[ ताजी सोर या जड़ से मूल-अर्क तैयार होता है ] – एलोपैथ और होमियोपैथ दोनों ही मत के चिकित्सक कृमि के लिए और खासकर फीता-कृमि ( tape-worms ) के लिए इसका अधिक प्रयोग करते हैं। कृमि के दिवा – कब्ज, अफरा, कृमि-शूल, पेट में खोंचा मारने-जैसा दर्द, अतिसार, वमन, नाक खुजलाना, बिना तकलीफ की हिचकी इत्यादि में भी इसका उपयोग होता है।
कृमि – कृमि-शूल ( worm colic ) के साथ नाक में खुजली होती है, चेहरे का रंग पीला पड़ जाता है और आँखों के चारों तरफ नीले धब्बे हो जाते हैं। हिचकियां आती हैं। पेट फूला हुआ, बुडका भर दिए जाने जैसा दर्द होता है, ये दर्द मीठी चीजें खाने से अधिक होता है। अतिसार व वमन। आंखों में एक नेत्री मन्द दृष्टिता ( monocular amblyopia ) तथा अंधापन।
सम्बन्ध – सिना, कूसो।
मात्रा – पहली से तीसरी शक्ति तक।