काली म्यूरिएटिकम लक्षण तथा मुख्य-रोग
( Kali Muriaticum uses in hindi )
(1) बायोकैमिक प्रयोग (सफेद रंग का स्राव) – यह औषधि शुस्लर के 12 लवणों में एक है। इससे पहले हम शुस्लर के कैलकेरिया फॉस, कैलकेरिया सल्फ़ और फैरम फॉस का वर्णन यथा स्थान कर आये हैं। बायोकैमिस्ट इसका प्रयोग इस आधार पर करते हैं कि अगर शरीर में इस लवण की कमी हो जाय तो जुकाम, सूजन आदि रोग हो जाते हैं। यह लवण उस कमी को 3x, 6x, 12x की मात्रा देने से दूर कर देता है। होम्योपैथ इसका प्रयोग अपने ‘समः सम शमयति’ के नियम के आधार पर करते हैं। वे 30, 200 आदि शक्ति में इसका व्यवहार करते हैं। परन्तु होम्योपैथ बायोकैमिक औषधियों का प्रयोग कभी-कभी बायोकैमिक दृष्टि से भी करते हैं।
शरीर की श्लैष्मिक-झिल्लियों में जहां-जहां भी सफेद स्राव दिखलाई देता है वह फाइब्रिन से बनता है। फाइब्रिन रुधिर में जमने वाले नाइट्रोजन युक्त प्रोटीन को कहते हैं। शुस्लर का कहना है कि अगर शरीर में काली म्यूर की कमी हो जाय, तो यह फाइब्रिन बाहर निकल पड़ती है। जीभ पर फाइब्रिन जीभ के सफेद लेप के रूप में प्रकट होती है, नाक, मुँह, कान तथा फोड़े आदि में यह फाइब्रिन सफेद चिकटे थूक या पस या स्राव के रूप में दिखलाई देती है। यह स्राव फाइब्रिन का होता है अत: सफेद तो होता ही है, साथ ही जम जाने के स्वभाव के कारण आसानी से छूटता नहीं, चिपट जाता है। इसलिये जो स्राव कहीं भी चिपटने वाला हो, सफेद हो, वहां काली म्यूर लाभ देता है। अगर थूक में झाग ज्यादा हो, तब तो फैरम फॉस दिया जायेगा, क्योंकि थूक में झाग होने का मतलब यह होगा कि उसमें फाइब्रिन नहीं है, हवा है, और हवा को अर्थात् ऑक्सीजन को रुधिर में खींच लेने का काम फैरम फॉस का है। इस प्रकरण में यह भी ध्यान रखने की बात है कि सूजन की प्रथम-अवस्था में तो फैरम फॉस दिया जाता है, परन्तु द्वितीय-अवस्था में काली म्यूर दिया जाता है। इसका कारण यही है कि सूजन की द्वितीय-अवस्था में सूजन में से फाइब्रिन बाहर निकलने लगता है। फोड़े आदि में काली म्यूर के बाद जब गाढ़ी पस निकलने लगे, तक काली सल्फ देते हैं, और जब पस सूख जाय तब फोड़े को भरने के लिये साइलीशिया दिया जाता है। फाइब्रिन का सफेद स्राव न्यूमोनिया के समय छोटे-छोटे सफेद-सफेद थूक के थक्कों के रूप में दिखलाई देता है, उस समय इन्हीं थक्कों की अटकने के कारण फेफड़ों से घर्र-घर्र की आवाज आती है। क्रूप और डिफ्थीरिया में भी इसी प्रकार का स्राव होता है। जुकाम में जब सूत का-सा चिपटने वाला स्राव निकलता है, खांसी में भी जब ऐसा सफेद और चिपटने वाला कफ निकलता है, तब काली म्यूर ही लाभप्रद होता है। कभी-कभी शरीर में काली म्यूर की कमी होने के कारण, फाइब्रिन शरीर की त्वचा के ऊपर आ जाती है जिसमें सफेदी होती है, ऐसी सफेदी जैसी मुँह के छालों में नजर आती है या जैसी गोनोरिया या प्रदर में दीखती है। बायोकैमिस्ट इन सब अवस्थाओं में इसी औषधि का प्रयोग करते हैं, मुख्य लक्षण हैं – सफेद लेप या स्राव जो चिपटने वाला हो, जिसे खींचने से तार बंध जाय, जिसमें फाइब्रिन हो।
(2) होम्योपैथिक प्रयोग (सफेद रंग का स्राव) – हाम्योपैथिक-दृष्टि से भी इसका प्रयोग सफेद और चिपटने वाले स्राव में किया जाता है। मुँह के सफेद छाले, फोड़े का सफेद पस इसके क्षेत्र में है। कान की नली, जिसे युस्टेकियन-ट्यूब कहते हैं, उस पर इसकी विशेष क्रिया है। युस्टेकियन-ट्यूब का प्रदाह, उसकी सूजन, कान में भिन्न-भिन्न प्रकार के शब्द इस औषधि के प्रभाव क्षेत्र में हैं। इस नली की सूजन से अगर बहरापन हो जाय, तो उसमें भी यह दी जाती है, परन्तु हर जगह इसके निर्वाचन का प्रधान लक्षण सफेद चिपटने वाला स्राव है। अपचन, अजीर्ण-रोग में भी इसे दिया जाता है, परन्तु जीभ सफेद होनी चाहिये।
(3) शक्ति तथा प्रकृति – बायोकैमिक रूप में 6x, 12x; होम्योपैथिक रूप में 6, 30 (औषधि ‘सर्द’-प्रकृति के लिये है)