इस संक्रामक रोग का आरम्भ नजला, जुकाम और सर्दी से होता है। फिर ज्वर हो जाता है। ज्वर चढ़ने के चौथे दिन समस्त शरीर और चेहरे पर लाल रंग के धब्बे या दाने दिखाई देने लगते हैं । आमतौर पर यह रोग बच्चों को ही होता है, लेकिन यदि यह रोग बड़ों (वयस्कों) को होता है तो काफी भयंकर सिद्ध होता है । इस रोग के उत्पन्न होने का भी कारण वाइरस है, जिसको इलेक्ट्रॉनिक माइक्रोस्कोप पर ही देखा जा सकता है । ग्रामीणांचल की साधारण भाषा में इस रोग को माता या दुलारी माता कहकर आदर से पुकारा जाता है (हालाँकि यह एक भयंकर संक्रामक रोग है) । खसरे का वायरस रोगी के कण्ठ, नाक, गले की श्लैष्मिक झिल्लियों पर सर्वप्रथम आक्रमण करता है। रोगी के खाँसने तथा छींकने आदि से यह वायरस वातावरण में फैलकर अन्य स्वस्थ लोगों को भी अपनी चपेट में ले लेता है । इस रोग का प्रकोप शीत और बसन्त ऋतु में अधिक देखने को मिलता है । इन महीनों के अलावा वर्ष भर में कभी भी इस रोग के इक्का-दुक्का मामले हो सकते हैं। यह रोग बन्दरों तथा मनुष्यों को समान रूप से होता है । मुख्यत: यह दो वर्ष से 5 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों को ही अधिक आक्रान्त करता है। इस रोग के कीटाणुओं का संक्रमण हो जाने पर 8 से 12 दिन तक यह बीमारी शरीर में छुपी रहती है और रोगी को कोई कष्ट नहीं होता है। इसके बाद ही इसके लक्षण फैलते हैं ।
खसरा रोग के विषाणु जब श्लैष्मिक कला में आते हैं, तब सर्वप्रथम रोगी को सर्दी, जुकाम, नजला, खाँसी तथा शारीरिक पीड़ा होती है एवं उसका ज्वर एकाएक 101 से 102 डिग्री फारेनहाइट तक हो जाता है। आँख और नाक से पानी बहने लग जाता है। छोटे बच्चे सोते हुए से अचानक हड़बड़ा कर जाग जाते हैं । गले में दर्द, खाँसी व कम्पन की शिकायत होती है । रोगी के मुँह के अन्दर गालों की भीतरी श्लैष्मिक कला के पास छोटे-छोटे सफेद दाग उत्पन्न हो जाते हैं। इन दागों को कपलिक के दाग (Koplik Spots) कहा जाता है।
नोट – बच्चे को जब भी जुकाम हो जाये तो मुँह में अन्दर की ओर इन दागों को जरूर देखें । यह दाग होने पर निश्चित समझ लें कि बच्चे को खसरा निकल रहा है। इस रोग में पीड़ित बच्चे को ज्वर कम होने पर शरीर पर दाने निकल आते हैं। उसे हरे-पीले दस्त भी आने लगते हैं। आँखें लाल व सूजी-सूजी सी हो जाती हैं। जब शरीर पर दाने पूरी तरह से निकल आते हैं, तब ज्वर पुन: तीव्र अवस्था में आ जाता है। शरीर का तापमान इस दौरान 105 डिग्री तक हो जाता है। (शरीर के दानों अर्थात् खसरे के दानों में यदि बिना खुजलाये ही रक्तस्राव होने लगे तो यह रोग की भयानक अवस्था का परिचायक होता है ) । रोगी अनाप-शनाप बकने लगता है। यह इस रोग का एक विशेष प्रधान लक्षण होता है । खसरे मे फेफड़े अधिक आक्रान्त होते हैं । रोगी को ब्रोन्को निमोनिया हो जाता है, तीव्र श्वास चलती है। रोगी का चेहरा काला पड़ जाता है । श्वास अवरोध के लक्षण भी इस दौरान सम्भव हैं । इस रोग में आने वाली खाँसी प्राय: काली खाँसी की भाँति होती है। यदि उचित समय पर उचित चिकित्सा का अभाव रहा तो ‘यक्ष्मा’ रोग तक हो जाने का अन्देशा रहता है, इसके अतिरिक्त स्वर-यन्त्र जन्य व्रण, फेफड़ों की शोथ, लसिका ग्रन्थियों की शोथ, पलकों की शोथ, अस्थि मज्जा शोथ इत्यादि उपद्रव मामूली अथवा अति गम्भीर अवस्था में हो सकते हैं। उपद्रवों के उग्र हो जाने से खसरा जानलेवा हो जाता है । जब शरीर में पानी की कमी हो जाती है, मस्तिष्क की सूजन का उपद्रव खतरनाक होता है। निमोनिया और दस्त अधिकांशत: उन बच्चों को होता है, जो लम्बे समय तक कुपोषण के शिकार रहते हैं। यदि खसरा रोग से पीड़ित शिशु पूर्व से ही टी. बी. जैसे घातक रोग से पीड़ित हो तो वह और अधिक खतरनाक तथा बच्चे (रोगी) के जीवन के लिए विकट हो सकता है ।
खसरा का एलोपैथिक चिकित्सा
खसरे से बचाव का एकमात्र सीधा, सरल एवं सहज उपाय ‘टीकाकरण’ है । बच्चों को टीका लगवा देने से यह रोग नहीं होता है । वैसे जिन बच्चों को यह रोग जीवन में एक बार हो जाता है, फिर उनको दुबारा यह रोग नहीं होता है ।
बच्चों को इस रोग से बचाव हेतु 7 से 12 मास की आयु में टीका अवश्य लगवा देना चाहिए, किन्तु टीकाकरण से पूर्व यह देख लेना चाहिए कि बच्चा कहीं स्टीटायड औषधियों पर अथवा बच्चा टी. बी. का शिकार तो नहीं है अथवा जिन बच्चों के परिवार में किसी को मिर्गी की शिकायत हो, उन्हें खसरे का टीका नहीं लगवाना चाहिए तथा जिन दिनों बच्चा खसरा रोग से पीड़ित हो, उन दिनों में भी बच्चे को खसरे का टीका नहीं लगवाना चाहिए ।
• खसरे से पीड़ित रोगी को ऐसा भोजन कदापि नहीं देना चाहिए जो कफ और खाँसी को बढ़ाने में सहायक हो। घी, तेल की वस्तुएँ तथा बासी या गरिष्ठ भोजन न दें। गरम दूध, फलों का रस, मक्खन आदि का विशेष रूप से इस रोग के दौरान उपयोग करना चाहिए । अधिक ज्वर तथा त्वचा के क्षोभ में गीला कपड़ा करके शरीर पोंछना लाभदायक रहता है । रोगी को कब्ज से बचाना चाहिए। कब्जकारक पदार्थों का सेवन नहीं करने देना चाहिए ।
• रोगी की पुतलियों पर वैसलीन तथा नेत्रों को दिन में 2-3 बार बोरिक लोशन से धोना लाभदायक रहता है। अथवा एक प्रतिशत का एल्ब्यूसिड आई ड्राप्स (सल्फासीटामाइड का योग) आँखों में डालना चाहिए । ज्वर हो तो पैरासिटामोल टैबलेट अथवा सीरप का प्रयोग करना चाहिए। खसरे के दौरान उपसर्ग के रूप में जो भी विकार हों उनकी लाक्षणिक चिकित्सा करके रोगी को अधिक से अधिक आराम प्रदान कर संक्रमण रहित वातावरण में रखना चाहिए । मध्यकर्ण शोथ हो जाने पर पेनिसिलीन का उचित मात्रा में उपयोग गुणकारी रहता है । सल्फा ग्रुप की औषधियों का प्रयोग भी हितकारी सिद्ध होता है ।
• दानों में खुजली या जलन होने पर ‘चेचक’ में वर्णित दवाएँ लगायें ।
• गले में खाँसी और खराश होने पर विक्स फॉर्मूला 44 (सीरप) 20-30 बूंद 5 वर्ष की आयु तक, आधी से चौथाई छोटा चाय वाला चम्मच भर सीरप 6 वर्ष की आयु तक के बच्चे को दिन में तीन बार दूध अथवा थोड़े जल में मिलाकर दें।
• आँखें दुखने पर पानी में थोड़ा नमक घोलकर टपकाना परम लाभकारी है ।
• ज्वर का दर्जा बहुत अधिक बढ़ जाने पर सिर पर बर्फ की थैली रखें ।
• निमोनिया हो जाने पर फोर्टीफाइड पेनिसिलिन का इन्जेक्शन लगायें अथवा टेट्रा सायक्लिन का एक कैपसूल 4 मात्रा बनाकर मधु मिलाकर बच्चों को दिन में 4 बार चटायें ।