शरीर के बड़े जोड़ों, छोटी संधियों, पेशियों आदि में होने वाली पीड़ा तथा ऐंठन को ही वातजनित वेदना कहते हैं। यहाँ पर इसकी दवाओं का वर्णन किया जा रहा है । ध्यान रखने की बात यह है कि यहाँ बताई जा रही दवायें प्रायः समस्त प्रकार के वात-रोगों में उपयोगी सिद्ध होती हैं अतः इन दवाओं का यहाँ पर विस्तृत वर्णन किया जा रहा है ।
रसटॉक्स – यह शीत प्रकृति की दवा है । इस दवा के रोगी का दर्द शरीर के किसी भी भाग की माँसपेशी में हो सकता है । इस औषधि की विशेष क्रिया माँसपेशियों, श्लैष्मिक झिल्लियों, स्नायुमण्डल, त्वचा इत्यादि पर अधिक होती है। वात, सन्धिवात, स्नायुशूल, कमर में दर्द एवं साइटिका के दर्द में जब ऐंठन की तरह पीड़ा होती है, तब रसटॉक्स से बहुत आराम होता है। पर यहाँ समझने की विशेष बात यह है कि इसका दर्द आराम करने से बढ़ता है, चलने-फिरने यानि हरकत करने से घटता है। इसका रोगी नम हवा, ठंड, शीत आदि सहन नहीं कर सकता, इससे उसके रोगों में वृद्धि हो जाती है। ब्रायोनिया के लक्षण इसके ठीक विपरीत हैं इसलिये रसटॉक्स के लक्षण जहाँ मिलें वहाँ ब्रायोनिया के साथ भी अवश्य ही लक्षण प्रभेद कर लेना चाहिये, क्योंकि दोनों दवायें एक-दूसरे की पूरक भी हैं और विरुद्ध आचरण वाली भी। रसटॉक्स में जहाँ हिलने-डुलने से रोगी को आराम मिलता है वहीं ब्रायोनिया में चुपचाप रहने व बिना हिले-डुले रहने पर रोगी को लाभ मिलता है। बरसात में भीगने से जो रोग उत्पन्न होते हैं, उनमें भी रसटॉक्स का विशेष महत्व है। मवाद भरी फुन्सियों तथा आमवात की सूजन में भी इसका सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। दर्द की स्थिति में इसे 30 या 200 शक्ति में प्रयोग करना चाहिये। यदि आवश्यकता हो तो 1M में भी प्रयोग की जा सकती है।
ब्रायोनिया – यह गर्म प्रकृति की दवा है। इसके रोगी की प्रकृति वातपित्त प्रधान होती है। इसका मुख्य लक्षण है- हिलने-डुलने से दर्द बढ़ना। दूसरा मुख्य लक्षण है कि शरीर के किसी भी भाग में सुई गड़ने का सा दर्द हो तो इस दवा को मुख्य रूप से याद करना चाहिये (स्मरण रहे कि काली कार्ब में भी सुई चुभने की तरह का दर्द होता है) । दर्द वाली जगह को सेंकने तथा गर्म पदार्थों के सेवन से रोग-वृद्धि और दर्द वाले स्थान को दबाने से ददों में कमी होती है। इन सबके अलावा इस दवा का एक और प्रमुख लक्षण है- सभी श्लैष्मिक झिल्लियों का सूखापन-जीभ, मुँह, पाकाशयसब जगह का सूखापन । इसके अन्य लक्षण हैं- कटिशूल, बड़ी सन्धियों में दर्द, दर्द कभी-कभी अपना स्थान यकायक बदल दें, दर्द वाली जगह फूली एवं लाल-गर्म रहती है और जरा-सा हिलने-डुलने से तकलीफ और बढ़ जाती है। बिजली की तरह चमककर चले जाने वाले दर्द के लिये यह एक प्रभावकारी औषधि है। घुटनों में कड़ापन व दर्द में भी इसका प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है। इस दवा को 30 या 200 शक्ति में लक्षणानुसार प्रयोग करें ।
अनुभव- मेरे एक मित्र, जो स्वयं होमियोपैथ हैं, एक दिन उनके यहाँ मैं बैठा था कि मेरे मित्र के पिताजी ने बताया कि उनकी श्रीमती के दाँये । घुटने में करीब पाँच-छः वर्षों से दर्द है। इससे उनका ठीक से हिलना-चलना हैं। यदि चलती-फिरती हैं तो दर्द बहुत बढ़ जाता है। प्रारम्भ में डॉक्टरों ने उनको रसटॉक्स दिया पर इससे उनको कोई लाभ नहीं हुआ। फिर कई दवायें पेटेन्ट भी दिये गये। उनको एलोपैथिक इलाज भी दिया गया किन्तु लाभ न हुआ। मैंने केवल इन लक्षणों पर कि- दर्द चलने-फिरने से बढ़ जाता है, दाँई तरफ है, घुटने का मूवमेन्ट ठीक से नहीं हो पा रहा-उन्हें ब्रायोनिया 30 तथा नैट्रम सल्फ 12x दिन में तीन बार लेने को कहा। प्रारम्भ में दर्द कुछ बढ़ा पर एक सप्ताह में काफी कम हो गया और घुटना ठीक से काम करने लगा। चलने-फिरने में तकलीफ भी जाती रही। इसके बाद ब्रायोनिया 200, तीन दिन के अन्तर से लेने को कहा। नैट्रम सल्फ 12x बराबर चालू रखी। दवा की शक्ति इसलिये बढ़ानी पड़ी क्योंकि रोग काफी पुराना था। दो सप्ताह में दर्द विल्कुल चला गया, अब उनके घुटने में दर्द नहीं रहा।
लीडम पाल – यह ऐसे गठिया वात के दर्द की दवा है जिसमे दर्द नीचे से प्रारम्भ होकर क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ता जाता है। इसका रोगी गर्म प्रकृति का होता है। यह दवा नये-पुराने- दोनों ही प्रकार के वात, गठिया तथा माँसपेशियों के दर्द में काम करती है । दर्द वाला भाग ठंडा रहता है। रोगी का शरीर भी ठण्डा होता है, पर इसके बावजूद इसका रोगी अपने दर्द वाले स्थान को ठण्डे पानी या बर्फ के पानी में डुबाये रखना चाहता है, बर्फ का सेक करता रहता है। ऐसा करने से रोगी को शान्ति मिलती है। दर्द वाली जगह को ढकने या गर्म सेक से दर्द बढ़ जाता है। इसके वात का दर्द तिरछा चलता है। यह टिटेनस की प्रतिषेधकं दवा भी है। 30 या 200 शक्ति में प्रयोग करें ।
कैल्मिया लैटिफोलिया – इसका रोगी भी वात प्रकृति का होता है। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि लीडम पाल के विपरीत इसका दर्द ऊपर से नीचे की ओर बढ़ता जाता है। दर्द एक स्थान से दूसरे स्थान पर चला जाता है यानि कि दर्द अपना स्थान बदलता रहता है । वात रोगी को यदि हृदय बना देती है। रोगी को रात्रि में, खासकर हड्डियों में, दर्द होता है। घुटने की निचली हड्डियों का दर्द टीस मारने या भाला चुभने जैसा होता है। सामान्यतया कैल्मिया की पीड़ा बॉये भाग के ऊपरी भाग से प्रारम्भ होकर नीचे की तरफ बढ़ती जाती है । डॉ० सरदारमल जैन ने अपनी पत्रिका होमियो सेवक’ में एक केस का हवाला देते हुये लिखा है कि कूल्हे पर यदि आघातजनित चोट लग जाये तो डॉ० वे का कथन है कि इस स्थान की चोट के लिये कैल्मिया से बढ़कर दवा नहीं है। हिप ज्वॉइन्ट के वातजनित पक्षाघात की भी यह बहुत लाभकारी दवा है। मेरे एक सहपाठी विगत कई माह से कन्धे के दर्द से परेशान थे। उनका दर्द कन्धे से शुरू होकर क्रमशः गर्दन तक बढ़ता था। पहले उन्हें कैल्मिया 30 की कुछ मात्रायें दी गई, उनका दर्द कम होने लगा पर कभीकभी बहुत जोर का उठ जाता, इस पर उन्हें 200 शक्ति में यह दवा दी गई, अब वे पूर्णतः स्वस्थ हैं।
रोडोडेन्ड्रॉन – यह भी वात-रोग की महत्वपूर्ण दवा है। कुछ चिकित्सकों का तो यहाँ तक कहना है कि वात-रोग की यह प्रतिषेधक दवा है। इसका प्रमुख लक्षण है- इसके सभी रोग ऑधी आने और बिजली कड़कड़ाने से बढ़ते हैं पर ऑधी निकल जाने पर घट जाते हैं। छोटे-छोटे स्थानों के दर्द में जो यकायक उठता है, दर्द स्थाई नहीं रहता, कभी एक जोड़ में तो कभी दूसरे जोड़ में चला जाता हैं, अचानक ठीक हो जाता है, दर्द प्रारम्भ होने से पूर्व शरीर का तापमान कम हो जाता है -आदि में लाभप्रद हैं । रसटॉक्स की तरह इसका दर्द भी हिलने-डुलने, हरकत करने, गर्म सेक से घटता है। रोडोडेन्ड्रॉन की तरह रसटॉक्स का दर्द भी हवा-पानी से बढ़ता है किन्तु दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि रोडोडेन्ड्रॉन का दर्द अँधड़-तूफान आने से पहले बढ़ता है और वर्षा से घट जाता है जबकि रसटॉक्स का दर्द बरसात होने पर बढ़ता है। इसलिये रसटॉक्स का दर्द माँस-पेशियों में पूरी वर्षा ऋतु तक बना रहता है। दर्द एक जोड़ से दूसरे जोड़ में घूमते रहना रोडोडेन्ड्रॉन का लक्षण है, रसटॉक्स का नहीं ।
एक्टिया रेसिमोसा – इसका दूसरा नाम सिमिसिफ्यूगा है। यह शीतप्रधान औषधि है। स्त्रियों की बीमारी जैसे- हिस्टीरिया इत्यादि में भी इसका खूब उपयोग होता है। शरीर के बाँये भाग में इस दवा की विशेष क्रिया होती है। बॉयी गर्दन, बाँये कन्धे तथा बाँये उरु के स्नायविक ददों में यह दवा डॉ० घोष के अनुसार विशेष क्रिया करती है। इसके दर्द की गति बिजली की भाँति होती है, दर्द माँसयुक्त स्थानों में अधिक होता है, हरकत से बढ़ता हैं। रोगी जिस करवट लेटता है उसी तरफ की माँसपेशियों में कम्पन्न का होना इसका विशेष लक्षण है। यह बाँई ओर के साइटिका के लिये भी विशेष रूप से लाभप्रद है। इस दवा का प्रयोग करते समय इसके मानसिक लक्षणों पर भी विशेष रूप से ध्यान रखने की जरूरत है। मानसिक लक्षणों से मेल खाने पर यह दवा बहुत ज्यादा उपयोगी माननी चाहिये। इसे 30 या 200 शक्ति में प्रयोग करें।
एक्टिया स्पाइकेटा – यह दवा छोटी-छोटी सन्धियों के ददाँ जैसे- कारपस मेटा आदि के ददों में प्रयुक्त होती है । एड़ी तथा निम्नांगों की सूजन, घुटनों की कमजोरी इत्यादि में यह विशेष रूप से काम करती है। छोटी-छोटी सन्धियों के वात में तथा गाँठों के वात में कोलोफाइलम बहुत उपयोगी हैं। इस औषधि का प्रयोग 30 शक्ति में करें |
मेडोरिनम – इसे वात की महौषधि कहा जा सकता है । पुराना सन्धिवात, छोटी-छोटी सन्धियों का वात, समस्त शरीर का वात, स्नायु-शूल आदि में इससे आश्चर्यजनक लाभ होता है । अगर सूजाक के कारण वात-रोग हुआ हो तो यह अमोघ औषधि है । इसे 200 या इससे भी उच्चशक्ति में दें ।