क्षयरोग को तपेदिक और टी.बी.भी कहते हैं। ‘माइकोबैक्टिरियम ट्यूबरकुलोसिस’ नामक जीवाणु के संक्रमण से यह रोग उत्पन्न होता है। जो लोग शरीर और स्वास्थ्य से ज्यादा कमजोर होते हैं और जिनके शरीर में रोग-प्रतिरोधक शक्ति की कमी होती है, उन्हीं को यह कीटाणु अधिक प्रभावित करता है।
टीबी के लक्षण
1. इसका सबसे पहला और मुख्य लक्षण खाँसी आना है। यह खाँसी रात और प्रात: काल के समय ज्यादा चलती है। इलाज से भी खाँसी बंद नहीं हो पाती। 2. हलका-हलका बुखार रहने लगता है।
3. शरीर दुबला व कमजोर रहने लगता है।
4. नाड़ी की धड़कन तेज हो जाती है।
5. सीने में दर्द रहने लगता है।
6. स्त्रियों में मासिक स्राव अनियमित हो जाता है।
7. शरीर का वजन घटने लगता है।
8. चेहरा पीला, कांतिहीन पड़ जाता है।
9. रात में पसीना आता है।
10. रोग का प्रभाव बढ़ने पर खाँसी में कफ के साथ खून आने लगता है।
इन्हीं लक्षणों के आधार पर तपेदिक (क्षय) रोग की पहचान की जाती है।
जटिलताएं
तपेदिक रोग सिर्फ फेफड़ों में ही नहीं होता। कई बार यह फेफड़ों के अलावा दूसरे अंगों पर भी होता है यथा, स्त्री जननांग, जोड़ एवं हड्डी, गुर्दे, आमाशय एवं आंतें, लिम्फ नोड्स, दिमाग, त्वचा आदि। ऐसी अवस्था में तुरन्त निदान आवश्यक है, अन्यथा रोगी की जान को खतरा रहता है।
विभिन्न अंगों पर क्षयरोग होने की अवस्था में विशेष अंग पर उसी अंग से संबंधित कुछ अन्य लक्षण भी मिलते हैं। जैसे गुर्दों की तपेदिक में बार-बार पेशाब आना, पेशाब में खून आना एवं पेशाब करने में कष्ट होना। रोगी पेशाब के वेग को रोक नहीं पाता और गुर्दे का आकार भी बढ़ जाता है।
दिमाग के तपेदिक में, दिमाग की झिल्लियों की सूजन, गर्दन में अकड़ाव एवं मेनिनजाइटिस के अन्य लक्षण हो सकते हैं।
अवस्थाओं और लक्षणों के आधैर पर दवाइयों का चुनाव किया जाता है।
टीबी की दवा
‘वेसीलाइनम’, ‘ट्यूबरकुलाइनम’, ‘फॉस्फोरस’, ‘कालीकार्ब’, ‘आर्सेनिक आयोड’, ‘ड्रोसेरा’, ‘सल्फर’, ‘एकोनाइट’, एवं ‘एपिकॉक’ औषधियाँ अत्यंत फायदेमंद साबित होती हैं। कुछ दवाओं के मुख्य लक्षण निम्न प्रकार हैं-
बेसीलाइनम : यह दवा तपेदिक रोग से क्षतिग्रस्त फेफड़े के टुकड़े से बनाई जाती है। इसके प्रमुख लक्षणों में सांस लेने में तकलीफ होना एवं मुंह से बलगम निकलना, छाती की जकड़न, दुबला-पतला शरीर, कंधे झुके हुए, रोगी का थका हुआ और उदास दिखाई देना, जरा-जरा में सर्दी खांसी होना, रात और सुबह परेशानियों का बढ़ना (प्रारंभिक अवस्था) आदि लक्षण प्रमुख हैं। दवा प्राय: उच्च शक्ति में ही प्रयुक्त की जाती है एवं एक हफ्ते में दो-तीन खुराकें ही पर्याप्त हैं।
ट्यूबरकुलाइनम : यह दवा तपेदिक रोग से गल रहे फेफड़े में पड़े फोड़े के मवाद से बनाई जाती है। इसका मरीज बहुत दु:खी एवं उदास रहता है, रात में नींद नहीं आती, चिड़चिड़ाहट रहती है, जानवरों से भय प्रतीत होता है, गले में टॉन्सिल बढ़े एवं सूजे रहते हैं, सांस जल्दी-जल्दी लेता है, कड़ा बलगम निकलता है, दम घुटने लगता है, खुली हवा में भी बेचैनी बनी रहती है, खुली एवं ठंडी हवा में कुछ राहत महसूस करता है, बच्चों में निमोनिया रोग के लक्षण प्रकट होते हैं, अत्यधिक पसीना आता है, वजन कम होने लगता है, अत्यधिक खांसी रहती है, छाती में सीटी जैसी आवाजें सुनाई पड़ती हैं, घूमने-फिरने से, खड़े रहने से परेशानी बढ़ जाती है। यह दवा भी उच्च शक्ति में कुछ खुराक ही दी जाती है।
फॉस्फोरस : रोगी हमेशा खांसता रहता है, सूखी खांसी, किन्तु अत्यधिक कष्ट, शाम को गला बैठ जाना, हलका बुखार बना रहना, धीरे-धीरे कमजोरी बढ़ती जाना, भूख न लगना, रात में पसीना आना, वजन घटते जाना, छाती में अत्यधिक जकड़न, गर्मी महसूस करना, बाईं तरफ लेटना अधिक कष्टप्रद, खून के साथ बदबूदार बलगम, लंबे, पतले युवकों में ठंडा पानी पीने की इच्छा, किन्तु पीने के थोड़ी देर बाद उल्टी कर देना, चलने-फिरने में कमजोरी महसूस करना, छूना भी कष्टप्रद, ठंडे खाने से, ठंडी हवा में, ठंडे पानी से एवं सोने के बाद आराम महसूस करना आदि लक्षणों के आधार पर 30 एवं 200 शक्ति की दवा अधिक कारगर है।
कालीकार्ब : रात को तीन बजे खांसी का जोर बढ़ना, पूरे देह से पसीना छूटना, सीने में दर्द एवं खोखलापन लगना, पूरे शरीर में सुई-सी चुभना, पेट में खालीपन, बोलना भी कष्टप्रद, रात्रि में परेशानी, गर्मी से एवं दिन में आराम मिलना आदि लक्षणों के आधार पर 30 शक्ति की दवा देनी चाहिए। फिर दो सप्ताह बाद तीन-चार खुराक 200 शक्ति की देनी चाहिए। फिर कुछ दिनों तक असर देखना चाहिए यानी कुछ दिनों तक दवा नहीं देनी चाहिए।
आर्सेनिक आयोड : यह दवा सभी प्रकार के क्षयरोग के लिए उपयोगी है। ठंड लगकर बार-बार जुकाम होना, नाक में बलगम भरा रहना, वजन घटता जाए, दोपहर में बुखार एवं पसीना, पतले दस्त, गर्दन की ग्रंथियां (लिम्फ नोड्स) बड़े हुए, नाक में सूजन, छीकें आना आदि लक्षणों के आधार पर 3x शक्ति की दवा की 4-5 गोलियां कुछ समय तक लेते रहना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है।
ड्रोसेरा : हड्डी और ग्रंथियों के क्षय में यह दवा सर्वोपरि है। कुकुर खांसी की यह प्रसिद्ध दवा है। नाक एवं मुंह से कभी-कभी खून भी आने लगता है, खांसी के साथ अत्यधिक तीव्रता के साथ, पीले बलगमयुक्त खांसी (कुकुर खांसी), आधी रात के बाद परेशानी बढ़ जाना, गले में खराश, आवाज बैठ जाना, गले में सूजन एवं दर्द, बात करने से सांस फूलना, पानी पीने में परेशानी, बातें करना भी कष्टप्रद, सिरदर्द, चक्कर आना आदि लक्षण प्रमुख हैं। साथ ही वंशानुगत प्रभाव से होने वाले क्षय के लिए ‘ड्रोसेरा’ उत्तम दवा है। 30 से उच्च शक्ति तक की दवा की दो-तीन खुराकें ही पर्यात होती हैं।
बचाव एवं उचित आहार विहार
वैसे तो आम तौर पर अस्पताल में बच्चा पैदा होने पर छुट्टी देने से पहले ही बी.सी.जी. का टीका लगा दिया जाता है, जो बच्चे को क्षयरोग से बचाता है, किन्तु किसी कारणवश टीका लगवाना संभव न हो, तो ‘ट्यूबरकुलाइनम’ दवा 10000 से C.M. नम्बर तक की एक खुराक ही रोग-प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने के लिए पर्यात है। बड़ों को भी यह दवा दी जा सकती है। वंशानुगत क्षयरोग होने पर ‘ड्रोसेरा’ नामक दवा अत्यंत उपयोगी है। क्षय के रोगी को खान-पान का विशेष ध्यान रखना चाहिए। गेहूं के चोकर मिले आटे की चपाती, छिलकायुक्त मूंग की दाल, छिलकायुक्त चना, केला, आम (जिसमें खटास न हो), नारियल, खजूर, मुनक्का, आंवला, दूध, घी, शहद, काली मिर्च, सेंघा नमक, जीरा आदि का सेवन करना चाहिए।
ऐसे रोगी को खुले, हवादार, प्रकाशयुक्त स्थान में रहना चाहिए। सदैव प्रसन्नचित और बेफिक्र रहना चाहिए। प्रात: सूर्योदय से पहले शुद्ध वायु का सेवन (प्राणायाम) अत्यन्त फायदेमंद है। रोगी के ठीक होने तक उसके बर्तन एवं कपड़े गर्म पानी से धोने चाहिए एवं थूक, बलगम, पेशाब, पाखाना बंद डब्बों में कराकर जमीन में दबा देना चाहिए अथवा फ्लश का प्रयोग करना चाहिए। इसका जीवाणु संक्रामक होता है। बच्चों को रोगी से दूर रखना चाहिए। उचित इलाज और खानपान आदि से रोग सदा के लिए समाप्त हो जाता है।