लक्षण तथा मुख्य-रोग | लक्षणों में कमी |
कय करने के पहले, और बाद में भी जी की मिचली बने रहना | खुली हवा में रोग में कमी |
गरिष्ट-भोजन के कय या मिचली में पल्स और इपिकाक की तुलना | लक्षणों में वृद्धि |
धमनी से चमकीला रक्त-स्राव – जरायु, पेट, आंत, गुर्दे, मूत्र-द्वार, मल-द्वार आदि से चमकीला रक्त-स्राव होना | गर्मी या तर हवा से बढ़ना |
श्वास-यंत्र की पीड़ा, ब्रौंकाइटिस, जुकाम, दमा-ब्रौंकाइटिस में इपिकाक तथा ऐन्टिम टार्ट की तुलना | आइसक्रीम से रोग बढ़ना |
कुकुर-खांसी (Whooping cough) | गरिष्ठ भोजन से तकलीफ |
घास के समान हरे रंग के दस्त, डिसेन्ट्री का प्रकोप | हरकत से रोग बढ़ना |
मलेरिया-ज्वर में डॉ० इपिकाक का प्रयोग करते थे | कुनीन का दुरुपयोग |
(1) कय करने के पहले, और बाद में भी जी की मिचली बने रहना – जी मिचलाने की औषधियों में इसका प्रमुख स्थान है। कोई भी शिकायत हो, जिसमें जी की मिचली पायी जाय, और कय हो जाने के बाद भी मिचली बनी रहे, तब भी दूर न हो, शिकायत से पहले भी जी कच्चा हो और कय हो जाने पर भी जी कच्चा रहे, इस प्रकार की लगातार बने रहने वाली मिचली में इपिकाक को ही ध्यान में रखना होगा।
(2) गरिष्ट-भोजन के कय या मिचली में पल्सेटिला और इपिकाक की तुलना – इस प्रकार की जी कि मिचली प्राय: पेट की खराबी से हुआ करती है। खाने में गड़बड़ हुई तो मिचली भी शुरू हो गई। ऐसे समय पल्स और इपिकाक – इन दो औषधियों का क्षेत्र आ जाता है। दोनों में पेट की खराबी से जी मिचलाया करता है, दोनों में पेस्ट्री, आइसक्रीम, पूड़ी-कचौड़ी, हलवा, गोश्त आदि गरिष्ट पदार्थों के खाने से पेट खराब होता है। इन दोनों में भेद यह है कि अगर मितली में उल्टी (Vomiting) न हो, भोजन पेट में पड़ा-पड़ा जी को खराब कर रहा हो, तब तो पल्सेटिला देना चाहिये, परन्तु अगर भोजन पेट में से कय द्वारा निकल जाय और फिर भी मिचली बनी रहे, तब इपिकाक देना चाहिये। इसके अतिरिक्त पल्स में जीभ पर ऐन्टिम क्रूड के समान सफेद या पीला, गाढ़ा लेप चढ़ा रहता है, इपिकाक में जीभ या तो बिल्कुल साफ होती है या बहुत थोड़ी मैली होती है। परन्तु जीभ के लक्षण को निर्णायक लक्षण नहीं समझना चाहिये। सिना में जीभ बिल्कुल साफ रहती है, परन्तु उसमें पेट में कृमि होने की वजह से उल्टी आ जाती है, डिजिटेलिस में भी जीभ साफ रहती है परन्तु उसमें हृदय-रोग के कारण उल्टी आ जाती है, टैबेकम में जरा हरकत से उल्टी आ जाती है, लोबैलिया में कमजोरी और पसीने के साथ उबाई आती है। इपिकाक और पल्स में पेट की खराबी से उल्टी आती है। वैसे, उल्टी में प्रमुख स्थान इपिकाक का ही है।
पेट में मिचलाहट के साथ काटने का-सा दर्द जो बायें से दायें को जाये – नाभि से नीचे या ऊपर पेट में ऐसा दर्द होता है जो दायें से बायें को जाता है, रोगी को ऐसा अनुभव होता है जैसे कोई कर्तनी से काट रहा है। रोगी हिल नहीं सकता, जिस स्थिति में है उसी में स्थिर हो जाता है, सांस तक रुक जाता है, एक ही हालत में रोगी स्थिर बना रहता है। इस दर्द के साथ बेहद कमजोरी और जी की मिचलाहट बनी रहती है। इपिकाक में जो भी दर्द होगा। उसके साथ जी की मिचलाहट भी जुड़ी रहेगी।
खांसी के साथ जी की मितलाहट – इस औषधि में खांसी के साथ भी मिचलाहट होती है, खांसते-खांसते कय भी आ जाती है। यह सूखी खांसी होती है, जिसमें रोगी खों-खों करता है, इसमें रोगी का दम घुटने लगता है। हम आगे चल कर कुकुर खांसी का जिक्र करेंगे, यह खांसी भी वैसी ही होती है, भले ही इसे कुकुर खांसी न कहा जाय।
(3) धमनी से चमकीला रक्त-स्राव – जरायु, पेट, आंत, गुर्दे, मूत्र-द्वार, मल-द्वार आदि से चमकीला रक्त-स्राव होना – डॉ० कैन्ट का कथन है कि रक्त-स्राव में इस औषधि का इतना प्रमुख स्थान है कि इस के बिना वे रक्त-स्राव का इलाज करने में ही असमर्थ रहते। वे लिखते हैं कि रक्त-स्राव से उनका अभिप्राय सब प्रकार के रक्त-स्राव से है। जरायु से रक्त-स्राव, गुर्दों से रक्त-स्राव, अंतड़ियों से रक्त-स्राव, पेट से रक्त-स्राव, फेफड़ों से रक्त-स्राव। अगर रक्त-स्राव किसी स्थूल वस्तु के प्रहार आदि के कारण नहीं हो रहा, शारीरिक-रोग को कारण हो रहा है, तो होम्योपैथिक औषधि से अवश्य लाभ होगा। जब जरायु से रुधिर लगातार रिस रहा हो, थोड़ी-थोड़ी देर बाद रुधिर का वेग बढ़ जाता हो जैसे धमनी के रुधिर में होता है, वेग बढ़ने के साथ जरायु से चमकीला, उज्वल रुधिर बहता हो, रोगिणी समझती हो कि इस से वह बेहोश हो जायेगी, सांस लेना भारी हो रहा हो, रुधिर की मात्रा इतनी अधिक न हो, परन्तु रुधिर की मात्रा की अपेक्षा कमजोरी, मिचलाहट, बेहोशी, पीलापन बहुत अधिक होता जा रहा हो, तब समझ लेना चाहिये कि इपिकाक ही औषधि है। रुधिर जाने में अन्य भी औषधियां हैं, परन्तु उनका और इसका पारस्परिक भेद है। उदाहरणार्थ, इपिकाक के जरायु से चमकीले, उज्जवल वेग से जाने वाले धमनी के रुधिर के समान एकोनाइट में भी रुधिर-स्राव है, परन्तु एकोनाइट में रुधिर स्राव के साथ मृत्यु का भय रहता है। अगर जच्चा को प्लेसेन्टा के निकल जाने के बाद और किसी कारण-विशेष के न रहने पर भी रक्त-स्राव जारी रहता है, रोगिणी शीत-प्रधान है परन्तु उसे बर्फ के समान ठंडे पानी की इच्छा होती है, तो फॉस्फोरस से लाभ होगा। अगर रोगिणी ऊष्णता-प्रधान है, कपड़े से शरीर को ढकने नहीं देती, ठंडक चाहती है, जरायु से रुधिर रिसते रहने की उसकी प्रवृत्ति है परन्तु रोगाक्रान्त होने पर भारी मात्रा में खून बहने लगा है, खून में थक्के-थक्के हैं या पतला, काला रुधिर है, तब सिकेल के बिना काम नहीं चलेगा। यह तो हमने जरायु से रक्त-साव के बारे में कहा, परन्तु अन्य स्थानों से रक्त-स्राव में भी इपिकाक वैसा ही उपयोगी है।
गुर्दों से रक्त-स्राव – जब पेशाब में रुधिर हो, रुधिर के छोटे-छोटे कण हों, थक्के हों, रुधिर का रंग बहुत अधिक लाल हो, बर्तन के नीचे रुधिर बैठ जाय, कमोड के किनारों को रुधिर के आवरण से रेखांकित कर दे, पीठ में गुर्दों की जगह सख्त दर्द हो, बार-बार पेशाब जाने की हाजत हो, दर्द के हर आक्रमण के साथ लाल रंग का पेशाब आता हो, तो इपिकाक इस रुधिर को बन्द कर देगा। अगर रुधिर जाते-जाते रोगी रक्तहीन हो जाय, पीला पड़ जाय, तो चायना से लाभ होगा। श्रक्त-स्राव में इपिकाक के बाद चायना लाभ करता है।
डॉ० नैश द्वारा उल्लिखित रक्त-स्राव की मुख्य-मुख्य औषधियां
एकोनाइट – चमकीला, उज्वल, लाल रंग, रक्त-स्राव क साथ मृत्यु-भय और बेचैनी।
आर्निका – मांसपेशियों पर चोट लगने से रक्त-स्राव।
बेलाडोना – सिर में रक्त की अधिकता, गर्म रक्त निकलना, कनपटियों में दोनों तरफ धमनियों में तपकन।
कार्बो वेज – सारा शरीर बर्फ के समान ठंडा फिर भी रोगी पंखे की हवा चाहे, बेहद कमजोरी, रोगी मुर्दे की तरह पड़ा रहता है और रक्त-स्राव होता रहता है।
चायना – बहुत अधिक रक्त-स्राव होने के कारण कमजोरी, बेहोशी।
क्रोकस – डोरे की तरह जमा हुआ, थक्के-थक्के वाला, काला-काला रक्त-स्राव।
क्रोटेलस, इलैप्स, सल्फ्यूरिक ऐसिड – शरीर के सब छिद्रों से काले रंग का रक्त-स्राव।
फेरम – रक्त-स्राव के साथ रोगी का चेहरा बहुत लाल या कभी लाला कभी स्याह; रक्त-स्राव कुछ पतला, कुछ जमा हुआ।
हायोसाएमस – रक्त-स्राव के साथ बेसुधी (Stupor), शरीर की मांसपेशियों की फड़कन।
इपिकाक – बहुत अधिक रक्त-साव, चमकीला, ताजा खून – इसके साथ उबकाई आती है और सांस भारी चलता है।
लैकेसिस – सड़ा हुआ रक्त-स्राव, मैल भरा-सा।
फॉसफोरस – जरा-सी चोट से खून बहने की प्रकृति।
पल्सेटिला – रुक-रुक कर रक्त-स्राव।
सिकेल – कमजोर, रोगिन स्त्रियों का जरायु से काला रक्त-स्राव।
सल्फर – अन्य औषधि से लाभ न हो तो इसे दें।
(4) श्वास-यंत्र की पीड़ा, ब्रौंकाइटिस, जुकाम, दमा-ब्रौंकाइटिस में इपिकाक तथा ऐन्टिम टार्ट की तुलना – बच्चों के ‘ब्रौंकाइटिस’ (श्वास-नली के शोथ) में इपिकाक का महत्वपूर्ण स्थान है, इसलिये इसे डॉ० कैन्ट ने बच्चों का मित्र कहा है। बच्चों के ब्रौंकाइटिस में प्राय: इसी की आवश्यकता पड़ती है। बच्चों को शुद्ध निमोनिया तो कम ही होता है, प्राय: श्वास-नालिका का शोथ-ब्रौंकाइटिस-हो जाता है, सांस से घड़घड़ की आवाज आती है। बच्चा खांसता है, उसका दम घुटता है, और कमरे में दूर से सांस में घड़-घड़ की आवाज आती है। रोग शुरू होते ही यह अवस्था आ जाती है। घड़-घड़ की आवाज ऐन्टिम टार्ट में भी आती है, परन्तु इनमें भेद यह है कि इपिकाक के लक्षण रोग शुरू होते ही दीखने लगते हैं, रोग शुरू होते ही घड़घड़ाहट और सांय-सांय शुरू हो जाती है, ऐन्टिम में यह अवस्था देर में, धीरे-धीरे प्रकट होती है; इपिकाक में शुरू में और ऐन्टिम में रोग ढलने पर, इपिकाक में एकदम, ऐन्टिम में क्रमश:, जब रोगी कफ को निकालने में असमर्थ हो जाता है तब ऐन्टिम में अन्दर अटका हुआ कफ घड़घड़ाता रहता है, मालूम पड़ता हैं जरा-सा ही खांसने से कफ़ निकल आयेगा, परन्तु ज्यादा खांसने पर भी कफ़ नहीं उठता। ऐन्टिम में खांसी कम आती है परन्तु फेफड़े में कफ़ ज्यादा जमा होता है – रोगी चुपचाप आंखें बन्द करके पड़ा रहता है। इपिकाक में ऐसा नहीं होता, इसका कफ़ कुछ-कुछ निकलता रहता है।
जुकाम – जुकाम में भी इपिकाक से विशेष लाभ होता है। जब जुकाम के साथ नकसीर फूटने का लक्षण मिला हो, तब इसकी तरफ ध्यान जाना चाहिए। ठंड नाक में बैठ जाती है, रात को नाक बन्द हो जाती है, छींकें आने लगती हैं, गले तक ठंड पहुंच जाती है, गला भी बैठ जाता है, पक जाने का-सा दर्द करता है, अन्त में यह ठंड छाती तक पहुंच जाती है, सांस रुकने लगता है, नाक से चमकीला खून निकलता है। इस औषधि का श्वास-यंत्र तथा रुधिर-स्राव पर विशेष प्रभाव है, इसलिए ऐसे जुकाम में जिसमें श्वास-यंत्र का कष्ट हो, जुकाम हो, नाक से खून जाता है, इपिकाक लाभ करता है।
(5) कुकुर-खांसी (Whooping cough) – इस औषधि का श्वास प्रणालिका पर जो प्रभाव है उसके कारण कुकुर-खांसी में भी यह अच्छा काम करती है। बच्चा खांसते-खांसते उल्टी कर देता है, कफ में पतला-पतला झाग निकलता है, चेहरा पीला या नीला पड़ जाता है, कभी-कभी कफ में रुधिर भी आ जाता है, बच्चा ऐंठ जाता है। खांसी के साथ जी की मिचलाहट में हम इसका ऊपर उल्लेख भी कर आये हैं।
(6) घास के समान हरे रंग के दस्त, डिसेन्ट्री का प्रकोप – डॉ० नैश का कहना है कि गर्मियों में बच्चों को तीन प्रकार के दस्त आ जाया करते हैं।
(i) खमीर के समान झाग वाले दस्त
(ii) घास के समान हरे रंग के दस्त-आंव सहित या पनीले
(iii) डिसेन्ट्री वाले दस्त जिनमें थोड़ा-बहुत रुधिर होता है।
ये दस्त गर्मियों के दिनों में ज्यादा खा जाने या गड़बड़ खाने से आने लगते हैं। अगर इन में इपिकाक 200 की एक मात्रा दे दी जाय, तो कष्ट शीघ्र जाता रहता है। इधर ध्यान न देने से ‘कोलन का शोथ’ Colitis हो जाता है, आंव आने लगती है। इन दस्तों में जी मिचलाने के लक्षण के होने पर इपिकाक देने में देर नहीं करनी चाहिये।
डिसेन्ट्री या पेचिश का प्रकोप – डॉ० कैन्ट का कहना है कि जब पेचिश की बीमारी फैल जाती है, इसका प्रकोप हो जाता है, तब यह औषधि उत्तम साबित होती है। रोगी लगभग लगातार कमोड कर बैठा रहता है, थोड़ी-सी आंव आती है या थोड़ा-सा चमकीला रुधिर आता है, आंतों के निचले हिस्से में, बड़ी आंत के अंतिम गुदा तक के हिस्से-कोलन-में तथा गुदा में शोथ होता है, मरोड़ बड़ा जबर्दस्त होता है, जलन होती है, मरोड़ के साथ थोड़ी-थोड़ी आंव तथा खून जाता है। इस सब के साथ जी की मिचलाहट बनी रहती है। पाखाने में जोर लगाते हुए दर्द इतना ज्यादा होता है कि जी मिचलाने लगता है, कभी-कभी पित्त की उल्टी भी हो जाती है। कभी-कभी इस प्रकार की पेचिश का इतना प्रकोप हो जाता है कि सारे परिवार पर इसका आक्रमण हो जाता है। अगर पेचिश में मल के साथ सफेद अांव का भाग अधिक रहे, तो मर्क सौल, और अगर मल के साथ खून का भाग अधिक रहे, तो मर्क कौर दिया जाता है, अगर पेचिश के साथ जी मिचलाये तो इपिकाक दिया जाता है।
(7) मलेरिया-ज्वर में डॉ० इपिकाक का प्रयोग करते थे – डॉ० नैश लिखते हैं कि अगर किसी औषधि विशेष के लक्षण न हो, तो मलेरिया-ज्वर में शुरू-शुरू में वे इपिकाक का प्रयोग करते थे, इससे उन्हें अनेक दवाओं में से एक के चुनने के झंझट में नहीं पड़ना पड़ता था। इपिकाक के ज्वर में प्यास नहीं रहती। कुनीन का अधिक सेवन करने से अगर मलेरिया-ज्वर दब जाय और कोई दूसरे उपद्रव उठ खड़े हों, तो इपिकाक के प्रयोग से विशेष लाभ होता है। टाइफॉयड आदि ज्वर के बाद जब थोड़ा-थोड़ा बुखार बना रहता है, हटता ही नहीं, तब भी यह औषधि इस लटकते बुखार को समाप्त कर देती है।
(8) शक्ति तथा प्रकृति – 3 से 200 शक्ति। हनीमैन का कथन है कि यह अल्प-कालिक (Short-acting) औषधि है। अनुभव से देखा गया है कि 200 शक्ति अच्छा काम करती है। इसे बार-बार दोहराया जा सकता है, परन्तु लाभ दीखते ही औषधि को बन्द कर देना चाहिये। यह नियम हर होम्योपैथिक औषधि के विषय में लागू है। औषधि ‘गर्म’ प्रकृति के लिये है।