इसमें मस्तिष्क के पर्दे में शोथ पैदा हो जाती है। यह रोग कई प्रकार के कीटाणुओं (न्यूमोकोक्स, स्ट्रेप्टोकोकस, स्टेफिलोकोकस) के मस्तिष्क में चले जाने से हो जाता है। हर प्रकार के सरसाम में रोगी को ज्वर, वमन, तीव्र सिर दर्द, प्रलाप, बेहोशी, मस्तिष्क के पर्दे में सूजन हो जाने से गर्दन अकड़ जाती है। C. S. F. Cerebrospinal Fluid मस्तिष्क का तरल)) में दोष आ जाता है, पीप पड़ जाती है अथवा तरल गंदला हो जाता है । परीक्षा करने पर इस तरल में पीप (Pus) के सेल भी पाये जाते हैं । ज्वर की अधिकता से रोगी बेहोशी में बड़बड़ाता है और मस्तिष्क में खसश होने के कारण सिर को इधर-उधर घुमाता है। रोगी के तमाम शरीर में दर्द होता है। आँखें लाल हो जाती हैं । रोगी टकटकी लगाकर एक ओर देखता रहता है । दांत पीसता है तथा उसके कान में आवाजें आती हैं। आयुर्वेद में इस ज्वर को क्रकच सन्निपात के नाम से जाना जाता है । यह रोग चेचक, टायफायड, न्यूमोनिया तथा घातक मलेरिया में हो जाता है । बहुत अधिक गर्मी में चलते रहने, क्षय रोग के कीटाणुओं की छूत से तथा दो वर्ष से छोटे बच्चों को इन्फ्लूएंजा में यह रोग हो जाया करता है। न्यूमोकोक्स कीटाणुओं के संक्रमण हो जाने से रोगी को सबसे पहले सर्दी के मौसम में कान के मध्य में सूजन (Otitis Media) हो जाती है और बाद में न्यूमोनिया हो जाता है। फिर मस्तिष्क के पर्दे में सूजन पैदा हो जाती है। नवजात शिशुओं की नाभि पक जाने, जननेन्द्रियों और मूत्र संस्थान में संक्रमण हो जाने, आप्रेशन करने पर घावों में ‘स्टेफिले कोक्कस’ कीटाणु मस्तिष्क में पहुँच जाने से भी सरसाम होते देखा गया है। क्षय के कीटाणु मस्तिष्क में चले जाने से छोटे बच्चों को क्षयी सरसाम हो जाता है ।
बच्चे के मस्तिष्क में कीटाणु पहुँच जाने और संक्रमण फैला देने पर उसके मस्तिष्क में ये भयानक रोग हो सकते हैं । पीप वाला सन्निपात (Purulent Meningitis), मस्तिष्क के बाह्य आवरण का फोडा (Extradural Abscess), संक्रमण से किसी शिरा (Vein) में रक्त की गुठली जम जाना, मस्तिष्क शोथ आदि ।
बच्चों को किसी प्रकार का सरसाम हो जाने पर तथा समय पर चिकित्सा न करने से उसकी मृत्यु हो सकती है। एक वर्ष से कम आयु के बच्चे को सन्निपात हो जाने पर शीघ्रातिशीघ्र चिकित्सा करना परमावश्यक है। क्योंकि इतनी छोटी आयु में सन्निपात के लक्षणों को साफ-साफ पता नहीं चल पाता और बच्चे के अपूर्ण मस्तिष्क को भारी हानि पहुँच सकती है। छोटे बच्चों के कान में इन्फेक्शन हो जाने से भी उसके प्रभाव मस्तिष्क में पहुँच जाते हैं, जिसके फलस्वरूप बच्चे को सन्निपात और ऊपर लिखे संक्रामक रोग हो जाते हैं। सरसाम रोग से ग्रसित हो जाने पर बच्चा दूध पीना बन्द कर देता है, बेहोशी जैसी अवस्था हो जाती है, कै आती है, वह चिड़चिड़ा हो जाता है। बड़े बच्चों को सिर-दर्द, कै आना, सुस्त और कमजोर होते जाना, दिमाग में दोष, बेहोशी जैसी अवस्था आदि लक्षण होते हैं । बच्चों के सरसाम में 33% बच्चों को आक्षेप (मिर्गी जैसे दौरे) भी पड़ने लग जाते हैं। दूध पीते बच्चों में आक्षेप के लक्षण मुख्य रूप से अधिक होते हैं ।
दिमाग की सूजन बढ़ जाती है। यदि बच्चे के माथे के ऊपर के तालु में तनाव आ जाये तो यह इस बात का पक्का प्रमाण है कि उसको सरसाम हो चुका है। दुबले-पतले बच्चों के तालु में गड्ढा न हो, परन्तु बच्चे में सूखा रोग के बाकी सब लक्षण पाये जायें तो यह भी सन्निपात होने का प्रमाण समझें । बड़े बच्चों में तो सरसाम के लक्षणों की आसानी से पहचान हो सकती है, किन्तु दुग्धपान करने वाले और बेहोश बच्चे में इस रोग के लक्षणों का आसानी से पता नहीं लगता है । सन्निपात का संक्रमण फैल जाने से स्टेथोस्कोप (श्रवण यन्त्र) लगाकर सुनने पर हृदय और फेफडों में इन्फेक्शन का पता लग जाता है । इन्फेक्शन फैल जाने से बच्चे की त्वचा पर दाने आदि दिखाई दे सकते हैं ।
वयस्कों की भाँति बच्चों का भी इस रोग का पूर्ण व पक्का प्रमाण मस्तिष्क और सुषुम्ना के तरल (C.S.F.) लम्बर पंक्चर द्वार निकाल कर उसकी परीक्षा करके ही प्राप्त किया जा सकता है । सरसाम में यह तरल दूधिया सा हो जाता है । तरल में प्रोटीन की अधिकता और शुगर नार्मल से भी कम पायी जाती है । बच्चे को Pyogenic Meningitis हो जाने पर 3 दिन तक रोग कम न होने पर यह सन्देह किया जाता है कि बच्चे का रोग और उपद्रव अधिक बढ़ गये हैं । ऐसी अवस्था में राजकीय चिकित्सालयों के चिकित्सक दिन में कई बार बच्चे की सिर की गोलाई को नाप कर लिखते रहते हैं कि मस्तिष्क में पूय (पीप) और तरल पैदा हो जाने से सिर बड़ा तो नहीं होता जा रहा है। बच्चे की तन्त्रिकाओं (स्नायुओं) की भी परीक्षा की जाती है कि बच्चे के शरीर के दूसरे अंगों में पक्षाघात तो नहीं हो रहा है। बच्चे का तापमान कम न होने के स्थान पर बढ़ते चले जाने का अर्थ यह है कि उसके दिमाग के किसी गड्ढे में (Cavity) पूय जमा हो चुका है । एण्टीबायोटिक दवाओं के अधिक प्रयोग से भी प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाने के कारण ज्वर का तापमान बढ़ जाता है ।
मैनिंजाइटिस की चिकित्सा
इस रोग का इलाज एण्टीबायोटिक और आक्षेप – नाशक फेनोबार्बीटोन से किया जाता है। बच्चों को फेनोबार्बीटोन 7 मिलीग्राम का इण्ट्रामस्कुलर इन्जेक्शन प्रत्येक 12 घण्टे बाद लगाया जाता है । बच्चे के रक्त और शरीर का तरल कितनी मात्रा में कम हो चुका है, इसकी परीक्षा करके ही उसकी अवस्थानुसार बच्चे के शरीर में तरल और इलैक्ट्रोलाइट्स प्रवेश किये जाते हैं । इसके साथ ही ज्वर उतारने वाली दवाएँ भी दी जाती हैं। ठण्डे पानी में स्पंज डुबो व निचोड़कर उससे शरीर को पोंछा जाता है। बच्चे के आँखों की पुतलियाँ फैल तो नहीं रही हैं, उसके दिल की गति बहुत अधिक कम तो नहीं हो चुकी, उसको साँस कठिनाई या अनियमित रूप से तो नहीं आता । दो दिन तक इन बातों पर विशेष ध्यान रखा जाता है कि बच्चे के दिमाग में पस (पूय) या तरल बढ़ तो नहीं रहा है ।
नवजात शिशुओं को यह रोग ग्राम पोजेटिव कीटाणुओं के संक्रमण से हो जाता है। इसलिए इन कीटाणुओं के संक्रमण को नष्ट करने के लिए गैरामायसिन से निर्मित औषधियों से चिकित्सा की जाती है। बड़े बच्चों के इस रोग की चिकित्सा एम्पीसिलीन (Ampicillin) और क्लोरम फेनिकाल से निर्मित औषधियों से की जाती है । चिकित्सा के 48 घण्टे बाद दिमाग का तरल (C.S.F.) निकालकर उसकी परीक्षा की जाती है। बच्चों को एम्पीसिलीन 24 घण्टे में दो सौ से चार सौ मिलीग्राम कई मात्राओं में विभाजित कर खिलाई जाती है अथवा इसका इन्जेक्शन 100 से 200 मि.ग्रा. प्रति किलो शारीरिक वजन के हिसाब से लगाया जाता है। क्लोरम फेनिकाल और इससे बनी दवाएँ 2 महीने से कम आयु के बच्चों को 25 मि.ग्रा. प्रति किलोग्राम शारीरिक भार के हिसाब से 24 घण्टे में कई मात्राओं में बाँटकर तथा 2 महीने से बड़े बच्चों को 50 मि.ग्रा. प्रति किलोग्राम शारीरिक वजन के हिसाब से 24 घण्टे में कई खुराकों में बाँटकर खिलाई जाती है अथवा इसी अनुपात से शीघ्र लाभ हेतु इस दवा के इन्जेक्शन लगाये जाते हैं।
सन्निपात में – पेनिसिलीन जैसे क्रिसफोर (साराभाई कम्पनी) के इन्जेक्शन बहुत ही लाभकारी हैं। सल्फाडायाजीन बच्चों को 100 से 150 मि.ग्रा. कई मात्राओं में बाँटकर खिलाना भी बहुत ही लाभकारी है। 10 से 14 दिन चिकित्सा आवश्यक है, जब मस्तिष्क तरल (C. S. F.) की परीक्षा करने पर उसमें कीटाणुओं का संक्रमण बिल्कुल समाप्त हो जाये और रोगी को 5 दिन तक ज्वर न चढ़े तो समझ लें कि वह रोगमुक्त हो चुका है।
औषधियों से चिकित्सा करने पर यदि आप रोगी का ज्वर 48 घण्टे में न उतार सकें तो उसको तुरन्त किसी बड़े राजकीय चिकित्सालय में भिजवा दें । सन्निपात एक ऐसा भयानक रोग है, जिसमें रोगी की मृत्यु का डर रहता है। प्रत्येक चिकित्सक इस रोग की सफलतापूर्वक चिकित्सा नहीं कर सकता है। स्वस्थ हो जाने पर भी सन्निपात से बच्चे के मस्तिष्क को भारी हानि पहुँच सकती है। मस्तिष्क अपूर्ण रह जाना, बड़ी आयु में मिर्गी जैसे आक्षेप, बहरापन, दिमाग में पानी आ जाना और कई मानसिक रोग हो जाते हैं । सन्निपात से आराम आ जाने पर भी अस्पतालों में एक्स-रे लेकर उसके मस्तिष्क की परीक्षा की जाती है और उसके स्नायुओं (तन्त्रिकाओं) व मस्तिष्क की हर प्रकार की जाँच व परीक्षायें करने के बाद ही रोगी को अस्पताल से छुट्टी दी जाती है।
सुरक्षा – रोगी को अन्धेरे कमरे में आराम से लिटाये रखें । वहाँ किसी प्रकार का शोरगुल न हो । वयस्क रोगी के ज्वर को कम करने के लिए सिर और शरीर पर बर्फ की थैली रखें । साबुन को ठण्डे पानी में घोलकर एनिमा करके पेट साफ करने के बाद बर्फ के ठण्डे पानी का एनिमा करें । सिर को बाकी शरीर से ऊँचा रखें । टाँगों की पिण्डलियों पर राई का प्लास्टर लगायें अथवा टाँगों को गरम पानी की बोतलें रखकर गरम करें । जब तापमान कम हो जाये तब रोगी को कम्बल से ढँक दें । चूँकि यह एक घातक रोग है, इसलिए तुरन्त प्रारम्भ कर देना परम आवश्यक है ।
• किसी भी प्रकार के कीटाणुओं से सरसाम हो जाये तो रोगी को तुरन्त इन्जेक्शन क्रिस्टापेन (निर्माता : ग्लैक्सो) लगायें । यह बेंजिल पेनिसिलिन से निर्मित इन्जेक्शन है। इसकी टिकिया तथा शर्बत के लिए ग्रेन्यूल्स मिलते हैं।
• वयस्क रोगी दवा खाने के योग्य हो तो उसकी सल्फाडायजीन की 4 टिकिया प्रथम मात्रा में दें । इसके बाद प्रत्येक 4-4 घण्टे के अन्तराल से 2-2 टिकिया पानी के ग्लास में सोडा-बाई-कार्ब घोलकर खिलाते रहें। रोगी को पानी में सोडा- बाई-कार्ब घोलकर बार-बार पिलाते रहें। 24 घण्टे में 6 ग्राम तक सोडा-बाई-कार्ब (थोड़ा-थोड़ा करके) दे सकते हैं। इससे रोगी का मूत्र क्षारीय हो जाता है ।
• Croton Oil (जमालगोटे का तेल) एक बूंद जीभ पर डालें।
• एण्टेरोमायसिटीन (निर्माता : डेज) – आवश्यकतानुसार 1 से 2 मि.ली. का गहरे मांस में प्रत्येक 6-6 घण्टे बाद इन्जेक्शन लगायें । इससे बेहोश रोगी होश में आ जाता है। इसी के 250 मि.ग्रा. के कैपसूल, सीरप और बड़ों के लिए 500 मि.ग्रा के केप्लेट्स मिलते हैं । मात्रा – 25 से 50 मि.ग्रा. प्रति किलो शारीरिक भार के अनुपात से प्रतिदिन कई मात्राओं में बाँटकर प्रत्येक 6-6 घण्टे पर दें ।
नोट – यही औषधि ‘पार्कडेविस कंपनी’ क्लोरोमायसेटिन, ‘बी. नाल कंपनी’ पैराक्सिन, ‘पी. सी. आई. कंपनी’ फेनिमायसिन 500 के नाम से बनाकर बेचती है ।
• रोगी को होश आ जाने पर क्लोरोमायसेटीन 250 मि.ग्रा. का 1-1 कैप्सूल प्रत्येक 6-6 घण्टे पर जल से खिलाते रहें ।
• कान में सूजन हो जाने के बाद यह रोग हो जाने पर पैनिसिलीन के इन्जेक्शन लगाने के साथ ही साथ सल्फाडायजीन की टिकिया खिलाने से रोगी को मरने से बचा लिया जाता है ।
• बार-बार कै व मितली होने पर लार्जेक्टिल की 1-1 टिकिया प्रत्येक 6-6 घण्टे पर खिलायें ।
• रोगी के अधिक बड़बड़ाने पर हाइयोसीन हाइड्रोब्रोमाइड 0.3 मि.ग्रा. (1 मि.ली) का इण्ट्रामस्कुलर इन्जेक्शन लगायें ।
नोट – उपरोक्त औषधियों के अतिरिक्त एण्टीमैनिगोकोक्कस सिरम, सोल्यू सेप्टेसीन भी लाभकारी है। यदि इस रोग का कारण क्षय (T.B.) है तो स्ट्रेप्टोमायसिन 1 ग्राम (इन्जेक्शन) प्रतिदिन, स्ट्रेप्टोबिन प्रतिदिन माँसपेशी में रोग की उग्रता के अनुसार । स्ट्रेप्टोपास रोग की उग्रता के अनुसार, इसके पश्चात् लम्बर पंक्चर करके तरल पदार्थ निकालकर परीक्षा करायें तथा 20 से 50 मि.ग्रा. सुई से उक्त स्थान पर सूचीवेध करें अथवा इसी प्रकार टीबीजाइड का प्रयोग करें और यदि रोग का कारण मैनिंगोकोकल उपसर्ग हो तो पेनिसिलीन काफी मात्रा में सुबह-सायं दें । यदि रोग का कारण वायरस (Virus) हो तो उपरोक्त चिकित्सा के साथ-साथ टेरामायसिन, रिवेरिन का रोग की तीव्रतानुसार सूचीवेध करें । इस रोग में आक्षेप को दूर करने के लिए आक्षेपहर औषधियाँ जैसे – कैल्सीब्रोनेट 10 सी.सी. शिरा द्वारा, पैराल्डीहाइड 5 सी.सी. माँसपेशी द्वारा इत्यादि दवाओं का प्रयोग करना चाहिए ।
एण्टीबायोटिक अन्य पेटेण्ट औषधियों में लेडरमायसिन, होस्टासायक्लिन, एल सायक्लिन इरिथ्रोमायसिन अादि भी लाभकारी हैं ।