काली सल्फ का बायोकैमिक उपयोग
(1) खुली हवा चाहना तथा पीले रंग का स्राव – यह शुस्लर के 12 लवणों में से एक है। हम पहले लिख आये हैं कि फैरम फॉस का काम ऑक्सीजन को बाहर की वायु से शरीर के ‘कोठष्कों’ (Cells) में खींच लेना है। इस खींच लेने के बाद इस ऑक्सीजन को शरीर के सब कोष्ठकों तक दूर-दूर पहुंचा देना काली सल्फ़ का काम है। जब शरीर में इसकी कमी होगी तब ऑक्सीजन शरीर के दूर-दूर तक के कोष्ठकों में नहीं पहुंच सकेगा। इसका परिणाम यह होगा कि ऑक्सीजन की कमी के कारण जो रोग हो सकते हैं वे सब हो जायेंगे। जब शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो तब रोगी बन्द कमरे में नहीं रह सकता, खुली हवा चाहेगा, क्योंकि खुली हवा में उसे ऑक्सीजन लेने को मिलेगी, बन्द जगह पर वह घुटा-घुटा-सा अनुभव करेगा, दरवाजे बन्द हों तो उन्हें खोलना चाहेगा। इसके अतिरिक्त शाम को उसकी तबीयत गिरेगी क्योंकि शाम को वायु मंडल में ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। गर्मी उसे अच्छी नहीं लगती, ठंडी हवा में जिसमें ऑक्सीजन भरी हो उसकी तबीयत हरी हो जाती है। होम्योपैथी में पल्सेटिला के भी ऐसे ही लक्षण हैं, अत: जो काम होम्योपैथी में पल्स करता है वही बायोकैमिस्ट्री में काली सल्फ़ करता है। डॉ० क्लार्क का कथन है कि शुस्लर का काली सल्फ़ होम्योपैथी का पल्सेटिला है। प्राय: कहा जाता है कि प्रत्येक वनस्पति का अनैन्द्रिक-जगत् (Inorganic world) में कोई-न-कोई ‘तत्सम’ (Analogue) होता है। ‘ऐनालोग’ का अर्थ है – उसी के समान गुणोंवाला, परन्तु रचना में भिन्न – इसी को हमने ‘तत्सम’ कहा है, अर्थात् उसी के समान। पल्सेटिला वानस्पतिक है, इसका अनैन्द्रिक तत्सम काली सल्फ़ है, अर्थात् इन दोनों के गुण समान है। काली सल्फ में पल्सेटिला के संबंध में दो बातें स्मरण रखने योग्य है। यह पल्सेटिला का ‘तत्सम’-Analogue-है, और पल्स का ‘क्रौनिक’ (Chronic) भी है; अर्थात्, जब रोग पल्सेटिला से ठीक होते-होते रुक जाय, तब काली सल्फ से ठीक हो जाता है। परन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिये कि इस सारे विवरण में हम बायोकैमिस्ट्री और होम्योपैथी को मिला रहे हैं।
(2) काली सल्फ का मुख्य काम ऑक्सीजन को शरीर में सब जगह पहुंचना है – ऑक्सीजन की कमी के कारण शरीर में भारीपन और थकावट होने लगती है, सिर में चक्कर आने लगते हैं। दिल धड़कने लगता है, सिर में और जिस्म में दर्द होने लगता है, चित्त उदास रहता है, चिन्ता बनी रहती है। ऑक्सीजन ही तो गर्मी पैदा करता है, यह न हो तो शरीर ठंड महसूस करता है, ऑक्सीजन कम हो जाने और कार्बन बढ़ जाने से जितनी शिकायतें पैदा हो सकती हैं वे सब काली सल्फ़ की कमी से होने लगती हैं, और इस औषधि को देने से दूर हो जाती है।
शरीर के बाहर की और भीतर की त्वचा पर-अर्थात् एपिडरमिस और एपिथिलीयम पर-भी ऑक्सीजन की पूरी मात्रा न मिलने के कारण काली सल्फ अपना प्रभाव डालता है। बाहर की त्वचा – ‘एपिडरमिस’ -पर तो यह असर होता है कि त्वचा के छिछड़े उतरने लगते हैं। इसलिये जिस-जिस बीमारी में छिछड़े उतरे उनमें काली सल्फ़ दिया जाता है। खसरे (Measles) में जब छिछड़े उतरने लगे, चेचक (Small-pox) में जब छिछड़े उतरने लगे, या अन्य किसी बीमारी मे जब छिछड़े उतरने लगे तब समझ लेना चाहिये कि शरीर में ऑक्सजीन की कमी हो गई है, और काली सल्फ़ देने का समय आ गया है। इसी प्रकार भीतरी त्वचा-‘एपिथीलियम’-में यह अवस्था तब होती है जब पीली पस, पीला स्राव हो, खांसी जुकाम में जब पीलापन थुक में प्रकट हो, तब काली सल्फ़ का क्षेत्र होता है। आँखों में पीली गीद, कान से पीला स्राव, पेट की खराबी में जीभ का पीला रंग – इन सब में पीले रंग को देखकर इसी दवा को देना चाहिये। ऐसे समय काली सल्फ़ शरीर के तंतुओं में ऑक्सीजन का प्रवेश बढ़ा देता हे, और नये ‘कोष्ठक’ (Cells) बनने लगते हैं पुराने शीघ्र ही झड़ जाते हैं, या फोड़ा-फुंसी हो तो पस के द्वारा बाहर निकल जाते हैं। शरीर के स्रावों का रंग तथा उनकी विशेषता देख कर दवा देनी चाहिये और स्मरण रखना चाहिये कि किस दवा का कैसा स्राव और कैसा रंग होता है।
बायोकैमिक-औषधियों के स्राव का रंग-रूप
नैट्रम म्यूर – पानी का सा स्राव।
फैरम फॉस – स्राव में झाग-सी मिली होती है।
काली म्यूर – स्राव में फाइब्रिन होती है, अर्थात् सफेदी चिकनापन होता है, आसानी से नहीं उतरता, चिपटता है, धागे से होते हैं।
कैलकेरिया फॉस – स्राव में एलब्युमिन होता है।
नैट्रम सल्फ – स्राव पानी की तरह पतला, पीला या नीला होता है।
काली सल्फ – स्राव गाढ़ा होता है, पीला होता है।
काली फॉस – स्राव बहुत बदबूदार होता है।
साइलीशिया – स्राव बदबूदार होने के साथ गाढ़ा होता है।
नैट्रम फॉस – स्राव गाढ़ा और पीला या मलाई का-सा होता है।
कैलकेरिया सल्फ – स्राव में खून मिला होता है।
टाइफायड-ज्वर में, या किसी भी ज्वर में, जो फैरम फॉस देने पर भी टूटता न हो, सांयकाल बढ़ जाता हो, काली सल्फ़ लाभ पहुंचाता है। इसका कारण यही है कि शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा शरीर के तन्तुओं में दूर-दूर तक नहीं पहुंचती-इसलिये बुखार नहीं टूटता। काली सल्फ़ ऑक्सीजन को सब जगह पहुंचाकर बुखार को तोड़ देता है।
(3) पीला पस – काली सल्फ़ फोडे-फुन्सी के शोथ की तीसरी अवस्था में प्रयुक्त होता है क्योंकि इसी अवस्था में फोडे-फुन्सी का पस पक कर पीला हो
जाता है।
काली सल्फ का होम्योपैथिक उपयोग
(Kali Sulph Uses In Hindi )
यद्यपि इसका स्वस्थ-व्यक्तियों पर होम्योपैथिक-दृष्टि से परीक्षण (Proving) नहीं हुआ, तो भी रोगियों पर अनुभव के आधार (Clinical experience) पर इसे होम्योपैथिक दवा के तौर पर भी दिया जाता है। डॉ० नैश ने लिखा है कि वे इसकी 30 शक्ति दिया करते हैं।
(1) काली सल्फ़ के कुछ लक्षण
(i) श्लैष्मिक-झिल्लियों से पनीला, पीला या नीला स्राव (अांख, कान, नाक, प्रदर और सब स्रावों में)
(ii) ज्वर के लक्षणों का सायंकाल बढ़ना
(iii) रोगी का खुली हवा को चाहना
(iv) गठिया या वात-रोग में दर्द का भिन्न-भिन्न अंगों में चलना-फिरना
(v) गर्म कमरे में रोग बढ़ जाना
(vi) कफ़ का घड़घड़ करना तथा उसका पीला होना
डॉ० कैन्ट का कहना है कि अगर इस औषधि का लक्षणों के आधार पर सावधानी से प्रयोग किया जाय, तो इसके गहरे और चिरस्थायी प्रभाव को देखकर चिकित्सक आश्चर्यचकित हो जायेगा।
(2) काली सल्फ़ और पल्सेटिला में भेद – इन दोनों में समानता के साथ मानसिक-दृष्टि से भिन्नता भी है। पल्स नरम स्वभाव का, दूसरे की बात आसानी से मान जाने वाला होता है, काली सल्फ़ आसानी से गुस्से में आ जाता है, हठी होता है और शीघ्र उत्तेजित हो जाता है। दोनों में कार्य करने के प्रति उदासीनता पाई जाती है, दोनों किसी से मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते, दोनों शीघ्र रो देते हैं, परन्तु पल्स में काली सल्फ़ जैसी मानसिक-उत्तेजना तथा गुस्सा नहीं है।
(3) शक्ति तथा प्रकृति – बायोकैमिक 3x, 6x, 12x, होम्योपैथिक 30, 200 (औषधि ‘गर्म’-प्रकृति के लिये है)