लैकेसिस के लक्षण तथा मुख्य-रोग
( Lachesis uses & Benefits in hindi )
इस लेख में हम लैकेसिस के मानसिक लक्षण को समझने का प्रयास करेंगे।
लैकेसिस की खास लक्षण ईर्ष्या है, या किसी प्रतिद्वंद्वी से कैसे बेहतर हुआ जाए, उदाहरण के लिए समझें तो एक महिला जिसके पति की एक युवा प्रेमिका है। अब उसे अपने अंदर कमज़ोरी का अहसास होता है क्योंकि वह अपनी तुलना उस युवा और अधिक आकर्षक प्रतिद्वंद्वी से करती है।
उसे लगता है कि उसके खिलाफ साजिशें हो रही हैं और इससे उसे अपने आस-पास के लोगों पर शक होने लगता है। उसका अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि वह कैसे अपने प्रतिद्वंदी से आगे रहे, और वह जोड़-तोड़ वाली बातों से करती है। इसका रोगी बड़ा बातूनी होता है। लगातार बोलता जाता है। एक विषय को शुरू करता है, बीच में छोड़कर दूसरे विषय पर बोलने लगता है। वाक्यों को अधूरा छोड़ देता है, समझता है कि बाकी हिस्सा तुम समझ गये होगे – इतनी जल्दी में बोलता जाता है।
बड़ी लच्छेदार भाषा का प्रयोग करता है, परन्तु किसी वाक्य को पूरा नहीं करता। रोगी ईर्ष्यालु तथा सन्देहशील होता है। पत्नी अपने पति का दूसरी किसी स्त्री से बोलना पसन्द नहीं करती, ईर्ष्या से भरी रहती है। उसे अपने पति यहाँ तक कि बच्चों पर भी सन्देह रहता है। डॉक्टर पर भी सन्देह करती है। समझती है कि डॉक्टर दवा में जहर मिलाकर उसे मारना चाहता है, उसके सगे-सम्बन्धी उसे मारने का षड्यंत्र रच रहे हैं।
अगर रोगी कहीं जा रहा है, तो मुड़-मुड़कर पीछे देखते हैं कि कहीं कोई पीछा तो नहीं कर रहा। लड़की सोचती है कि उसकी सहेलियां जब आपस में खुसफुस करती हैं, तब उसी के विषय में बात कर रही होती हैं और उसे नुकसान पहुंचाना चाहती हैं। रोगी पर एक प्रकार का धार्मिक-पागलपन सवार हो जाता है। इस प्रकार का पागलपन पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक पाया जाता है।
समझती है कि कोई दैवी-शक्ति उसका संचालन कर रही है। उसे इस दैवी-शक्ति से आदेश आते सुनाई देते हैं। इस दवा का एक मुख्य-लक्षण स्पर्श न सह सकना है। रोगी गर्दन पर कॉलर या नेक टाई नहीं लगा सकता, कुर्ते का बटन सदा खुला रखता है। यदि पूछा जाय कि वह ऐसा क्यों करता है, तो कहता है कि कॉलर, नेक टाई लगाने से गला घुटता-सा लगता है, ऐसा लगता है कि गले को किसी ने पकड़ लिया। रोगी को ऐसा लगता है कि कुर्ते का गले पर का बटन बन्द करेगा तो सांस रुक जायेगा। साधारण तौर पर देखने से समझ नहीं आता कि गले का कष्ट उसे इतना क्यों सताता है।
जैसे आर्सेनिक में कमजोरी असाधारण होती है, वैसे ही लैकेसिस में गले का कष्ट असाधारण होता है। गर्म चाय नहीं पी सकता क्योंकि गर्मी से उसका रोग बढ़ जाता है।
लैकेसिस के रूब्रिक में हमें मिलेगा :- ईर्ष्या, लगातार बोलना, एक विषय से दूसरे विषय में तेजी से बदलना, किसी का मज़ाक उड़ाना, मनोरंजन की इच्छा, लैकेसिस ग्रीष्म प्रकृति का है, गर्मी अधिक लगती है, वे तंग कपड़े खास कर गर्दन के आसपास बर्दाश्त नहीं कर सकते। धूप से कष्ट बढ़ता है । सोने के बाद समस्या बढ़ जाती है। घर का काम या जॉब करने की इच्छा ख़त्म हो जाती है।अपनी कल्पनाओं में रहना चाहता है और ऐसे में दूसरों से मिलना जुलना पसंद नहीं करता, धार्मिक स्नेह । जीभ को सांप की तरह तेजी से अंदर-बाहर निकालते हैं
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लक्षण तथा मुख्य-रोग रोग का बाईं तरफ से दाहिनी तरफ जाना, शुरू नींद में और नींद टूटने पर रोग का बढ़ना, स्पर्श सहन न कर सकना – गर्दन पर कॉलर, कमर पर कपड़ा न सहना, ज्यादा रक्त-स्राव; त्वचा या फुन्सियों का बैंगनी या नीला होना, चिरस्थाई दुःख, शोक, भय, झुंझलाहट, ईर्ष्या, भग्न-प्रेम से उत्पन्न होना, रोगी का बातूनी, ईर्ष्यालु, सन्देहशील होना तथा आत्म-भर्त्सना करना, रजोधर्म से निवृत्त होने के समय के रोग, स्राव जारी होने से रोग घटना, दर्द की लहरें उठना (सिर दर्द, शोथ, बवासीर, भगंदर आदि में हथौड़े की-सी चोट), ऊष्णता-प्रधान रोगी; ठंडक से गर्मी में जाने से बीमार होना, गर्मी से लक्षणों का बढ़ना, कमर तथा गले में स्पर्श को न सह सकना, स्रावों के दब जाने से किसी रोग का होना
(1) रोग का बाईं तरफ से दाहिनी तरफ जाना – लैकेसिस सांप का विष है। इसका सर्व-प्रधान लक्षण यह है कि रोग का आक्रमण बाईं तरफ होता है, और बायें से दाईं तरफ जाता हैं। पक्षाघात शरीर के बायें हिस्से में शुरू होता है और धीरे-धीरे दायें हिस्से की तरफ बढ़ता है। इसका विशेष-प्रभाव स्त्री की डिम्ब-ग्रन्थि (Ovary) पर पड़ता है। पहले बाईं डिम्ब-ग्रन्थि प्रभावित होती है, उसमें दर्द, शोथ, आदि कोई रोग उत्पन्न होता है, उसके बाद दाईं ग्रन्थि प्रभावित हो जाती है। गले की शोथ हो, तो उसका प्रभाव पहले बाईं तरफ होगा, और धीरे-धीरे वह दाईं तरफ बढ़ेगा। डिफथीरिया का गले में आक्रमण भी पहले बाईं तरफ ही होगा। सिर-दर्द में भी सिर के बायें हिस्से की तरफ दर्द होगा। आँख का दर्द होगा, तो बाईं तरफ से शुरू होगा और वहां से दाईं तरफ बढ़ेगा। अगर सिर की गुद्दी में दर्द होगा, तो भी दायें की अपेक्षा बायां हिस्सा ही अधिक प्रभावित होगा। क्रोटेलस भी सर्प-विष है, परन्तु उसका प्रभाव दायीं तरफ होता है, जैसे लाइकोपोडियम का प्रभाव दायीं तरफ होता है।
(2) शुरू नींद में और नींद टूटने पर रोग का बढ़ना – रोगी जब जागता रहता है, तब उसके रोग के लक्षण दबे रहते हैं, हो सकता है कि उस समय उसे उनका कुछ भी अनुभव न हो, परन्तु जब नींद आ जाती है, तब रोग के लक्षण जागने लगते हैं। निद्रा जितनी लम्बी होती जाती है उतना ही ये लक्षण भी बढ़ते जाते हैं। लम्बी नींद के साथ रोगी के सब लक्षण प्रबल हो जाते हैं। जब रोगी जागता है, तब अपने रोग के लक्षणों के विकट रूप धारण कर लेने के कारण परेशान हो जाता है, सोचता है, सोया ही क्यों था। देर तक सोने के बाद जब वह उठता है, तो भयंकर सिर-दर्द, हृदय की धड़कन, मायूस से अपने को घिरा पाता है, नख से शिख तक उसे निराशा-ही-निराशा धर पकड़ती है। उसका शरीर कष्ट से आक्रान्त हो जाता है, उसे जीवन में कहीं उजाला दिखाई नहीं देता। जीवन अन्धकारमय, मेघाच्छन्न, कष्टों से भरा प्रतीत होता है, और पागलपन के विचार मन पर आक्रमण करने लगते हैं। खांसी, दर्द, दमा, अकड़न – कोई भी रोग हो, सोने के बाद बढ़ जाता है।
लैकेसिस दक्षिणी अमरीका के एक सांप का विष है। इसकी परीक्षा डॉ० कौनस्टेंटाइन हेरिंग ने की थी। वे जीवित सांपों को हाथ से पकड़ लेते थे। वे मरते-मरते बचे। सांप के विष से वे बेहोश हो गये और डिलीरियम की नींद में अनाप-सनाप बकते रहे। जब वे ठीक हुए, तो उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा कि बेहोशी में वे क्या करते रहे, क्या बोलते रहे। वह सब लिख लिया गया। इस औषधि का स्वस्थ व्यक्ति पर यह सबसे पहला परीक्षण-‘औषधि-सिद्धि’ (Proving) था। इस औषधि के लिये होम्योपैथी डॉ० हेरिंग की चिर ऋणी रहेगी। नींद में और नींद टूटने पर तो रोग बढ़ता ही है, रोगी जब सोने लगता है, सोते ही कभी-कभी दम घुटता-सा है, दिल धड़कता है, और रोगी बिस्तर से उछलकर उठ खड़ा होता है। सोना शुरू करते ही रोग भी शुरू होने लगता है; और सोकर उठने के बाद रोगी के सब कष्ट उग्र रूप धारण कर प्रकट हो जाते हैं। रोगी सोने से ही डरने लगता है। कई ऐसी शिकायतें पाई जाती हैं जिनका कोई डॉक्टर निदान नहीं कर पाता। ऐसी शिकायतों में रोगी को कह दिया जाता है – तुम्हारी शिकायत सिर्फ नर्वस है और बेचारा रोगी समझने लगता है कि उसका रोग असाध्य है। होम्योपैथी में इस प्रकार के निदान की कोई आवश्यकता नहीं, चिकित्सक को केवल लक्षणों से मतलब होता है, रोग के नाम से नहीं। ऐसी हालत में प्राय: रोग का नाम घड़ लेना इलाज में सहायक होने के स्थान में बाधक हो जाता है। डॉ० जे० टी० ड्यू ‘मन्थली होम्योपैथिक रिव्यू’ के 41वें खंड में लिखते हैं कि एक 43 वर्ष का विवाहित व्यक्ति उनके पास इलाज कराने आया। उसे कई साल से गले का रोग था, वह द्रव पदार्थ निगल नहीं सकता था, ठोस पदार्थ के निगलने में तो उसे बेहद कष्ट होता था। उसका अद्भुत लक्षण यह था कि रात को साते समय वह चौंक कर जाग उठता था, कभी-कभी बिस्तर छोड़ देता था क्योंकि उसे गला घुटता हुआ अनुभव होता था। यह अनुभव मध्य-रात्रि तक होता था, उसके बाद नहीं। सोते समय नींद में कष्ट के लक्षण पर उसे लैकेसिस दिया गया और सालों का रोग जो ‘नर्वस’ के नाम से चलता चला आ रहा था, ठीक हो गया। जैसा हम अभी देखेंगे, गले का घुटना भी इस औषधि का एक व्यापक-लक्षण है। उक्त रोगी में सोते समय रोग का बढ़ना – गले का घुटना – इन दोनों लक्षणों के मिल जाने से औषधि का चुनाव अत्यंत सरल हो गया।
(3) स्पर्श सहन न कर सकना – गर्दन पर कॉलर, कमर पर कपड़ा न सहना – इस औषधि का एक मुख्य-लक्षण स्पर्श न सह सकना है। रोगी गर्दन पर कॉलर या नेक टाई नहीं लगा सकता, कुर्ते का बटन सदा खुला रखता है। यदि पूछा जाय कि वह ऐसा क्यों करता है, तो कहता है कि कॉलर, नेक टाई लगाने से गला घुटता-सा लगता है, ऐसा लगता है कि गले को किसी ने पकड़ लिया। डॉ० हेरिंग जिन्होंने इस औषधि को अपने ऊपर ‘सिद्ध’ (Prove) किया था, वे उमर भर कॉलर नहीं लगा सके। रोगी को ऐसा लगता है कि कुर्ते का गले पर का बटन बन्द करेगा तो सांस रुक जायेगा। साधारण तौर पर देखने से समझ नहीं आता कि गले का कष्ट उसे इतना क्यों सताता है। जैसे आर्सेनिक में शक्तिहीनता असाधारण होती है, वैसे लैकेसिस में गले का कष्ट असाधारण होता है। गला खुला रहना चाहिये, अगर वहां बन्द लगा, तो रोगी को खाँसी आने लगती है। गर्म चाय नहीं पी सकता क्योंकि गर्मी से उसका रोग बढ़ जाता है। गले में कुछ अटकता-सा प्रतीत हुआ करता है।
(4) ज्यादा रक्त-स्राव; त्वचा या फुन्सियों का बैंगनी या नीला होना – जितने भी सर्प-विष हैं सबका रुधिर पर विशेष प्रभाव होता है। रुधिर पनीला हो जाता है, पनीला होने से रक्त-स्राव की प्रवृत्ति (Hemorrhagic tendency) हो जाती है। लैकेसिस रक्त-स्राव की औषधि है। नाक से, जरायु से या किसी अन्य द्वार से बड़ी मात्रा में खून निकलता है। मासिक-धर्म में बहुत ज्यादा या बहुत देर तक खून जाता है। यही हाल नकसीर का है। खून पनीला हो जाने के कारण जल्दी नहीं जमता। पनीला होने के कारण ही छोटे-से घाव से बहुत ज्यादा खून निकलता है। क्रियोजोट तथा फॉसफोरस की तरह जरा से कांटे के लगने से एक बूंद की जगह ढेरों खून निकल पड़ता है। खून का रंग बैंगनी या नीला होता है। सांप काटने से भी तो रोगी नीला पड़ जाया करता है। अगर शरीर में कही शोथ, फोड़ा-फुंसी हो, तो उसका रंग भी बैंगनी या नीला होता है। जिस जगह चोट लगे वह स्थान नीला पड़ जाता है। डॉ० कैन्ट लिखते हैं कि अगर कोई हृदय का रोगी मिले, जिसका चेहरा फूल रहा हो, नीला पड़ गया हो, उसे लैकेसिस दो, वह ठीक हो जायगा। मुंह का घाव, सिफ़लिस, कार्बंकल, डिफ़थीरिया, सड़ा हुआ व्रण – इनमें घाव का रंग बैंगनी और नीला होने पर लैकेसिस का प्रयोग करना चाहिये।
(5) रोगी का बातूनी, ईर्ष्यालु, सन्देहशील होना तथा आत्म-भर्त्सना करना – रोगी बड़ा बातूनी होता है। लगातार बोलता जाता है। एक विषय को शुरू करता है, बीच में छोड़कर दूसरे विषय पर बोलने लगता है। वाक्यों को अधूरा छोड़ देता है, समझता है कि बाकी हिस्सा तुम समझ गये होगे – इतनी जल्दी में बोलता जाता है। बड़ी लच्छेदार भाषा का प्रयोग करता है, परन्तु किसी वाक्य को पूरा नहीं करता। ऐसी हालत टाइफॉयड, डिफ्थीरिया या बच्चा जनने के समय के डिलीरियम में हो जाया करती है, कभी-कभी पागलपन में भी ऐसी अवस्था होती है। रोगी ईर्ष्यालु तथा सन्देहशील होता है। पत्नी अपने पति का दूसरी किसी स्त्री से बोलना पसन्द नहीं करती, ईर्ष्या से भरी रहती है। उसे अपने पति, बच्चों पर सन्देह रहता है। डॉक्टर पर भी सन्देह करती है। समझती है कि डॉक्टर औषधि में विष मिलाकर उसे मारना चाहता है, उसके सगे-सम्बन्धी उसे मारने का षड्यंत्र रच रहे हैं। अगर रोगी कहीं जा रहा है, तो मुड़-मुड़कर पीछे देखते हैं कि कहीं कोई पीछा तो नहीं कर रहा। लड़की सोचती है कि उसकी सहेलियां जब आपस में खुसफुस करती हैं, तब उसी के विषय में बात कर रही होती हैं, और उसे नुकसान पहुंचाना चाहती हैं। रोगी पर एक प्रकार का धार्मिक-पागलपन सवार हो जाता है। इस प्रकार का पागलपन पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक पाया जाता है। समझती है कि कोई दैवी-शक्ति उसका संचालन कर रही है। उसे इस दैवी-शक्ति से आदेश आते सुनाई देते हैं। अपने मित्रों से कहती है कि उसने अमुक-अमुक पाप, भ्रष्टाचार किये हैं जो वास्तव में उसने किये नहीं होते।
(6) चिरस्थाई दुःख, शोक, भय, झुंझलाहट, ईर्ष्या, भग्न-प्रेम से उत्पन्न होना – खासकर नव-युवतियों में तथा उन लड़कियों में जिन्हें प्रेम में निराशा का सामना करना पड़ा है, जो रात-रात भर अपने दु:ख या शोक से संतप्त रहने और उसी पर सोचते रहने के कारण सो नहीं पातीं, जिनकी आशाओं और उमंगों पर तुषारपात हो जाने के कारण वे मानसिक तथा हृदय के रोगों से पीड़ित हो रही हैं, हर समय चिरस्थाई दु:ख, शोक, झुंझलाहट, ईर्ष्या, भग्न-प्रेम से चित्त डांवाडोल रहता है, निराशा, हतोत्साह में डूबी रहती हैं, जीवन में कुछ अच्छा नहीं लगता, हृदय की धड़कन, हृदय में पीड़ा होती है, सांस लेने में कष्ट प्रतीत होता है, सदा आत्म-घात पर सोचा करती हैं और अंत में चित्त की ऐसी अवस्था आ जाती है जब वह न कुछ सोच सकती है, न कुछ कर सकती है, हर वस्तु में उदासीन हो जाती है – इन मानसिक अवस्थाओं में यह औषधि प्रभावशाली काम करती है।
(7) रजोधर्म से निवृत्त होने के समय के रोग – रजोधर्म की निवृत्ति के समय स्त्रियों को अनेक कष्ट होने लगते हैं। ऐसी अवस्था प्रौढ़ावस्था के बाद आती है। गर्मी की लहर आती है, तरेरें आती-जाती है। सिर की तरफ एकदम रुधिर का संचार होता है, सिर गर्म और पांव ठंडे हो जाते हैं, हृदय में धड़कन होती है, दिल पर दबाव अनुभव होता है। रोगिणी अभी खुश थी, अभी निराशा की-सी अवस्था आ जाती है। सदा के लिये रजोधर्म के समाप्त होने के समय कभी-कभी रक्त-स्राव भी होने लगता है, बवासीर, पसीना आदि लक्षणों में इस औषधि को ध्यान में रखना चाहिये।
(8) स्राव जारी होने से रोग घटना – इस औषधि का रक्त-संचार प्रणाली पर विशेष प्रभाव है, इसलिये स्राव बन्द होने के कारण अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं जिनकी तरफ हमने अभी ऊपर ध्यान खींचा है। वे उपद्रव इसीलिये होते हैं क्योंकि स्राव बन्द हो गया। इसका यही अर्थ है कि स्राव जारी होने से रोग घट जाते हैं। लैकेसिस का यह व्यापक-लक्षण है कि स्राव बन्द होने से रोग बढ़ता है और स्राव जारी होने से रोग घटता है। मासिक-धर्म न होने से दर्द शुरू हो जाता है, मासिक-धर्म जारी होने से जाता रहता है। मासिक-धर्म के दर्द मासिक जारी होने से पहले रहते हैं, बाद को भी रहते हैं, परन्तु जब मासिक चल रहा होता है तब दर्द नहीं रहता। इसी कारण प्रौढ़ावस्था के रजोलोप में यह औषधि गुण करती है।
(9) दर्द की लहरें उठना (सिर दर्द, शोथ, बवासीर, भगंदर आदि में हथौड़े की-सी चोट) – सिर दर्द के विषय में रोगी कहता है कि गर्दन या सिर के पीछे से दर्द की लहर-सी उठकर सिर पर चढ़ आती है, जैसे नदी की तरंग उठती है वैसे दर्द की लहर उठती है। दर्द की इन लहरों का हृदय के स्पन्दन के साथ संबंध नहीं होता। रुधिर की गति के साथ इन लहरों का बिल्कुल भी संबंध न हो – ऐसा भी होता है। चलते-फिरते रोगी को अनुभव होता है कि दर्द की लहर उठी, वह आराम से बैठ जाता है, तब यह लहर लहर न रह कर सिर्फ दर्द का रूप धारण कर लेती है। यह दर्द फिर किसी भी समय दर्द की लहर में परिणत हो जाता है और रोगी को इतना परेशान कर देता है कि वह छटपटाने लगता है।
कभी-कभी यह दर्द की लहर रुग्ण स्थान पर हथौड़े की-सी चोट की तरह लगती है। दर्द की लहरें इस औषधि का चरित्रगत-व्यापक-लक्षण है। सिर-दर्द का तो वर्णन हमने अभी किया। यह दर्द की लहर, जहां भी शोथ हो, वहां हथौड़े की-सी मार करती है। फोड़े पर नाड़ी का जोरदार स्पन्दन महसूस होता है, अगर डिम्ब-ग्रन्थि में शोथ है तो रोगी को वहां पर हर स्पन्दन की चोट गलती है, फोड़ा सूज रहा हो, तो वहां स्पन्दन की चोट लगती है। हृदय से उठी नाड़ी की प्रत्येक हरकत सीधी सूजन की जगह पर चोट मारती-सी लगती है। लैकेसिस से अनेक बवासीर, भगंदर आदि के रोगी तब ठीक हुए हैं जब रोगी को ऐसा अनुभव होता था कि नाड़ी का हर स्पन्दन बवासीर के मस्सों या भगंदर की नली में प्रहार कर रहा था।
(10) ऊष्णता-प्रधान रोगी; ठंडक से गर्मी में जाने से बीमार होना – रोगी ऊष्णता-प्रधान होता है। सूजन पर गर्म पानी सहन नहीं कर सकता। सूजन के स्थान पर गर्म सेक या गर्म पानी डालने से बेचैन हो जाता है, मानसिक-लक्षण प्रबल हो जाते हैं। ठंडे स्नान से गर्म स्थान पर जाने से उसके लक्षण बढ़ जाते हैं। गर्म पानी से वह स्नान नहीं कर सकता। इससे उसे धड़कन होने लगती है। गर्म पानी से नहाने से उसे ऐसे लगता है मानो सिर फट जायगा, सारे शरीर में नसों में धम-धम होने लगती है। कई बार लड़कियां गर्म पानी के स्नान से बेहोश हो जाती हैं: रोगी को ठंड लग रही हो, परन्तु तब भी अगर वह गर्म कमरे में जाता है, तो गर्मी सहन नहीं कर सकता। गर्म पानी, या गर्म चाय वह नहीं पी सकता। लैकेसिस का नया रोगी, अर्थात् जिसके नवीन-रोग में इसके लक्षण हों, वह गर्म पानी पीयेगा तो गला रुंध जायेगा या उल्टी कर देगा, अलवत: इस औषधि के लक्षणों वाला पुराना-रोगी (Chronic case) अगर ठंडा पानी पीयेगा तब उसका गला रुधेगा और जी मितलायेगा। इस भेद को सामने रख लेना चाहिये। गले के शोथ या डिप्थीरिया में शोथ या प्रदाह लैकेसिस तथा सैबैडिला दोनों में बाईं तरफ से शुरू होता है, परन्तु लैकेसिंस में रोगी ठंडा पानी चाहता है, गर्म से उसका रोग बढ़ता है; सैबैडिला में इससे उल्टा होता है, वह गर्म पानी चाहता है, ठडे पानी से उसका रोग बढ़ता है।
(11) शक्ति तथा प्रकृति – 30, 200 (यह बहुत गहरी क्रिया करने वाली औषधि है। क्योंकि यह घातक-विष है इसलिये निम्न-शक्ति में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये। बहुत निम्न-शक्ति में तो यह मिलती ही नहीं। इसका बार-बार प्रयोग भी उचित नहीं है। निम्न-शक्ति तथा बार-बार के प्रयोग से रोगी में ऐसे लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं जो उम्र भर उसका पीछा न छोड़ें। डॉ० हेरिंग जिन्होंने इस औषधि की अपने ऊपर सिद्धि की थी वे उम्र भर गले का कॉलर नहीं लगा सके थे। औषधि ‘गर्म’-प्रकृति के लिये है।)