यह ज्वर आँतों को सबसे पहले प्रभावित करता है अतः इसे आतंरिक ज्वर कहा जाता है। इस रोग में- कुछ विशेष प्रकार के जीवाणु रोगी की आँतों में पलने लगते हैं और वहाँ पर धीरे-धीरे घाव व जलन की-सी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं । रोगी को सदैव ज्वर रहता हैं जो क्रमशः बढ़ता ही जाता है । साथ ही- रोगी के गले, पेट, छाती, जाँघ आदि पर सफेद चमकदार दाने निकल आते हैं जिन्हें भरकर ढलने में 20-21 दिन लग जाते हैं । इस रोग में- सिर-दर्द, बेचैनी, प्रलाप, बेहोशी, पेट में दर्द, दस्त आदि लक्षण भी प्रकट होते हैं । यह रोग मुख्यतः दूषित पानी, दूषित फल-सब्जी, घर के आस-पास गन्दगी रहने आदि कारणों से होता है ।
बैप्टीशिया Q- रोग के आरंभ से अन्त तक इसी दवा का प्रयोग करने से रोगी ठीक हो जाता है और अन्य किसी दवा के प्रयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती । इस दवा के मुख्य लक्षण हैं- रोगी का तन्द्रा में रहना, जीभ पर कालापन, दाँतों पर मैल, नाड़ी मोटी व तेज चले, विस्तर में कड़ेपन की अनूभूति हो जिससे रोगी केवल करवटें बदलता रहे, सिर-दर्द रहे, गले में घाव हों, स्लेटी रंग के दस्त हों आदि ।
ब्रायोनिया 30- टाइफाइड की मुख्य औषध है जबकि किसी प्रकार हिलनेडुलने से घबराहट और शरीर में दर्द हो, सिर में भारीपन रहे, मुँह का स्वाद बार-बार पानी पीये, खाँसी उठती हो आदि ।
रसटॉक्स 30- शारीरिक दुखन, प्रलाप, सिर-दर्द, नकसीर फूटना, पीले भूरे और दुर्गन्धित दस्त होना, पेट में गैस बनना, जीभ पर सफेदी जमे किन्तु अग्रभाग लाल रहे ।
आर्सेनिक एल्ब 30-अत्यधिक शक्तिहीनता, शरीर में जलन, तेज प्यास रोग-लक्षणों में वृद्रि हो तो दें । इसे रोग के आरंभ में नहीं देना चाहिये।
आर्निका 30- रोगी को तन्द्रा रहे, श्वास में दुर्गन्ध आये, शरीर पर लाल या काले दाने निकल आयें, रोगी को अनजाने में ही मूत्र निकल जाता हो तो लाभप्रद हैं । इसे रोग के आरंभ में न दें ।
टायफाइडिनम 200– यह टाइफाइड की प्रतिषेधक औषध है । रोग आरंभ होने का सन्देह होते ही इसकी एक-दो मात्रा देने से रोग काबू में आ जाता हैं और अधिक बड़ा रूप नहीं ले पाता हैं ।