1926 में ‘मिनाट’ ने यह धारणा स्पष्ट की कि रक्ताल्पता (परनिशस एनीमिया) में यकृत की उपयोगिता है। ऐसे रोगियों को स्तनपायी जीवों का यकृत खिलाने से लाभ हुआ। इसके बाद डॉ० ‘कान्ह’ की टीम (जिसमें एक अत्यन्त मेधावी भारतीय कैमिस्ट डॉ० सुब्बाराव भी थे) ने इस खोज में बहुत योगदान दिया । फिर रक्ताल्पता में लीवर एक्सट्रेक्ट का प्रयोग कराया जाने लगा। खोज निरन्तर होती रही और सन् 1948 में अमेरिका और इंग्लैण्ड में यकृत से इस क्रियाशील तत्त्व को पृथक कर लिया। इसे विटामिन बी-12 नाम दिया गया । बाद में इसकी रासायनिक रचना के आधार पर इसे सायनोकोबलामीन (Cyanocobalamin) नाम दिया गया।
सर्वप्रथम इसे यकृत से प्राप्त किया गया था और तब लगभग एक सेर यकृत से केवल 15 मिलीग्राम (विटामिन बी-12) प्राप्त हुआ था। बाद में स्ट्रप्टोमाइसीज ग्रीसियस तथा स्ट्रेप्टोमाइसीज आरियोफेशियस नामक जीवाणुओं में क्रमश: स्ट्रेप्टोमाइसीन और ओरियो-माइसीन के निर्माण में इन फफूंदों के बचे हुए तत्त्वों से इस विटामिन की उपलब्धि की जाने लगी और तब इस उपयोगी और आवश्यक तत्त्व का सामूहिक निर्माण बहुत सस्ते मूल्य में सम्भव हो गया ।
प्रकृति में विटामिन B12 के निर्माण का एक मात्र उपाय जीवाणुओं द्वारा संश्लेषण है । पेड़ों (पौधों) और साग-सब्जी में यह विटामिन उपलब्ध नहीं होता है तथा इनके विपरीत पशुओं के प्राय: हर तन्तु में यह विटामिन होता है। जानवरों की आँतों में वहाँ उपस्थित जीवाणुओं द्वारा इसका जीव संश्लेषण होता है और वहाँ से रक्त में अन्वेषण। मनुष्य इस विटामिन का स्वयं संश्लेषण करने में समर्थ नहीं था । उसे दूसरे जानवरों से प्राप्त दूध, अण्डे, यकृत, मांस तथा दूसरे भक्ष्य तन्तुओं पर निर्भर रहना पड़ता है । पशुओं के यकृत में इसकी मात्रा अधिक होती है। इसके अतिरिक्त मछली, मांस, अण्डे और दूध में भी यह विटामिन थोड़ा बहुत पाया जाता है ।
विटामिन B12 गुलाबी लाल रंग की तरल वस्तु है जो ताप स्थायी (Thermostable) और नाइट्रोजन एवं फास्फोरस सहित कोबाल्ट 4% युक्त होता है। यह विटामिन रक्त के विकार को दूर करने के साथ दुष्ट या प्राणनाशी अरक्तता (Pernicious Anaemia) युक्त तन्त्रिकाजन्य लक्षणों (Neurologic Signs) तथा जिह्वा शोथ (Glossitis) को आराम पहुँचाता है। मैक्रोसायटिक एनीमिया में यह विटामिन उत्तम लाभप्रद है। यह विटामिन बी काम्पलेक्स का दूसरा सदस्य है ।
इस विटामिन की दैनिक मात्रा बहुत ही अल्प होती है, जबकि अन्य तत्त्वों की मात्रा मिलीग्राम में आंकी जाती है । वहाँ इसकी मात्रा मात्र 2 माइक्रोग्राम से 10 माइक्रोग्राम तक पर्याप्त है। इस विटामिन की मात्रा प्रारम्भ में 40 से 80 माइक्रोग्राम (नोट – 1 माइक्रोग्राम = 1 मिलीग्राम का शतांश) है ।
नोट – विटामिन B12 और फोलिक एसिड एक-दूसरे के स्थान पर कार्य कर सकते हैं, परन्तु विटामिन B12 अतिरिक्त कार्य स्नायविक सस्थान के पोषण में लाभकारी भी रहता है और इस हेतु फोलिक एसिड बेकार है। हाँ, यह आवश्यक है कि विटामिन B12 अवश्लेषण के लिए फोलिक एसिड उपस्थित हो।
शरीर के प्राय: सभी मैटाबोलिक कार्यों से विटामिन B12 का सम्बन्ध जोड़ा गया है। इसकी हीनता होने पर तज्जनित लक्षण मुख्यत: रक्त संस्थान, पाचन संस्थान, केन्द्रीय स्नायविक संस्थान में परिलक्षित होते हैं। शरीर की उपयुक्त वृद्धि के लिए यह आवश्यक समझा जाता है ।
विटामिन B12 की कमी से परनिशस एनीमिया की उत्पत्ति होती है। इस रोग में इस विटामिन का मुख द्वारा प्रयोग (गोली या सीरप के रूप में) करने की अपेक्षा इन्जेक्शन द्वारा प्रयोग करने पर 60 से 100 गुणा अधिक लाभ होता है। चिकित्सा के लिए इसका प्रयोग इन्जेक्शन द्वारा ही करना चाहिए। बच्चों की अपूर्ण वृद्धि और विकास की दशाओं में भी इस विटामिन का प्रयोग किया जाता है । विटामिन B12 के 2-4 इन्जेक्शन लगा देने से रोगी की शारीरिक, मानसिक कमजोरी दूर होने लग जाती है, भूख बढ़ जाती है, वजन और ताकत में वृद्धि हो जाती है । जीभ के छाले, सूजन इत्यादि 3-4 दिन में दूर हो जाते हैं। शरीर में रक्त की कमी चाहें किसी भी कारण से हो, दूर हो जाती है । शरीर में रक्त कम हो जाने की यह बहुत ही सफल औषधि है ।