यह जल में घुलनशील विटामिन (water soluble vitamins) है । इस तत्त्व के विषय के सम्बन्ध में आरम्भिक ज्ञान प्राप्त करने के इतिहास में नाविकों का बहुत सम्बन्ध है । नाविक महीनों तक बासी शुष्क और कृत्रिम भोजनों पर आश्रित रहते थे और शाक-सब्जी, फलों के तो दर्शन तक दुर्लभ हो जाते थे । ऐसे लोगों के मसूढ़ों से खून गिरने लगता था और दाँत ढीले पड़ जाते थे। तेरहवीं शताब्दी में चिकित्सकों के लेख इस विषय में मिलते हैं । इस रोग को ‘स्कर्वी’ नाम दिया गया । यह भी देखा गया कि हरे शाक-सब्जी और फलों के प्रयोग से यह रोग स्वत: ही ठीक हो जाता है। तब ऐसा माना गया कि हरे शाक एवं फलों इत्यादि में ऐसे तत्त्व हैं जो इस रोग को मिटाने वाले हैं। इस तत्त्व के विषय में कोई और जानकारी बहुत समय तक न थी । आहार में ‘स्कर्वी’ प्रतिकारक विटामिन के विषय में ज्ञान 20वीं शताब्दी में हुआ। सन् 1933 में इस विटामिन का नाम ‘एस्कार्बिक एसिड’ रखा गया । उसी वर्ष इसका रासायनिक संश्लेषण भी किया गया था !
यह जल में घुलनशील है। अब विशुद्ध रासायनिक एस्कार्बिक एसिड है जिसका औषध में प्रयोग किया जाता है । 1 मि. ग्रा. विटामिन ‘सी’ (एस्कार्बिक एसिड) 20 अन्तर्राष्ट्रीय यूनिट के बराबर होता है। यह विटामिन बिना रंग और बिना-गन्ध के कणों में होती है । इसका स्वाद खट्टा होता है । यह विटामिन रक्त के लाल कण बनाने में बहुत ही आवश्यक है। शरीर में विटामिन ‘सी’ की कमी हो जाने पर कैपीलरीज (कोशिकायें, रक्त कोशिकायें) की दीवारें फटने लग जाती हैं। रोगी के शरीर में कीटाणु पहुँचकर संक्रमण फैलाकर संक्रामक रोग उत्पन्न कर देते हैं । इसकी कमी हो जाने से समय से पहले आँखों में मोतियाबिन्द उतरने लग जाता है। यह विटामिन निशास्ता वाले खाद्य पचाकर शरीरांश बनाने के लिए जरूरी है । यह विटामिन घावों को भरने, पीप को शुष्क करने और टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए अनिवार्य है। इसकी कमी से स्कर्वी रोग के अतिरिक्त शरीर में रक्त की कमी हो जाती है । टूटी हड्डियाँ जुड़ नहीं पाती हैं और कमजोर हो जाती हैं । इसके अलावा विटामिन सी की कमी से रक्त विकार, चर्म रोग, मुख दुर्गन्धित, शारीरिक दुर्बलता, शरीर में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता की कमी, लकवा, रक्त-चाप, आलस्य, अजीर्ण, श्वेत प्रदर, सन्धिशोथ आदि रोग उत्पन्न होते हैं।
विटामिन ‘सी’ की कमी से-थोड़ा काम करने से थकावट, पुट्ठों की कमजोरी, साँस कठिनाई से आने लग जाना, भूख न लगना, मसूढ़ों का सूज जाना इत्यादि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं । मसूढ़े सूज जाने पर 50 से 75 मि. ग्रा. विटामिन ‘सी’ खिलाते रहने से मसूढ़ों की सूजन (Gingivitis) व पायोरिया को आराम आ जाता है ।
जब संखिया (आर्सेनिक) या सोना (Gold) से निर्मित औषधियाँ किसी रोगी को लम्बे समय तक खिलाते हैं तो इनके बुरे प्रभावों के कारण रोगी को चर्म की खुजली व शोथ, रक्तनिष्ठीवन (Haemoptysis) (फेफडों से रक्त आना) और रुधिर चिह्न (Petechial) (चर्म से रक्त आना) रोग हो जाते हैं । जिनमें 100 से 200 मिलीलीटर विटामिन ‘सी’ का शिरा में इन्जेक्शन लगाते रहने से रोग दूर हो जाता है ।
डॉ० Hosemann लम्बे अनुभवों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जब गर्भवती स्त्री के शरीर में विटामिन ‘सी’ की कमी हो जाती है तब उसको गर्भपात होने लग जाता है। इसलिए गर्भपात को रोकने के लिए विटामिन सी का प्रयोग अत्यन्त ही लाभकारी है।
आमाशय में घाव के रोगियों में विटामिन सी बहुत कम हुआ करती है। इसलिए रोगी को विटामिन ‘सी’ प्रयोग कराने से आमाशय और पाचानांगों के घावों को आराम आ जाता है । चम्बल (सोरायसिस) के रोगी और चेहरे पर फैलने वाले भयानक दाग के रोगी को विटामिन ‘सी’ अधिक मात्रा में प्रयोग करने से यह रोग दूर हो जाता है। अन्तड़ियों के घाव शीघ्र भरने, टूटी हड्डियाँ जोड़ने और आप्रेशन के बाद इस विटामिन का प्रयोग कराना परम लाभकारी है ।
न्यूमोनिया, क्षय रोग, जोड़ों की शोथ व दर्द, काली खाँसी, टायफाइड इत्यादि संक्रामक रोगों में रोगी के शरीर में विटामिन सी बहुत ही कम हुआ करती है। इसलिए इन रोगों में दूसरी (अन्य) औषधियों के साथ विटामिन सी प्रयोग कराने से रोगी तुरन्त स्वस्थ होने लगता है । मोतियाबिन्द उतरना शुरू होने पर रोगी को विटामिन सी युक्त खाद्य या विटामिन सी निर्मित औषधियाँ के प्रयोग से वह रुक जाता है ।
हृदय रक्त की अधिकता से फेल होने वाले (Congestive Heart Failure) में विटामिन ‘सी’ के प्रयोग से अधिक मूत्र आकर रोगी के शरीर की सूजन एवं कष्ट दूर हो जाते हैं। मूत्र में हीमोग्लोबिन आने पर विटामिन 300 मि.ग्रा. का मांस में कई दिन तक इन्जेक्शन लगाने से यह रोग दूर हो जाता है ।
विटामिन ‘सी’ शरीर में न रहने पर ही मनुष्य को संक्रमण और कीटाणुओं से रोग उत्पन्न होता है । रोगी को संक्रमण होते ही विटामिन ‘सी’ अधिक मात्रा में सेवन कराने से कीटाणुओं का संक्रमण और संक्रामक रोग दूर हो जाते हैं । संक्रामक ज्वर भी इससे शीघ्र दूर हो जाते हैं। विटामिन ‘सी’ शरीर में पहुँचते ही प्रत्येक प्रकार के संक्रमणों के प्रभाव को नष्ट कर देता है। इसके इन्जेक्शन का प्रयोग अधिक लाभकारी रहता है। यह विटामिन शरीर के भीतरी और बाहरी पुराने घावों को भरने में सहायता देता है। आमाशय और अन्तड़ियों के घाव, रिसने वाले नासूर, हड्डियों के नासूर से पीप (Pus) आते रहना इसके अतिरिक्त यह विटामिन फोड़ों को शीघ्र पकाकर उनकी पीप निकालती है और शरीर में उसके संक्रमण को दूर करती है, कीटाणुओं को नष्ट करती है, क्षय रोग (टी. बी.) का संक्रमण, नजला, जुकाम, सरसाम, जोड़ों का दर्द और शोथ से उत्पन्न ज्वर, प्रोस्टैट ग्लैण्ड का संक्रमण, आँख, नाक, कान, गले के संक्रमणों को भी दूर करती है तथा विषों को प्रभावहीन बनाती है। आग से जल जाने पर रोगी को बार-बार विटामिन ‘सी’ खिलाते रहने से दर्द और जलन तुरन्त दूर हो जाती है और जलने के कारण हुए घाव भी शीघ्र भर जाते हैं ।
आग से उत्पन्न घावों पर इसकी टिकिया पीसकर (इसका 3% घोल) बैन्डेज (गाज या पट्टी) अथवा किसी साफ स्वच्छ कपड़े में तर करके घाव पर रखने से कष्ट तुरन्त दूर हो जाते हैं ।
विटामिन ‘सी’ रक्त-वाहिनियों को लचीला बनाती है और उनकी कठोरता को दूर करती है । हृदय और रक्त संचार सम्बन्धी रोगों को भी यह दूर करती है और बड़ी आयु में रक्त-वाहिनियों को शक्तिशाली बनाकर यह बूढ़े मनुष्यों में शक्ति और स्फूर्ति उत्पन्न करती है । थकावट को दूर करना इसका विशेष गुण है ।
प्रत्येक प्रकार की एलर्जी जैसे – औषधियों और इन्जेक्शनों से उत्पन्न एलर्जी, भोजनों की एलर्जी, पित्ती उछलना, चर्म पर दानें निकलना, हे-फीवर की एलर्जी, नाक से पानी बहना, एक्जिमा, धूल मिट्टी से उत्पन्न कष्ट, विषैले जन्तुओं के काटने से उत्पन्न दर्द, कष्ट और जलन को विटामिन ‘सी’ शर्तिया दूर कर देती है। चलने-फिरने पर थक जाना, टाँगों में दर्द और कुड़ल पड़ना, हड्डियाँ टूटती प्रतीत होना, ऐण्ठन आदि कष्ट विटामिन ‘सी’ को खिलाते रहने से दूर हो जाते हैं और मनुष्य सम्पूर्ण दिन काम (परिश्रम) करते रहने पर भी नहीं थकता ।
यूरोप, अमेरिका के कई सुप्रसिद्ध चिकित्सक तो भयानक संक्रामक रोग जैसे – न्यूमोनिया, सरसाम, लाल ज्वर आदि में विटामिन सी खिलाते हैं । रोगी को इन ज्वरों में तापमान 105° F हो जाता है और बड़ी-बड़ी एण्टी बायोटिक दवाओं में भी लाभ नहीं होता है तो ऐसे असाध्य रोगियों को विटामिन ‘सी’ खिलाकर स्वस्थ किया जाता है । इसका इन्जेक्शन लगाने के कुछ घण्टे बाद ही ज्वर उतरना शुरू होकर तापमान सामान्य हो जाता है । कनफेड़े (Mumps) होने पर विटामिन ‘सी’ पानी में घोलकर थोड़ा-थोड़ा यह पानी 1-1 घण्टे बाद पिलाते रहने से कनपेड़ों का दर्द, सूजन और ज्वर दूर हो जाता है । अमेरिका के कई चिकित्सक विटामिन सी खिलाकर जोड़ों के शोथ और दर्द के पुराने रोगियों को (जिनके जोड़ हिल भी नहीं सकते थे) को चलने-फिरने के योग्य बना रहे हैं ।
• साँप के काटे रोगी को विटामिन ‘सी’ की गोलियाँ पीसकर और पानी में घोलकर प्रत्येक आधा-आधा घण्टे के अन्तर से पिलाने पर सर्प का विष प्रभावहीन हो जाता है।
• जिन रोगियों के मसूढ़े पिलपिले हैं, अँगुली से दबाने पर उनसे रक्त और पीप निकलने लगता हो, उनको इस विटामिन के निरन्तर प्रयोग से अवश्य आराम हो जाता है और फिर सख्त ब्रुश अथवा जोर से दातुन करने पर भी रक्त नहीं बहता है। मसूढ़े मजबूत हो जाने पर दाँत भी हिलने से रुक जाते हैं। इसके प्रयोग से पायोरिया के रोगियों को दाँत निकलवाने की आवश्यकता नहीं रहती है ।
• विटामिन ‘ए’ की भाँति विटामिन ‘सी’ भी आँखों की दृष्टि तेज करने में बहुत लाभकारी है। इस विटामिन के घट जाने से बड़ी आयु में मोतियाबिन्द हो जाता है ।
• नार्थ कारोलीना (अमेरिका) के डॉक्टर क्लैनर विटामिन ‘सी’ से इलाज करने में सबसे बड़े विशेषज्ञ माने जाते हैं । इन्होने विटामिन सी के इंजेक्शन लगाकर बच्चों के पोलियो रोग तक को दूर कर दिया । बूढ़े रोगी जो न्यूमोनिया से ग्रस्त थे विटामिन ‘सी’ का एक ही इन्जेक्शन लगाकर उनका यह रोग दूर कर दिया ।
• जब कभी ज्वर अथवा अन्य कोई दूसरा कष्ट हो जाये और चिकित्सा न हो तो विटामिन ‘सी’ की गोलियाँ पीसकर पानी में घोलकर आधा-आधा घण्टे बाद थोड़ा-थोड़ा पानी पीते रहने से रोग के कष्ट कम हो जाते हैं और फिर चिकित्सा कराने की जरूरत नहीं पड़ती है। कैल्शियम की भाँति यह विटामिन भी टूटी हड्डियों को जोड़ने में सहायता देता है। बुढ़ापे में हड्डियाँ टूट जाने पर रोगियों को विटामिन ‘सी’, कैल्शियम और प्रोटीन बार-बार खिलाना लाभकारी है ।
• चर्म में लचक न रहने पर मनुष्यों के चेहरे और शरीर पर झुर्रियाँ पड़ जाया करती हैं। यदि आप वृद्धावस्था में सुन्दर और जवान बने रहना चाहते हैं तो विटामिन ‘सी’ का अधिक मात्रा में प्रयोग अवश्य करते रहें ।
• विटामिन ‘सी’ शरीर में सीमेंट के सदृश जोड़ने वाली चीज को बनाती है जो रक्त वाहिनियों की भित्तियों (दीवारों) को सुदृढ़ बनाये रखती है अन्यथा इसके अभाव में रक्त में से लाल कण कोशिकाओं में से रिस-रिस कर बाहर आ जाते हैं, परिणामस्वरूप रोमकूपों में, त्वचा के नीचे पेशियों में, दाँत की जड़ में और अस्थियों तथा सन्धियों में रक्तस्राव होने लग जाता है । फ़ोलिक एसिड रक्त कणों का निर्माण करता है । यह विटामिन आन्त्र को विकार रहित एवं प्राकृतिक (नार्मल) बनाये रखता है और समस्त शरीर को संक्रामक व्याधियों से सुरक्षित रखने के लिए रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता (इम्युनिटी) को बढ़ाती है। विटामिन ‘सी’ दाँतों एवं विभिन्न अस्थियों को बनाने में बहुत ही उपयोगी है, क्योंकि इसकी कमी से बच्चों के दाँत निकलने में कष्ट होते हैं। वयस्कों के दाँत गिरने लग जाते हैं, दन्तवेष्ट सूजन युक्त हो जाते हैं तथा दाँतों से रक्तस्राव होता है। क्षतिग्रस्त तन्त्रिकाओं की पुनर्रचना (रिजेनेरेशन) के लिए भी विटामिन ‘सी’ आवश्यक है। काबोहाइड्रेट मेटाबोल्जिम से भी विटामिन ‘सी’ का कुछ सम्बन्ध है ।
स्कर्वी रोग की तो यह सर्वमान्य एवं सर्वश्रेष्ठ औषधि है ही, इसके अतिरिक्त संक्रामक विकारों जैसे – न्यूमोनिया, डिफ्थीरिया, क्षय रोग, काली खाँसी, श्वास संस्थान के अन्य संक्रमण, जीर्ण ज्वर, टायफाइड, मलेरिया में इसकी आवश्यकता बढ़ जाती है। अत: इसका प्रयोग करना चाहिए । मसूढ़ों, दाँतों तथा मुख के रोगों में, रक्ताल्पता तथा रक्त विकारों में, त्वचा रोगों एवं नेत्र रोगों में, डायबिटीज, एलर्जिक रोग (विशेषकर दमा) में, गर्भावस्था के अतिवमन में और शल्य क्रियाओं के बाद इसका प्रयोग अवश्य करना चाहिए । सन्धिवात और आमवात में भी यह लाभकारी है ।
विटामिन ‘सी’ का आत्मीकरण अधिकांश छोटी आँतों से होता है । पाचन संस्थान की अस्वस्थकर दशाओं अतिसार, संग्रहणी आदि में इस विटामिन का अधिक भाग मल के साथ निकल जाता है । इन अवस्थाओं में इन्जेक्शन द्वारा विटामिन ‘सी’ देने से रक्त में मात्रा तथा मूत्र में निष्कासन बढ़ जाता है । आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक एसिड की अनुपस्थिति में भी इस विटामिन का आत्मीकरण अपर्याप्त और असन्तोषजनक होता है। इस विटामिन का संग्रह पर्याप्त मात्रा में शरीर में होता है । यही कारण है कि आहार में इसकी हीनता होने पर भी कई महीनों बाद स्कर्वी रोग की उत्पत्ति हो जाती है । ग्रन्थिल तन्तुओं, विशेषकर एड्रिनल, पिट्यूटरी, कौपर्सल्यूटम तथा थाइमस में अधिक मात्रा में विटामिन ‘सी’ होता है और यकृत, प्लीहा, अण्डग्रन्थि, डिम्बग्रन्थि, मस्तिष्क, थायरायड, गुर्दा, फेफड़ा तथा हृदय में कुछ कम मात्रा में विटामिन सी का संग्रह होता है । शरीर से विटामिन ‘सी’ का निष्कासन मल-मूत्र और स्वेद द्वारा होता है। विटामिन सी शरीर के तन्तु कोषों की आक्सीडेशन रिडक्शन प्रक्रिया से प्रमुख कार्य तन्तु कोषों के बीच स्थित कोलेजन और रेटिक्यूलम नामक पदार्थों का निर्माण करना है ।
उपलब्धि – प्रकृति से यह तत्त्व हरी शाक-सब्जी और ताजे फलों में अधिक होता है। सन्तरा, नारंगी, नींबू तथा इसी जाति के दूसरे फलों में केला, कटहल, अंगूर, पोदीना, मुनक्का, दूध, चौलाई का साग, हरा धनिया, पपीता, अमरूद, अनन्नास, पत्ता गोभी, पालक, शलजम, मूली के पत्ते, टमाटर, बेर, सेब, चुकन्दर तथा ताजे और सूखे आँवलों में पर्याप्त मात्रा में यह पाया जाता है । यह आलू और करमकल्ला (पत्तागोभी) में भी पाया जाता है ।
250 ग्राम आलू से 30 मिलीग्राम विटामिन ‘सी’ प्राप्त होता है, जो दैनिक आवश्यकता की अधिकांश पूर्ति कर देता है । फलों और शाक-सब्जी के ऊपरी भाग में यह विटामिन अधिक होता है। फलों के पकने से पूर्व यह तत्त्व अधिक मात्रा में होता है । फलों के पक जाने पर यह तत्त्व निरन्तर घटता चला जाता है। दूध में इस विटामिन की मात्रा अल्प होती है। दालें, चना, गेहूँ, मटर को 8 घंटे पानी में भिगोने के पश्चात् गीली बोरी में रखने से अंकुर उत्पन्न हो जाते हैं इन अंकुरों वाले अनाजों में विटामिन ‘सी’ होता है ।
इन सबसे अधिक विटामिन ‘सी’ युक्त पदार्थ आँवला है। इस फल के ताजे रस में सन्तरे के रस से लगभग 20 गुना अधिक विटामिन ‘सी’ होता है। ताजा फलों, शाक सब्जी को गरम करने अथवा सुखाने से विटामिन ‘सी’ का अधिकांश भाग नष्ट हो जाता है परन्तु आँवले में यह विशेषता है कि (आँवले में कुछ ऐसे पदार्थ उपस्थित होते हैं जो) उबालने और सुखाने की क्रियाओं से विटामिन ‘सी’ को नष्ट होने से रक्षा करते हैं। आँवले का रस बहुत ही अम्लीय प्रतिक्रिया युक्त होता है और अम्लीय प्रतिक्रया भी विटामिन ‘सी’ पर रक्षात्मक प्रभाव रखती है । आँवलों को सुखाकर सावधानी से रखने पर इसके चूर्ण में विटामिन सी की पर्याप्त मात्रा को बचाया जा सकता है। ताजा फलों को कुचल कर शीघ्रता से धूप में सुखा लो, तत्पश्चात् सूखे हुए गूदे को पीस लो, इस प्रकार तैयार किये गये आँवला चूर्ण में 10 से 16 मिलीग्राम विटामिन ‘सी’ (प्रति ग्राम चूर्ण में) पाया जा सकता है ।
निम्नांकित फलों व शाक भाजियों में विटामिन ‘सी’ की अच्छी मात्रा होती है –
अमरूद, नीबू, नारंगी, आँवला, पपीता पका हुआ, अनन्नास, टमाटर (पका हुआ) चुकन्दर, करेला, हरी मिर्च और ताजा कालीमिर्च में। फलों और शाक-भाजियों में केवल ताजा होने पर ही यह विटामिन उपस्थित रहता है – रखने, सुखाने और पकाने से इनमें निहित विटामिन ‘सी’ का अधिकांश भाग नष्ट हो जाता है ।
दैनिक आवश्यकता – मनुष्य को इसकी हीनता जनित विकारों से बचाने के लिए (स्कर्वी से मुक्त) न्यूनतम दैनिक मात्रा 15 से 30 मि.ग्रा. आँकी गई है । इतनी मात्रा से हीनता जन्य लक्षण तो प्रकट नहीं होते हैं, परन्तु स्वस्थ रखने के लिए यह मात्रा पर्याप्त नहीं है अत: औसत दैनिक आवश्यकता 50 मिलीग्राम (1000 यूनिट) होनी चाहिए। आयु, अवस्था एवं शरीर के अनुसार मात्रा का निर्धारण करना चाहिए । धात्री काल में विटामिन सी की कुछ अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है । इसकी कमी होने की दशा में 100 मिलीग्राम का इन्जेक्शन प्रतिदिन (4-5 दिन) लगाने से पर्याप्त लाभ होता है । रोग की तीव्र अवस्था में 200 मिलीग्राम प्रतिदिन देना लाभप्रद है । ऐसी दशा में 10-12 दिन तक प्रतिदिन इन्जेक्शन लगाना आवश्यक है। तदुपरान्त मौखिक रूप से 50 से 100 मिलीग्राम (दिन भर में रोगी की दशा के अनुसार) 10-15 दिन तक प्रयोग कराना आवश्यक है ।
एक से डेढ़ वर्ष तक आयु के बच्चों को 50 मिलीग्राम का इन्जेक्शन प्रतिदिन माँस में अथवा टिकिया के रूप में मुख द्वारा प्रयोग कराना लाभप्रद है । शिशुओं को यह विटामिन नारंगी, आँवला, मौसमी रस में मिलाकर पिलायें ।
निम्नलिखित में से किसी एक का प्रयोग करने से 20 मिलीग्राम विटामिन ‘सी’ प्राप्त हो सकता है किन्तु यह उपयोग के समय ही ताजे तैयार करने चाहिए –
सन्तरे का रस | 50 सी० सी० |
नारंगी का रस | 50 सी० सी० |
नीबू का रस | 50 सी० सी० |
करमकल्ला का शोरबा | 70 सी० सी० |
पालक का शोरबा | 100 सी० सी० |
टमाटर का रस | 100 सी० सी० |