विवरण – रज:स्राव की गड़बड़ी के कारण तलपेट तथा कमर में जो एक प्रकार का कष्टदायक दर्द होता है, उसे ‘ऋतुशूल’ ‘कष्ट रज:’ ‘रज: कृच्छता’ अथवा ‘बाधक-वेदना’ के नामों से पुकारा जाता है।
यह रोग जरायु की स्थान-च्युति, अति-मैथुन, जरायु में रक्त-संचय, जरायुप्रदाह एवं श्वेत-प्रदर आदि कारणों से उत्पन्न होता है । वात, हिस्टीरिया अथवा स्नायु-शूल वाली स्त्रियों को यह कष्ट अधिक होता है । इस रोग में बाँयें डिम्बाशय में तीव्र-वेदना के साथ अल्प रजःस्राव, ऋतुकाल के समय तलपेट, मेरुदण्ड, कमर अथवा सम्पूर्ण शरीर में तीव्र-दर्द, सिर-दर्द, सिर में चक्कर आना, मितली, वमन, अग्निमान्द्य, कमजोरी तथा आलस्य आदि उपसर्ग दिखाई देते हैं ।
इस रोग में लक्षणानुसार निम्नलिखित औषधियाँ लाभकर सिद्ध होती हैं :-
काक्युलस 3, 6, 30 – डॉ० ज्हार के मतानुसार यदि ऋतुस्राव थोड़ा हो, डॉ० क्लार्क के मतानुसार यदि ऋतुशूल के साथ सिर चकराता हो तथा डॉ० फैरिंगटन के मतानुसार ऋतु-स्राव के समय यदि पेट में पत्थरों की आपसी रगड़ जैसी अनुभूति हो, पेट बेहद फूल गया हो, पेट में हवा भर गई हो, ऋतुशूल के दर्द के कारण रुग्णा रात में सोते से जाग जाती हो तथा डकार आने पर दर्द कम हो जाता हो, परन्तु पेट में हवा भर जाने पर पुन: दर्द उठ खड़ा होता हो तो इसके प्रयोग से लाभ होता है ।
ऋतुस्राव का रक्त कम तथा काले रंग का अथवा श्वेत-प्रदर, कमर में दर्द, चलते समय टाँगों का लड़खड़ाना, पेट में ऐंठन जैसा दर्द, सीने में भारीपन, साँस लेने में कष्ट, जरायु का आक्षेप, सिर में तेज दर्द और चक्कर आना, कभी-कभी बेहोशी तथा मिचली-इन सब लक्षणों में यह औषध हितकर सिद्ध होती है ।
कैमोमिला 6, 12 – डॉ० ज्हार के मतानुसार यह औषध शूलयुक्त अधिक ऋतुस्राव, रोगिणी का अधिक चिड़चिड़ा तथा अशिष्ट होना, ऋतुस्राव का रंग काला होना, प्रसव जैसा तीव्र दर्द, बार-बार पेशाब करने की इच्छा, पेट में दर्द, कमर में सामने की ओर ठेलने जैसा दर्द एवं वायु तथा पित्त-प्रधान उग्र-प्रकृति वाली स्त्रियों के ऋतु-शूल की यह श्रेष्ठ औषध है। यदि स्त्री की प्रकृति उग्र न हो तो इसे न दें।
पल्सेटिला 6, 30 – ऋतुशूल के समय रुग्णा को ठण्ड लगने का अनुभव, हर घण्टे बाद लक्षणों का बदलते रहना, दर्द का स्थान बदलते रहना, कमर, पीठ तथा तलपेट में काटने अथवा तोड़ने जैसा दर्द, अल्प रज:स्राव, कभी थोड़ी-थोड़ी मात्रा में थक्का-थक्का अथवा काले या लाल रंग का स्राव, अरुचि, अग्निमान्द्य, सिर में चक्कर आना, अनियमित-स्राव, निलम्बित-स्राव तथा ऋतुकाल में पतले दस्त होना – इन सब लक्षणों में यह औषध हितकर है। इस औषध की रोगिणी शान्त-स्वभाव की होती है।
मैग्नेशिया-फॉस 3x, 6x वि० – पाकस्थली एवं जरायु में ऐंठन उत्पन्न करने वाला एवं स्नायु-शूल जैसा दर्द होने पर इसे दें । इस औषध का रोग गरम प्रयोग से घटता है अर्थात् ऋतुशूल के रोगी को सेंक से आराम मिलता है । इसे गरम पानी के साथ 10-10 मिनट के अन्तर से देना चाहिए । डॉ० नैश के मतानुसार यह ऋतुशूल की सर्वोत्तम औषध है ।
जैन्थक्साइलम 1x, 3x 1 – डॉ० हयूजेज के मतानुसार इस औषध के प्रयोग से ऋतूशूल की 80 प्रतिशत महिलाएं ठीक हो जाती हैं। यह बाधक-वेदना की बहुत ही श्रेष्ठ औषध है । ‘काक्युलस’ आदि औषधियों से अल्प लाभ अथवा बिल्कुल ही लाभ न होने पर इसे देना चाहिए। तलपेट से पुट्ठे तक तीव्र वेदना और उसके साथ ही ज्वर तथा स्राव के लक्षण विद्यमान रहने पर यह औषध बहुत लाभ करती है ।
बाइबर्नम-ओप्युलस Q, 3x – यदि दर्द अचानक ही उत्पन्न होकर 8-10 घण्टे तक रहे तथा जरायु से उठा हुआ दर्द सम्पूर्ण शरीर में फैल जाय तो इसके प्रयोग से श्रेष्ठ लाभ होता है ।
बेलाडोना 6, 30 – बस्तिगह्वर में अत्यधिक दर्द, पेट की नस-नाड़ियों का धक्का खाकर बाहर निकल पड़ने जैसा अनुभव, मासिक-धर्म आरम्भ होने से एक दिन पूर्व दर्द का उत्पन्न होना, ऋतुकाल में मल-त्याग के समय अत्यधिक कष्ट, पेट में काटने जैसा दर्द, मस्तिष्क में रक्त-संचय के साथ ऋतुशूल, कनपटी में टनक, आँख तथा मुँह का लाल हो जाना, मासिक-स्राव के दिनों में छाती में पसीना आना और कभी-कभी ठण्ड की फुरहरी आना एवं रक्त का लाल तथा गरम होना-इन लक्षणों में लाभकर है । रक्त-प्रधान महिलाओं के लिए यह विशेष हितकर है ।
बोरैक्स 1x वि० – पेट में दाँयी ओर की अपेक्षा बाँयीं ओर अधिक दर्द होना, जो कन्धे तक उठकर डिम्बाशय तक उतर जाता है एवं जरायु से झिल्ली का निकलना अथवा जरायु में झिल्ली के द्वारा रुकावट के कारण होने वाले ऋतुशूल में विशेष लाभकर है ।
सीपिया 6, 30 – आँखों के चारों ओर काले चकत्ते जैसे दाग पड़ जाना, शरीर पर पीलापन, प्रात:काल रोग के उपसर्गों में वृद्धि तथा ऋतुस्राव होने के कारण होने वाले ऋतुशूल में लाभ करती है। यह औषध पित्त-प्रधान स्त्रियों की बीमारी में विशेष हितकर है ।
सिमिसिफ्यूगा 3, 6, 30 – ऋतु से पूर्व सिरं-दर्द, प्रसव-वेदना जैसा पेट दर्द, तलपेट तथा पुट्ठे में दर्द, पीठ में तथा पाकस्थली के ऊपर तीव्र दर्द, मैले रंग की थोड़ा अथवा थक्का-थक्का अधिक परिमाण में रज:स्राव होना, ऋतुशूल के दर्द का बस्तिगह्वर के एक ओर से दूसरी ओर को आते-जाते बना रहना एवं दर्दों का अधिक तीव्र न होना – इन लक्षणों में इस औषध का प्रयोग करना चाहिए ।
क्युप्रम 6, 30 – डॉ० के मतानुसार थोड़े ऋतुस्राव वाले ऋतुशूल में यह उपयोगी है । रोगिणी का दर्द के मारे चीख उठना, वमन तथा जी मिचलाना एवं उँगलियों अथवा अँगूठों से ऐंठन शुरू होकर उसका सम्पूर्ण शरीर में फैल जाना-इन लक्षणों में हितकर है । ऋतुशूल में रोगिणी को ऐंठन पड़ जाने पर ही इसका प्रयोग करना चाहिए ।
इग्नेशिया 200 – डॉ० ज्हार के मतानुसार अधिक ऋतुस्राव वाले ऋतुशूल में यह औषध उपयोगी है। समय से पूर्व ही ऋतुस्राव होना, तेज होना, दसवें-पन्द्रहवें दिन होना, स्राव में काला थक्केदार रक्त निकलना, जरायु-प्रदेश में दर्द होना, दबाने अथवा पीठ के बल लेटने पर आराम का अनुभव-इन लक्षणों में हितकर है।
कोलोफाइलम 1x, 3 – मासिक-धर्म से पूर्व जरायु में ऐंठन, कमर में दर्द, ठण्ड का अनुभव, जी बहुत मिचलाना, मुँह में कड़वापन, पीले रंग के पित्त की वमन, सुई गड़ने जैसा दर्द, तलपेट का दर्द – जो अन्य अंगों तक फ़ैल जाता हो, पेट के निचले भाग में प्रसव जैसा दर्द, अधिक परिमाण में स्राव तथा हिस्टीरिया की रोगिणी के स्राव एवं प्रदरयुक्त ऋतुशूल में यह औषध लाभ करती है ।
जेल्सीमियम 3x – जरायु में रक्त-संचय के कारण खिंचाव, योनि-द्वार में अकड़न जैसा दर्द, जो पहले पेट से आरम्भ होकर कमर तथा पीठ के ऊपरी भाग तक फैल जाता हो, गर्दन के पृष्ठभाग में ऐंठन जैसा दर्द, कभी दर्द के बन्द हो जाने पर रुग्णा को तन्द्रा एवं आलस्य होना – इन लक्षणों वाले ऋतुशूल में यह औषध लाभकर है । ज्वर के रहने पर यह और भी उत्तम लाभ करती है ।
कुछ चिकित्सकों के मतानुसार इसके साथ पर्यायक्रम से ‘कोलोफाइलम 1x‘ देना विशेष लाभकर रहता है ।
एपिस 6 – डिम्बकोष में डंक मारने जैसे दर्द होने के कारण रुग्णा का छटपटाना तथा प्रसव के दर्द जैसा ऋतुशूल होने पर इसे दें।
सिकेल कोर 6 – निश्चित समय से बहुत पहले ही दाने-दाने जैसा मैला तथा दुर्गन्धित रज:स्राव होना, तलपेट में अत्यधिक दर्द के कारण पेट की भीतरी वस्तुओं के योनि-मार्ग से बाहर निकल पड़ने जैसा अनुभव, सम्पूर्ण शरीर विशेष कर हाथ-पाँवों में ठण्डा पसीना आना, मूत्राशय तथा मलाशय में काटने जैसा दर्द, नाड़ी का क्षीण हो जाना, स्राव का रुक जाना, अशक्ति का अनुभव तथा तीव्र दर्द-इन लक्षणों में लाभकर है ।
कालिन्सोनिया 1x, 3 – ऋतुस्राव के साथ टुकड़े-टुकड़े के रूप में झिल्ली जैसी वस्तु का निकलना एवं उसके साथ ही तीव्र शूल तथा कब्ज के लक्षणों में हितकर है ।
विरेट्रम-एल्बम 3, 6 – पेट में शूल के साथ मिचली, सिर-दर्द, हाथ-पाँव तथा नाक का ठण्डा हो जाना, कपाल पर ठण्डा पसीना, गहरी सुस्ती अथवा बेहोशी के लक्षणों में हितकर है ।
हैलोनियास 3 – जरायु में अत्यधिक दर्द, काले सूत जैसा स्राव तथा जाँघ एवं पीठ में लगातार दर्द होने के लक्षणों में लाभकर है ।
नक्स-वोमिका 6, 30 – असमय में अल्प-रज:स्राव, प्रात:काल वमन या मिचली, अग्निमान्द्य तथा ठण्ड का अनुभव-इन लक्षणों में लाभकर है ।
कैक्टस 3, 6 – तीव्र शूल के कारण रुग्णा का जोर-जोर से रोने लगना तथा गहरी सुस्ती के लक्षणों में लाभकर है।