लक्षण तथा मुख्य-रोग | लक्षणों में कमी |
सोरा, सिफिलिस तथा गोनोरिया – तीनों दोषों की संशोधक है। | ठंडे पानी के स्नान से, खुली हवा में रोग में कमी |
ऊष्णता, जलन और गर्मी प्रधान है, ठंडक से आराम होता है। | हरकत से रोग में कमी |
नाखून, बाल, त्वचा, हड्डी का क्षय | थोड़ी-सी नींद लेने से रोग में कमी |
भगन्दर, नासूर (Fistula) तथा शिराओं के फूलने में उपयोगी है। | लक्षणों में वृद्धि |
पेशाब से सिर-दर्द कम हो जाना | गर्मी से रोग में वृद्धि |
दुर्व्यसनों, व्यभिचार आदि से स्नायु-मंडल के रोग | रात को रोग में वृद्धि |
अत्यधिक मानसिक-परिश्रम से स्नायु-मंडल के रोग | खट्टे फलों से रोग में वृद्धि |
पल्सेटिला, साइलीशिया तथा फ्लोरिक ऐसिड की त्रिक-श्रृंखला है | गर्म चाय, गर्म काफी से रोग में वृद्धि |
(1) सोरा, सिफिलिस तथा गोनोरिया दोष संशोधक है – इस औषधि का गहरा प्रभाव है। यह सोरा, सिफिलिस और गोनोरिया – इन तीनों ‘धातुओं’ (Miasms) के दोषों का संशोधन करती है। इसके रोग शरीर पर धीरे-धीरे परन्तु गहराई में प्रवेश करके असर करते हैं, इसलिए इस औषधि का प्रभाव भी धीरे-धीरे होता है, परन्तु पूरी गहराई में यह प्रविष्ट होकर रोग का जड़ से उन्मूलन कर देती है।
(2) ऊष्णता, जलन और गर्मी प्रधान है, ठंडक से आराम होता है – यह ऐसिड हाईड्रोजन और क्लोरीन से मिल कर बना है, और इतना तेज होता है कि शीशे को भी खा जाता है। इसे रबर की बोतलों में रखा जाता है क्योंकि इसकी तेजाबी-प्रभाव से शीशे की बोतल भी नहीं बचती। इसी से स्पष्ट है कि यह औषधि कितनी ऊष्णता-प्रधान होनी चाहिए। इसके लक्षणों में यद्यपि शरीर का तापमान नहीं बढ़ता, तो भी सायंकाल या रात को शरीर से प्रबल ताप निकलता है। त्वचा एकदम गर्म हो जाती है। रोगी गर्मी को सहन नहीं कर सकता। गर्म वस्तुओं से, शरीर पर वस्त्र ढकने से, गर्म हवा से उसका रोग बढ़ जाता है, पल्सेटिला की तरह गर्म कमरे में उसका दम घुटता है। वह सिर तथा मुख को ठंडे पानी से धोया करता है, ठंडे पानी से इस प्रकार शरीर को धोने से उसे आनन्द मिलता है। रात को बिस्तर पर उसके पांव जलते हैं, बिस्तर में वह ऐसी ठंडी जगह की खोज में रहता है जहाँ अपने जलते हुए हाथ-पैर को रख सके, खुली हवा से उसे आराम मिलता है। हाथों में, पैरों के तलुओं में पसीना आता है, पसीना भी जलन पैदा करता है, उससे पांव में घाव पैदा हो जाते हैं, अंगुलियों के बीच में इस पसीने से घाव हो जाते हैं। इसके लक्षणों का मुख्य सूत्र है: जल, गर्मी, चरपराहट। आंखों से, नाक से चरपराहट का जलन-वाला पानी निकलता है, पसीना भी ऐसा ही होता है, बाहर की गर्मी से परेशानी और अन्दर से गर्मी का उभरना इस औषधि का चरित्रगत-लक्षण है। गर्म चाय, गर्म कॉफी, गर्म पदार्थ पीने से दस्त आ जाते हैं। ‘रोगी को ठंडक से आराम मिलना और गर्मी से उसकी तकलीफों का बढ़ जाना’ – यह इस औषधि का इतना गहरा लक्षण है कि अन्य लक्षणों में कितनी ही समानता क्यों न रहे, हाथ, पांव, नाक, कान आदि के सब लक्षणों के मिल जाने पर भी अगर यह व्यापक-लक्षण न मिले, अर्थात् अगर रोगी गर्मी में आराम महसूस करे, तो फ्लोरिक एसिड कदापि उस रोगी की औषधि नहीं है, उस हालत में साइलीशिया को ध्यान में रखना होगा क्योंकि इन दोनों के लक्षण बहुत कुछ समान हैं, ‘प्रकृति’ (Modality) में भेद है; फ्लोरिक ऐसिड ‘ऊष्णता-प्रधान’ या ‘गर्म’ (Warm blooded) है, साइलीशिया ‘शीत-प्रधान’ या ‘सर्द’ है।
(3) नाखून, बाल, त्वचा, हड्डी के क्षय में उपयोगी है – स्वस्थ-व्यक्तियों पर ‘परीक्षाओं (Provings) से देखा गया है कि यह औषधि इतनी गहरी क्रिया करती है कि नाखून, बाल, त्वचा हड्डी – इन सबको विकृत कर देती है। इसीलिये रोग की इन विकृतियों को यह ठीक भी कर देती है।
नाखून – नाखून टेढ़े-मेढ़े उगने लगते हैं, नाखून बहुत जल्दी बढ़ते हैं, भद्दे होते हैं और टूट जाते हैं, कहीं से बहुत मोटे और कहीं से बहुत पतले होते हैं।
बाल – बाल झड़ने लगते हैं, उनमें चमक नहीं रहती, चांद गंजी हो जाती है। बाल जहां-जहां उगते हैं उनके मार्ग में फोडे-फुन्सी-जख्म हो जाते हैं। शरीर में जमह-जगह दाग पड़ जाते हैं।
त्वचा – त्वचा पर इधर-उधर पपड़ी जम जाती है जो ठीक नहीं हो पाती।
हड्डी का क्षय – हड्डी का केरीज तथा नेक्रोसिस हो जाता है। हड्डी पर इस औषधि का विशेष प्रभाव है। इसका प्रभाव खासकर लम्बी हड्डियों के और कान की हड्डी के नेक्रोसिस पर विशेष पड़ता है। इन हड्डियों के नेक्रोसिस-क्षय को यह दूर करता है। चेहरे की हड्डी के अस्वाभाविक तौर पर बढ़ जाने पर इससे लाभ होता है।
(4) भगन्दर, नासूर (Fistula) तथा शिराओं के फूलने में उपयोगी है – भगन्दर, दांतों का नासूर, आंख का नासूर तथा शिराओं के फूलने की यह उत्तम औषधि है। परन्तु इसका निर्वाचन करते हुए इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि रोगी ऊष्ण-प्रकृति का हो, शीत-प्रकृति का न हो। शीत-प्रकृति का होने पर साइलीशिया को ध्यान में रखना होगा।
(5) पेशाब से सिर-दर्द कम हो जाना – सिर-दर्द में इसका एक ‘विशेष लक्षण’ यह है कि सिर-दर्द तब तक बढ़ता जाता है जब तक पेशाब नहीं होता। दूसरे शब्दों में, जब पेशाब खुल कर आता है तब सिर-दर्द में कमी हो जाती है।
(6) दुर्व्यसनों, व्यभिचार आदि से स्नायु-मंडल के रोग; परिवार से उपरामता – जिन लोगों ने अपने स्नायु-मंडल को हस्त-मैथुन या व्यभिचार आदि दुर्व्यसनों से विकृत कर दिया है, उनके स्नायु-मंडल की विकृति को यह दूर करता है। ऐसे लोगों के लिये यह विशेष उपयुक्त है जो अनेक स्त्रियों से सहवास के आदी हैं, प्रेमिकाओं के परिवर्तन के अभ्यासी हैं, एक स्त्री से सन्तुष्ट नहीं रह सकते, व्यभिचार में डूब जाते हैं, अपनी पत्नी के प्रति परायणता नहीं रख सकते। ऐसे व्यक्ति शहर की गली के कोने पर खड़े होकर निर्दोष सुन्दरियों को कामुकता की दृष्टि से देखा करते हैं। अन्त में, उनकी मानसिक अवस्था शोचनीय हो जाती है। मानसिक अवसाद, निराशा उन्हें आ घेरती है और जीवन के प्रति वे उदास रहने लगते हैं। इन लोगों को अपने परिवार के लोगों से, अपने बीबी-बच्चों से प्रेम नहीं रहता, उनके प्रति वे उपराम हो जाते हैं। यह उपरामता की अवस्था उन लोगों में भी आ जाती है जो घर में बीबी-बच्चों के साथ रहते हैं, परन्तु उनमें अपने बीबी-बच्चों के प्रति प्रेम की भावना नहीं रहती, वे घर छोड़कर अन्यत्र जाना चाहते हैं। स्वस्थ व्यक्ति के लिए यह स्वाभाविक है कि वह अपने बीवी-बच्चों के साथ रहने में खुश रहे, परन्तु घर रहते हुए, निकट के सम्बन्धियों में रहते हुए उनसे विरक्त हो जाना मन की अस्वाभाविक-अवस्था को सूचित करता है। यह जरूरी नहीं कि यह अवस्था व्यभिचार से ही उत्पन्न हो, शारीरिक-रोग आदि से, या अन्य कारणों से भी ऐसी उपरामता आ सकती है। रोगिणी कहती है : ‘डाक्टर, समझ नहीं आता मुझे क्या हो गया है, मुझे अपने पति, अपने बच्चों, अपने सगे-सम्बन्धियों के प्रति पहले जैसा प्रेम नहीं रहा। ‘व्यभिचार आदि दुर्व्यसनों से, या किसी प्रकार के शारीरिक-रोग से अगर सगे-सम्बंधियों के प्रति मन की ऐसी उपरामता, वैराग्य की अवस्था उत्पन्न हो जाय, तो पिकरिक एसिड, सीपिया और फ्लोरिक एसिड ही उपयुक्त दवाएं है। स्त्रियों में यह मानसिक-अवस्था प्राय: गर्भाशय की विकृति के कारण होती है, इसलिये उनके लिये सीपिया, तथा पुरुषों के लिये फ्लोरिक एसिड अधिक उपयुक्त है।
(7) अत्यधिक मानसिक-परिश्रम से स्नायु-मंडल के रोग – दुर्व्यसनों, व्यभिचारों आदि से मन की जो विकृति उत्पन्न हो जाती है उसका कारण भी मानसिक-शक्ति का अत्यधिक व्यय है, और मानसिक-शक्ति का यह अत्यधिक व्यय अगर अन्य किसी दिशा में हो, तब भी मन की वैसी ही दशा हो जाती है। उदाहरणार्थ, जो लोग दिन-रात अपने व्यापार-धंधों के सोच विचार में लगे रहते हैं, व्यापार को बढ़ाने-चढ़ाने में मस्तिष्क का शक्ति से अधिक उपयोग करते हैं, जिनका मन मानसिक कार्य करते-करते थक जाता है, फिर भले ही यह अवस्था दुर्व्यसनों से हो या मानसिक-कार्य की अधिकता से हो, वे उदास रहने लगते हैं, चुप बैठे रहते हैं, कुछ बोलते-चालते नहीं, काम-धंधा छोड़ बैठते हैं, न किसी के प्रश्न का उत्तर देते हैं – ऐसे लोगों के लिये फ्लोरिक एसिड उपयुक्त दवा है। ये लक्षण पल्सेटिला में भी है।
(8) शक्ति तथा प्रकृति – 6, 30 (यह औषधि शराबियों को जलंधर)- रोग में आर्स के बाद, कुल्हे के रोग में कैलि कार्ब के बाद, दांतों की असाधारण अनुभूति-Sensitiveness – में कॉफिया और स्टैफिसैग्रिया के बाद, बहुमूत्र रोग में ऐसिड फॉस के बाद, हड्डियों के क्षय के रोग में साइलीशिया और सिम्फाइटम के बाद, घेंघा – में स्पंजिया के बाद अच्छा काम करती है। औषधि ‘गर्म’-प्रकृति के लिये है।