऐंठन होती है। खुरचने सा अनुभव में दर्द तो होता ही है। ये सब लक्षण कैन्थरिस तथा कोलोसिन्थ में भी पाये जाते हैं, परन्तु इनमें भेद यह है कि कैन्थरिस में पेशाब की जलन का लक्षण भी मिला रहता है, और कोलोसिन्थ में रोगी पेट के दर्द के मारे दोहरा हुआ जाता है। अगर पेचिश में पेट फूलने का लक्षण भी साथ मिला हो, तो मर्क्यूरियस की अपेक्षा कोलचिकम अधिक उपयुक्त रहती है।
(5) गठिये का एक जोड़ से दूसरे जोड़ में फिरना – ऐलोपैथी में गठिये के लिये यह औषधि महामंत्र है। होम्योपैथी में ‘गठिया-धातु’ के व्यक्ति के लिये इस औषधि का प्रयोग होता है, परन्तु शक्तिकृत औषधि का ही प्रयोग होता है। गठिये में इसके लक्षण हैं : गठिये का दर्द एक जोड़ से दूसरे जोड़ को चला जाता है, एक तरफ से दूसरी तरफ चला जाता है, नीचे से ऊपर या ऊपर से नीचे चला जाता है, इस गठिये के साथ सूजन भी हो सकती है, बिना सूजन भी रोग हो सकता है, कभी यहां, कभी वहां। लीडम भी गठिये की दवा है, परन्तु कोलचिकम और लीडम में भेद है।
कोलचिकम तथा लीडम की गठिये में तुलना – कोलचिकम औषधि में गठिये के रोगी को गर्मी से आराम मिलता है, लीडम में यद्यपि रोगी अपनी प्रकृति से शीत-प्रधान होता है, तो भी उसके गठिये के रोग को ठंड से आराम मिलता है।
(6) भिन्न-भिन्न अंगों में शोथ तथा जल-संचय – शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में जल-संचय इस औषधि की खासियत है। अगर हाथ-पैर में शोथ होती है, तो अंगुली से दबाने पर गढ़े पड़ जाते हैं। पेट में जल-संचय हो जाता है, जलोदर; जहां-जहां आन्तरिक-आवरणों में जल-संचय हो सकता है, वहां-वहां जल-संचय के कारण शोथ हो जाता है। जो शोथ गठिया-धातु के हों, गठिया हो और शोथ हो, वहां एपिस और आर्सेनिक से लाभ न होने पर कोलचिकम से लाभ होता जाता है।
(7) ठंड तथा हरकत से रोग में वृद्धि – इसका रोगी शीत-प्रधान होता है, ठंडी नम हवा से रोग बढ़ जाता है, वर्षा से बढ़ जाता है। बहुत अधिक गर्मी से भी रोग बढ़ता है। इस औषधि में गर्मी का गठिया भी होता है। हरकत से रोग में वृद्धि होती है। कोलचिकम इस अवस्था को ठीक कर देता है।
कोलचिकम औषधि के अन्य लक्षण
(i) दु:ख, शोक और दूसरों के कुकर्मों को देखकर रोगी को जो दु:ख होता है उससे उत्पन्न रोगों में यह हितकार है।
(ii) इसका रोगी गठिया-धातु का होता है; प्रायः शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है; इसके लक्षण प्रायः वृद्ध-पुरुषों में पाये जाते हैं।
(8) शक्ति तथा प्रकृति – 3, 6, 30, 200 (औषधि ‘सर्द’-प्रकृति के लिये है)