इस संस्थान के अन्तर्गत लसीका (Lymphatic Glands) और लसीका वाहिनियाँ (Lymphatic Vessels) आदि की गणना की जाती है। यह रक्तवाही संस्थान के निकट सम्बन्ध रखने वाला संस्थान है। इसमें सर्वप्रथम देखें कि लसिका क्या है ?
लसिका (Lymph) – रक्त वाहिनियों की भित्ति से छने हुए प्लाज्मा (Plasma) को लसिका कहते हैं। वास्तव में होता यह है कि जब रक्त कोशिकाओं में पहुँचता है तो उनकी दीवारों से यह रिस-रिस कर बाहर निकलता है और इसमें आहार तत्त्व होते हैं, जैसे – जल, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और लवण तथा ऑक्सीजन आदि। ये सब तत्त्व शरीर के कोषाओं में मिलते हैं। यह लसिका अन्त में जाकर छोटी-छोटी नलिकाओं में जाता है। इनको लिंफवेसल्स (Lymph vessels) कहते हैं। लसिका के परिचय के सन्दर्भ में हम ऐसे भी कह सकते हैं कि लसिका वाहिनियों के मार्गों में छोटी-छोटी गाँठे सी होती हैं जिन्हें लसिका ग्रन्थि कहते हैं। लसिका ग्रन्थियों में लसिका वाहिनियाँ एक ओर से घुसती हैं और दूसरी ओर से निकलती हैं। ये लसिका ग्रन्थियाँ मानव शरीर में ग्रीवा, वक्ष, उदर, कक्ष और वंक्षण आदि स्थानों पर पाई जाती है। इन स्थानों को हम टटोल कर मालूम कर सकते हैं।
ये लसिका ग्रन्थियाँ प्लेग, रसौली और गन्दे घावों आदि में सूज जाया करती हैं। इनके फूल जाने को आम बोलचाल में ‘ओलमा’ या ‘ओलसण्डा’ कहा जाता है। यह एक प्रकार के श्वेत रक्तकण का निर्माण करती हैं। जब लसिका इन लसिका ग्रन्थियों में से जाता है तो यह श्वेत रक्तकण उसमें मिलकर रक्त में प्रविष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार लसिका ग्रन्थियाँ श्वेत रक्त कण उत्पन्न करके, उनको रक्त में भेजकर रोग के कीटाणुओं को नष्ट करने में सहायता पहुँचाती रहती हैं। ये लसिका ग्रन्थियाँ रोग के कीड़ों को भागने नहीं देतीं, बल्कि फूलकर (रास्ता रोककर) उनको मार देती हैं, यही कारण है कि घाव आदि हो जाने पर ये फूल जाया करती हैं।
लसिका वाहिनियाँ (Lymphatic Vessels) – लसिका वाहिनियों में पानी की तरह तरल पदार्थ जिसे ‘लसीका’ (Lymph) कहते हैं, सदा बहता रहता है । लसीका (Lymph) एक रंग रहित तरल पदार्थ है जिसमें जल, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और लवण मिले रहते हैं । लसीका रक्त की नन्हीं-नन्हीं कोशिकाओं (Capillaries) में से बहता है। यह लसीका अन्त में जाकर छोटी-छोटी नलियों में जिन्हें लसीका वाहिनियाँ (Lymphatic Vessels) कहते हैं, में चला जाता है । छोटी-छोटी लसिका वाहिनियों में से बड़ी लसीका वाहिनियाँ बन जाती हैं। छोटी- छोटी लसीका वाहिनियों से अन्त में जाकर निम्नांकित दो महा लसिका वाहिनियाँ बनती हैं :-
(1) वक्ष स्थलीय महा लसीका वाहिनी
(2) दाहिनी महालसीका वाहिनी
इन महा लसीका वाहिनियों में प्रथम नम्बर की ‘वक्ष स्थलीय महा लसिका वाहिनी’ उदर से शुरू होकर गर्दन में पहुँचकर बाईं अक्षक (Clavicle) की नीचे की शिरा के साथ मिल जाती है तथा ‘दाहिनी महा लसिका वाहिनी’ दाहिनी अक्षक (Right Clavicle) के नीचे की शिरा के साथ मिल जाती है।