यह रोग मुख्यतः पौष्टिक भोजन की कमी और धूल धुएँ भरे वातावरण में रहने से होता है । यही कारण है कि इस रोग से अधिकांशतः मजदूर वर्ग के लोग ही ग्रसित होते हैं । इसके अलावा- ताजी हवा-धूप न मिलने, मीठा ज्यादा खाने, नशा अधिक करने, अत्यधिक खाने आदि के कारण भी यह रोग हो जाता है । इस रोग में शरीर का आंतरिक रूप से क्षय होने लगता है अतः इसे क्षय-रोग भी कहा जाता है । इस रोग में- बार-बार खाँसी आना, कफ के साथ खून आना, हल्का बुखार सदैव बने रहना, सीने में दर्द, आना आदि लक्षण प्रकटते हैं । यह रोग संक्रामक होने के साथ-साथ वंशानुगत भी है अर्थात् पूर्वजों से संतानों को प्राप्त होता है । यों तो कभी-कभी ऑतों में भी टी० बी० का रोग हो जाता है लेकिन जहाँ केवल टी० वी० लिखा हो, वहाँ उसे उपरोक्त प्रकार का फेफड़ों का ही टी० बी० समझना चाहिये ।
ट्यूबरक्युलिनम 200, 1M- यह टी० बी० रोग की मुख्य दवा है । टी० बी० को किसी भी अवस्था में दी जा सकती है। इसे लक्षणानुसार ऊँची शक्ति में देते हुये परिणाम देखते रहना चाहिये क्योंकि नीची शक्ति में बारबार देने से हानि करती है । यह मुख्यतः गरम इलाकों में रहने वाले लोगों के टी० बी० की दवा है ।
बैसिलिनम 200, 1M- उक्त दवा की भाँति यह भी टी० बी० रोग की मुख्य दवा है । यह मुख्यतः ठण्डे इलाकों में रहने वाले लोगों के टी० बी० की दवा हैं ।
कल्केरिया कार्ब 30- यह दवा मुख्यतः मोटे लोगों के टी० बी० में उपयुक्त हैं । रक्त या मवाद मिला हरे रंग का कफ निकलना, ठण्डी हवा बदशित न होना- इन लक्षणों में दें ।
फॉस्फोरस 200– बोलने, हँसने, ठण्डी हवा लगने, हवा में घूमने आदि से रोग बढ़ जाता हो । मधुमेह या बवासीर के कारण टी० बी० का होना। लम्बे कद और चौड़ी छाती वाले रोगी को विशेष लाभप्रद है ।
एकालिफा इण्डिका 30, 200– तपेदिक के साथ भयंकर खाँसी, कफ के साथ खून आना, शाम के समय काला खून आये तो लाभदायक हैं ।
काली नाइट्रेट 30, 200– भयंकर खाँसी, खाँसी का दौरा बार-बार उठे, सारे शरीर में सूजन आ गई हो, तपेदिक के कारण पाचन-प्रणाली या गुदों के रोग हो गये हों तो लाभप्रद है । इसके साथ फॉस्फोरस को पर्यायक्रम से देने से लाभ जल्दी ही मिलता है ।
काबॉनियम सल्फ 200- कोयले की खानों में काम करने से तपेदिक होना, थका देने वाली खाँसी हो तो लाभ करती है ।
आर्सेनिक 30- रोग की सभी अवस्थाओं में, विशेषकर अंतिम अवस्था में जब अतिसार हो जाये तो लाभ करती हैं ।