इस तत्त्व की खोज सर्वप्रथम सन् 1922 में ‘ईवान्स’ और ‘विशाप’ नामक वैज्ञानिकों द्वारा की गई। उन्होंने इस तत्त्वहीन भोजन का प्रयोग मादा चूहों पर किया, इससे उनमें बाँझपन उत्पन्न हो गया और यदि गर्भ रहा भी तो गर्भपात हो गया अथवा गर्भाशय में ही गर्भ की मृत्यु हो गई। बाद में इन्हीं मादा चूहों के भोजन में प्राकृतिक खाद्य पदार्थ बढ़ा देने पर उपर्युक्त दोष दूर हो गया और उन्हीं चूहों में सन्तानोत्पत्ति क्रिया ठीक से होने लगी । सन् 1922 में ही इस तत्त्व का नाम विटामिन दिया गया । इसकी खोज के 9 वर्ष पश्चात् इस विटामिन का प्रयोग औषध रूप में हुआ। डेनमार्क में ‘वागमोलर’ ने इसका प्रयोग गायों की बांझपन की चिकित्सा और कनाडा में स्त्रियों में गर्भपात और गर्भावस्था की विषाक्त अवस्थाओं की चिकित्सा में किया । इस विटामिन को गेहुँओं के अंकुरों से तैयार किये गये तेल और हरी पत्तियों में अधिक पाया गया। सन् 1938 में प्रोफेसर ‘कैटर’ अपने अन्य साथियों के साथ इस विटामिन के रासायनिक संश्लेषण में सफल हुए । यह विटामिन अपने अप्राकृतिक स्वरूप में स्थायी है । इस विटामिन को ‘टेकोफेराल’ भी कहा जाता है ।
विटामिन ‘ए’ और ‘डी’ की भाँति यह विटामिन भी वसा में घुलनशील है। यह विटामिन निम्न पदाथों में पाया जाता है –
अनाज – गेहूँ के अंकुरों और उनके तेलों में, बिनौले के तेल में, ताड़ के तेल में, हरी शाक-भाजियों (विशेषकर सलाद में), अण्डे की जर्दी, दूध और मक्खन में यह विटामिन कुछ अंश में पाया जाता है। चूँकि यह विटामिन स्थिर है, इसलिए ताप, अम्ल, क्षार आदि का इस पर प्रभाव नहीं पड़ता है, थोड़ा बहुत यह विटामिन मांस में भी पाया जाता है। अनाजों में यह विटामिन मक्का में सर्वाधिक है । सभी पशु इसकी उपलब्धि के लिए वानस्पतिक पदार्थों पर निर्भर रहते हैं। आटा पीसने की मशीन में गेहूँ को पीसने से इसके अंश नष्ट हो जाते हैं और इसी के फलस्वरूप उसमें विटामिन ‘ई’ नहीं रहता है। इसी तरह मशीन से कुटे सफेद चावलों में भी यह विटामिन नहीं रहता है। ऐसा अनुमान है कि भोजन में (एक स्वस्थ व्यक्ति में) 14 से 19 मिलीग्राम विटामिन ‘ई’ प्रतिदिन होनी चाहिए ।
यह विटामिन स्त्री और पुरुष दोनों में सन्तानोत्पादक शक्ति को स्थिर रखने हेतु भी आवश्यक है । पुरुषों में इसकी कमी से उनके शुक्राणुओं की कमी हो जाती है और धीरे-धीरे ऐसे व्यक्ति का वीर्य शुक्राणु विहीन हो जाता है। शुक्रग्रन्थि के शुक्राणु उत्पन्न करने वाले कोषों का ह्रास हो जाता है ।
स्त्रियों में इसकी कमी से डिम्ब ग्रन्थि और डिम्ब उत्पादन क्रिया पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। डिम्ब का शुक्राणु से संयोग भी ठीक से हो जाता है किन्तु भ्रूण की रचना के बाद की समस्त क्रियाओं के लिए विटामिन ‘ई’ की उपस्थिति आवश्यक समझी जाती है। ऐसी अवस्था में इस विटामिन की न्यूनता से गर्भ का विकास रुक जाता है और गर्भ का स्राव अथवा गर्भपात हो जाता है अथवा गर्भाशय में ही गर्भ मर जाता है।
उपर्युक्त मान्यताएँ 1922 में हुए अनुसन्धान के आधार पर थी, परन्तु 1952 में ‘स्किम शा’ और ‘एन्गल’ नामक वैज्ञानिकों ने अपनी खोज और अध्ययन के द्वारा यह प्रमाणित किया कि अब तक की उपर्युक्त मान्यताएँ निराधार थीं। बार-बार गर्भपात होने वाली स्त्रियों के रक्त में इस विटामिन की मात्रा, दूसरी स्त्रियों से किसी भी प्रकार कम नहीं पायी गई और न ही इस विटामिन के प्रयोग से उन्हें कोई लाभ ही हुआ। इस तरह अब विटामिन ‘ए’ को गर्भ संस्थापक विटामिन कहने का कोई आधार नहीं रहा है। कुल मिलाकर इस विटामिन के विषय में कोई निश्चित मत नहीं है कि इसका क्या कार्य-कलाप है और इसकी दैनिक आवश्यकता क्या है ? इसकी कमी से कोई भी लक्षण होता भी है अथवा नहीं ? मनुष्य शरीर में यह विटामिन पिट्यूटरी ग्लैण्ड, एड्रिनल और अण्ड ग्रन्थियों में सर्वाधिक पाया जाता है । फिर भी अधिकांश विद्वानों की राय में इस विटामिन की कमी से जो रोग हो जाते हैं अथवा जिन रोगों अथवा कष्टों में विटामिन ‘ई’ लाभप्रद हैं, वे निम्नांकित हैं ।
गर्भ न होना, बार-बार गर्भ गिर जाना
विटामिन ‘ई’ स्त्री को गर्भ न होने, बाँझपन, बार-बार गर्भ गिर जाने, मरा हुआ बच्चा उत्पन्न होने को रोकने हेतु आज संसार भर में प्रयोग किया जा रहा है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि उपरोक्त रोग अथवा कष्ट इस विटामिन की कमी का ही परिणाम है।
आग से जल जाना, कट जाना
आग से जल जाने वाले रोगियों के लिए विटामिन ‘ई’ जादू की भाँति लाभप्रद है। बुरी तरह जले हुए रोगी, दुर्घटनाओं में बुरी तरह कुचले गये रोगी, शिराओं के भयानक घाव अथवा किसी अंग के कटे हुए घाव में ‘गैंग्रीन’ हो जाने पर 600 यूनिट विटामिन ‘ई’ खिलाते रहने से जल जाने से उत्पन्न जलन, दर्द, खुजली, पानी बहना, चर्म सिकुड़ जाना और छाले आदि कष्ट बहुत ही शीघ्र दूर हो जाते हैं । जले हुए स्थान पर जलने का दाग तक बाकी नहीं रहता है । आग से, उबलते हुए पानी से अथवा तेल से बुरी तरह जले हुए रोगियों तक को आप यह विटामिन खिलाकर ठीक कर सकते हैं। दुर्घटना में चेहरा इत्यादि फट जाने पर प्लास्टिक सर्जरी की जगह यह विटामिन कार्य करता है, मात्र कुछ सप्ताहों के लगातार इस विटामिन के प्रयोग से चेहरा बिना प्लास्टिक सर्जरी के पहले से भी सुन्दर निकल आता है ।
कस्टिक सोडा की लेई पी जाने से एक बच्ची का गला जलकर सिकुड़ गया था जिसके कारण वह कुछ भी खाने-पीने में असमर्थ हो गई थी, उसकी नाक में ट्यूब प्रविष्ट करके उसे दूध पिलाया जाता था । उस बच्ची को प्रतिदिन विटामिन ‘ई’ काफी मात्रा में खिलाते रहने से उसका गला पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गया ।
अनेक रोगी जिनका मांस आग से जल जाने के कारण गल चुका था । आग से जले उस स्थान पर विटामिन ‘ई’ के कैप्सूल में संक्रमण रहित सुई चुभोकर दवा को आग से जले स्थान पर दिन में दो बार टपकाते रहने से और प्रत्येक भोजन के बाद 200 यूनिट विटामिन ‘ई’ खिलाते रहने से जल जाने से दर्द, कष्ट, पानी बहने के कष्ट तुरन्त ही दूर हो गये । कुछ दिनों के प्रयोग से ही घाव भर गये और उस स्थान पर जल जाने के निशान तक बाकी न रहे ।
दर्द (Pain)
विटामिन ‘ई’ में दर्दों को दूर करने का विशेष गुण है। आग से जल जाने पर जब रोगी दर्द से तड़प रहा हो तो उसको विटामिन ‘ई’ खिलाते ही दर्द और कष्ट दूर हो जाता है। जब बर्फ या सर्दी के कारण अँगुलियाँ ठिठुर कर बेकार हो जायें और उनमें सख्त दर्द हो तो संक्रमण रहित सुई विटामिन ‘ई’ के कैप्सूल में चुभोकर दवा को आग से जले या सर्दी से ठिठुरे भाग पर डालते ही रोगी का दर्द मिनटों में दूर हो जाता है। धावों में तीव्र दर्द, खुजली आदि कष्ट इस विटामिन को खिलाते रहने से दूर हो जाते हैं । मधुमक्खियाँ काट लेने पर सख्त दर्द, जलन, खुजली को दूर करने के लिए उसको डंक पर डालते ही रोगी का कष्ट मिनटों में दूर हो जाता है ।
बच्चों के रोग
• समय से पहले उत्पन्न होने वाले सैकड़ों बच्चों को मरने से बचाने के लिए जब उनको ऑक्सीजन टेंट में रखा गया तो ऑक्सीजन के दबाव से वे अन्धे हो गये। जान हापकिन्स मैडीकल स्कूल में समय से पहले उत्पन्न 23 बच्चों को 150 मि.ग्रा. विटामिन ई प्रतिदिन उनके उत्पन्न होते ही खिलानी प्रारम्भ कर दी गई, जिसके कारण ऐसे बच्चे ऑक्सीजन टेन्ट में रखने पर भी अन्धे न हुए, परन्तु यह विटामिन न खिलाने वाले बच्चों में से 21.8% बच्चे अन्धे हो गये ।
• जिन गर्भवती स्त्रियों के शरीर में विटामिन ‘ई’ की कमी होती है, उनके द्वारा उत्पन्न हुए बच्चों को पाण्डु रोग (यरकान) हो जाता है। ऐसे बच्चों को जिनका शरीर पीला पड़ गया हो विटामिन ‘ई’ खिलाना आरम्भ कर देने से शीघ्र ही उनका पीलिया रोग दूर हो जाता है ।
• बच्चा उत्पन्न होने पर इसमें विटामिन ‘ई’ की कमी होने पर उसकी रक्ताल्पता का रोग हो जाता है । गर्भ के समय स्त्री को विटामिन ‘ई’ खिलाकर इस रोग को दूर किया जा सकता है ।
• गर्भवती स्त्री में विटामिन ‘ई’ की कमी के फलस्वरूप इसके बच्चा उत्पन्न होने पर उसका सिर बेढब-सा (कुरूप) हो जाता है । ऐसे बच्चे देर से बैठना और चलना सीखते हैं। ऐसे बच्चों को एक सप्ताह तक 100 यूनिट विटामिन ‘ई’ प्रतिदिन खिलाते रहने से एक सप्ताह में बच्चा बैठने लग जाता है ।
संक्रमण, अनुर्जता (इन्फेक्शन, एलर्जी)
शरीर में विटामिन ‘ई’ कम हो जाने पर अथवा न रहने पर रोगी में कीटाणु, बैक्टीरिया आसानी से प्रविष्ट होकर संक्रामक रोग फैलाने लग जाते हैं। शरीर में कीटाणुओं से मुकाबला करने की शक्ति नहीं रहती है। रोगी में विभिन्न प्रकार की एलर्जी (अनुर्जता) के प्रभाव उत्पन्न होने लग जाते हैं । विटामिन ‘ई’ के शरीर में घट जाने से विटामिन ‘ए’ भी नष्ट होने लग जाता है तथा शरीर में विटामिन ‘ई’ पर्याप्त मात्रा में होने पर विटामिन ‘ए’ की भी आवश्यकता कम पड़ती है। मानव शरीर के लिए विटामिन ‘ए’, विटामिन ‘ई’ से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है । इस विटामिन की कमी हो जाने से मनुष्य की सेलें स्पंज की भांति छेदों वाली हो जाती हैं जिनसे ये कीटाणुओं और अनुर्जता से शीघ्र ही प्रभावित हो जाती हैं ।
पिट्यूटरी, थायराइड ग्लैंड और गिल्हड़
थायराइड ग्लैण्ड मनुष्य के गले में होती है। इसका हारमोन रक्त और शरीर को शक्तिशाली बनाये रखता है। जब इस ग्रन्थि के हारमोन में कमी या अधिकता आ जाती है तो मनुष्य को कई रोग हो जाते हैं। इस ग्रन्थि का हारमोन कम मात्रा में उत्पन्न होने पर मनुष्य की आँखों के ढेले बाहर निकल आते हैं और उभरे हुए दिखाई देते हैं। जब ऐसे रोगियों को यह विटामिन 500 यूनिट प्रतिदिन खिलाई गई तो उनका यह रोग दूर होने लग गया । मनुष्य के मस्तिष्क में पिट्यूटरी ग्लैण्ड है जो तमाम ग्लैण्डों को कन्ट्रोल करती है और तमाम शरीर के अंगों में अपना हार्मोन भेजती है, इस हेतु विटामिन ‘ई’ सबसे अधिक जरूरी है । इस ग्रन्थि में विटामिन ‘ई’ बाकी (शेष) शरीर से 200 गुना अधिक होता है। इस ग्रन्थि में विटामिन ‘ई’ कम हो जाने पर उसमें पूरी मात्रा में हार्मोन नहीं बनता है । इसका हार्मोन ही मर्दाना अंगों और एड्रीनल ग्लैंड में हार्मोन पैदा करने में सहायक होता है । विटामिन ‘ई’ खिलाते ही मनुष्य में मर्दाना ताकत, वीर्य और साहस उत्पन्न होने लग जाता है जिसके कारण वह अपने आपको जवान महसूस करने लगता है ।
विटामिन ‘ई’ की कमी हो जाने से पुरुषों में सम्भोग शक्ति कम हो जाती है तथा पुरुष अल्प वीर्यवान हो जाता है और स्त्रियों में स्तनों का विकास नहीं होता है अर्थात् स्तन निकलने रुक जाते हैं तथा युवावस्था में भी स्त्रियों के स्तनों में उभार उत्पन्न नहीं होता है। इसी विटामिन की सहायता से स्त्रियों में प्रोजेस्टेरोन हार्मोन का निर्माण होता है।
मानसिक रोग और पागलपन
अमेरिका के डॉक्टर ‘माईकिल’ और ‘रघलम’ मानसिक रोगों से ग्रसित रोगियों को विटामिन ‘ई’ खिलाते रहने से 60% रोगियों को लाभ होने लगा, रोगी जिनको अधिक चिन्ता रहती थी और जो बिल्कुल चुपचाप रहते थे । जिनको मानसिक कमजोरी आ चुकी थी, उनको भी विशेष रूप से विटामिन ‘ई’ के प्रयोग से लाभ हुआ।
पुट्ठों (मांसपेशियों के रोग)
विटामिन ‘ई’ की कमी हो जाने से मनुष्यों के पुट्ठे (मांसपेशियाँ) कमजोर और दुर्बल होकर सिकुड़ जाते हैं । उनमें ऐंठन और दर्द होने लग जाता है, इस हेतु 400 मिलीग्राम विटामिन ‘ई’ खिलाया जाना लाभकारी रहता है। बड़ी आयु के लोगों और वृद्ध पुरुषों तक की यह शिकायत इस प्रयोग से दूर हो जाती है। डॉक्टर ‘एवान’ (Evan) चूहों को विटामिन ‘ई’ रहित खुराक खिलाते रहे जिसके परिणामस्वरूप थोड़े ही समय में मादा चूहों की पिछली टाँगों में पक्षाघात हो गया किन्तु यह विटामिन जब उन्हीं चूहों को खिलाया गया तो थोड़े दिन के प्रयोग से ही उनका यह रोग दूर हो गया । फैरिंग हॉस्पिटल के ‘डॉ० बिचनौल’ ने अपने 18 रोगियों जिनके पुट्ठे दुर्बल और कमजोर हो चुके थे, उनको अंकुर निकले गेहूँ (Wheat Germ) खिलाते रहे, परिणामस्वरूप रोगी कुछ ही समय के प्रयोग से इतने ताकतवर हो गये कि उनको उनके परिचितों को पहिचानना भी मुश्किल हो गया ।
एक तीन वर्षीय बच्चे के पुट्ठे इतने अधिक कमजोर थे जिसके कारण वह बच्चा चलने-फिरने के अयोग्य हो गया था, चिकित्सकों ने जवाब दे दिया था कि यह बच्चा आयु पर्यन्त चल-फिर नहीं सकेगा। लगातार 10 वर्ष तक उसकी यही दशा रही। बाद में उसी बच्चे को काफी समय तक विटामिन ‘ई’ खिलाया गया जिसके फलस्वरूप वह चलने-फिरने लगा और शिक्षा प्राप्ति हेतु स्कूल जाने लगा ।
फालिज, पक्षाघात, सन्धिवात (Rheumatism)
लेबोरेट्री में जब जानवरों को काफी समय तक विटामिन ‘ई’ रहित भोजन खिलाया जाता रहा तो थोड़े ही समय में उनको पक्षाधात (फालिज) होने लगा । उनके पुट्ठों (मांसपेशियों) को अनुवीक्षण यंत्र में देखने पर पता चला कि उनके तन्तुओं की शक्ति घुलकर निकल चुकी है । इससे पता चलता है कि विटामिन ‘ई’ पुट्ठों के लिए कितनी अनिवार्य है । बाद में इस विटामिन को पक्षाघात ग्रस्त रोगियों को खिलाते रहने से उनका पक्षाघात दूर होने लग गया था और उनके पुट्ठे शक्तिशाली बन गये ।
जिन रोगियों के पुट्ठों में दर्द होता हो, झटके लगते हों, ऐंठन होती हो, और वे भली प्रकार गति न कर सकते हों ऐसे रोगियों को विटामिन ‘ई’ खिलाकर उनके कष्टों को दूर किया जा सकता है । जोड़ों के पुराने दर्द और शोथ (Rheumatism) के कारण तन्तुओं में शोथ हो जाने पर इस विटामिन के प्रयोग से बहुत ही अधिक लाभ होता है । कई प्रकार के पक्षाघात में इसके प्रयोग से बहुत ही लाभ पहुँचा है ।
रक्तस्राव
रोगी जिनके अन्दर या बाहर आसानी से रक्तस्राव (Hemophilia) होने लग जाता है उनको विटामिन ई खिलाने से शीघ्र ही यह कष्ट दूर होने लग जाता है ।
दृष्टि पटल शोथ (Detachment of Retina)
जब आँख के प्रकाश वाला भीतरी पर्दा (Retina) आँख के ढेले के दूसरे पर्दों से पृथक हो जाता है तो रोगी को समीप की वस्तुएँ भली-भाँति दिखाई नहीं देती हैं। इस कारण रोगी थोड़ा या बिल्कुल अन्धा हो जाता है। इस रोग को Detachment of Retina कहते हैं । इस रोग में रेटिना के पर्दे पर पैदा दागों के सिकुड़ जाने से रोगी की दृष्टि बहुत कम हो जाती है । रोगी को विटामिन ‘ई’ खिलाते रहने से यह कष्ट दूर होकर उसकी दृष्टि तेज हो जाती है ।
अन्तरिक्ष यात्रा
अन्तरिक्ष में उड़ने वालों में अधिक ऑक्सीजन होने के कारण रक्त की कमी हो जाती है तथा दिल कमजोर हो जाता है, उनको विटामिन ‘ई’ खिलाते रहने से यह रोग दूर हो जाता है ।
दाग, सिकुड़ाव व तन्तु
शरीर के किसी भीतरी अंग में दाग पैदा हो जाने, तन्तु बन जाने से वह अंग सिकुड़ जाने से मांसपेशियाँ सिकुड़ जाती हैं जिससे वह अंग गति करने में अयोग्य हो जाते हैं। इस रोग के आरम्भ में इस विटामिन को खिलाना आरम्भ कर देने से भीतरी अंगों के तन्तुओं में सिकुड़ाव और दाग पैदा नहीं हो पाते। जोड़ों में शोथ पैदा हो जाने, मूत्र-मार्ग सिकुड़ जाने, रक्त वाहिनियाँ तेज हो जाने पर उनमें घाव या सिकुड़ाव के दाग इस विटामिन के प्रयोग से दूर हो जाते हैं। जब हाथों के अन्दर के मांस के तन्तु मोटे और कठोर हो जाते हैं तो हाथों की अँगुलियों पर खिंचाव पड़ने लग जाता है, जिससे अँगुलियाँ हिलाने पर बहुत दर्द और कष्ट होता है। इस रोग को Dupuytren’s Contracture कहते हैं। पुरुषेन्द्रिय की सुपारी पर घाव से पैदा दागों से सिकुड़ाव पैदा होने पर तीव्र दर्द होता है और रोगी नपुंसक तक हो जाता है। इन भयानक रोगों को विटामिन ‘ई’ पर्याप्त मात्रा में खिलाते रहने से दूर किया जा सकता है।
ऑक्सीजन की कमी
विटामिन ‘ई’ की शरीर में कमी हो जाने पर ऑक्सीजन शरीर की प्रत्येक सेलों में नहीं पहुँच पाती हैं। ऑक्सीजन की कमी से उत्पन्न बेहोशी विटामिन ‘ई’ के प्रयोग से दूर हो जाती है । दिल की बढ़ी हुई धड़कन कम हो जाती है। रोगी की थकावट दूर हो जाती है और रोगी अपने शरीर में चुस्ती प्रतीत करने लगता है।
पहाड़ों पर चढ़ते रहने वालों को इस विटामिन के प्रयोग करने से काफी ऊँची चढ़ाई पर चढ़ने के फलस्वरूप भी सांस नहीं फूलती है । जब मनुष्य की टिशूज में ऑक्सीजन कम हो जाती है उनमें दाग उत्पन्न हो जाते हैं । ऑपरेशन करने, जल जाने, दुर्घटना हो जाने पर शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। ऐसे रोगी को यह विटामिन खिलाकर इन कष्टों को दूर किया जा सकता है। जब रोगी के फेफड़ों में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं पहुँचती है तो उसका दम फूलने लगता है जिसके कारण उसे साँस लेने में कष्ट होने लगता है । फेफड़ों का दमा (श्वास रोग) और फेफड़ों के अन्दर वायु स्थान चौड़ा हो जाने (Emphysema) और (Buerger Disease) इस रोग में पैर और टांगों की धमनियों में और शिराओं में शोथ आ जाती है, यह रोग धूम्रपान करने वालों को अधिक होता है, विटामिन ‘ई’ के प्रयोग से यह समस्त कष्ट दूर होने लगते हैं।
शिराओं की सूजन (Phlebitis)
विटामिन ‘ई’ रक्त संचार में उत्तेजना और सुधार करती है और Phlebitis शिराओं में सूजन व दर्द, उनमें उभार और घाव पैदा हो जाने को रक्त संचार में सुविधा उत्पन्न करके दूर कर देती है। एक गर्भवती युवा स्त्री की पिंडली की शिरा अत्यधिक फूल गई थी, जिसके कारण वह चलने-फिरने के अयोग्य हो गई (वह टैनिस की प्रसिद्ध खिलाड़ी थी) उसकी टाँगें सूजी हुई थीं और उनमें बैंगनी रंग की एक बहुत बड़ी गुठली पैदा हो गयी थी जिसमें तीव्र दर्द पैदा होता था । गर्भ का सातवाँ मास था । उसके चिकित्सक के अनुसार टाँग का ऑपरेशन ही एकमात्र इलाज था, ऑपरेशन के बाद भी टाँग में दोष रह जाने से वह टेनिस खेलने के योग्य न रह सकती थी, इसी कारण वह ऑपरेशन कराने को तैयार न हुई । उसको विटामिन ‘ई’ का प्रयोग कराया जाता रहा जिसके फलस्वरूप उसकी शिरा की गुठली बिल्कुल दूर हो गई । ऑपरेशन की नौबत ही न आई और टाँग में किसी भी प्रकार का दोष न रहा।
खिलाड़ी, पहलवान और विटामिन ‘ई’
विटामिन ‘ई’ बारीक रक्त वाहिनियों (कैपीलरीज) को फैला देता है जिससे रक्त पुट्ठों तथा स्नायु में अधिक मात्रा में पहुँचने लग जाता है । विटामिन ‘ई’ पुट्ठों की ऑक्सीजन की बढ़ी हुई जरूरतों को 50% कम कर देता है जिससे हृदय में रक्त अधिक मात्रा में पहुँचने लग जाता है । इसलिए दौड़ने-भागने वाले खिलाड़ियों और पहलवानों के दिल के लिए यह विटामिन बहुत ही जरूरी है । इसके लगातार प्रयोग से काफी समय तक दौड़ने और परिश्रम करने पर भी साँस नहीं फूलती है ।
चूना (कैल्शियम) और विटामिन ‘ई’
जोड़ों की शोथ, रक्त वाहिनियाँ कठोर हो जाने और कई दूसरे रोगों में शरीर के उन संस्थानों में चूना और कैल्शियम जम जाता है । हड्डियों और शरीर में इनकी अधिकता से समय से पूर्व मनुष्य बूढ़ा होने लग जाता है। विटामिन ‘ई’ को खिलाकर चूना, कैल्शियम को जमने से रोका जा सकता है ।
रक्त या मूत्र में शक्कर (शुगर) की अधिकता
जिन रोगियों के रक्त या मूत्र में शुगर (शर्करा) बहुत अधिक मात्रा में आती है और उनको ‘मधुमेह’ का रोग हो तथा जो इस रोग से बचे रहने के लिए इन्सुलिन का इन्जेक्शन लगवा रहे हों, वे विटामिन ‘ई’ खाकर शुगर की मात्रा कम कर सकते हैं।
पित्ती, जवानी के कील व मुँहासे
विटामिन ‘ई’ पित्ती, युवा लड़के और लड़कियों के चेहरे पर कील, मुँहासे और फुन्सियाँ निकलना तथा योनि की खुजली में विशेष लाभप्रद है। इसके प्रयोग से चर्म के मस्से और गाँठे तक झड़ जाती हैं ।
विशेष नोट – विटामिन ‘ई’ बच्चों की बढ़ोत्तरी, हृदय रोगों को दूर करने, हृदय को शक्तिशाली बनाने और स्त्री (गुप्त) रोग निवारण हेतु बहुत ही सफल औषधि हैं । ‘डॉ० शूट’ और उनके साथी तो दिल को शक्तिशाली बनाने के लिए इस विटामिन का प्रयोग बहुत ही आवश्यक समझते हैं । मनुष्य के दिल को जीवनपर्यन्त रात-दिन काम करना पड़ता है । वह 24 घण्टे के अन्दर हमारा 11 टन रक्त शरीर को बार-बार पहुँचाकर हमको जीवित बनाये रखता है। जीवनभर आराम न करने के लिए हृदय को शक्तिशाली बनाना अति आवश्यक है। ‘डॉ० शूट’ का कहना है कि हृदय और रक्त संचार सम्बन्धी रोगों के लिए इससे अधिक सफल औषधि अन्य कोई (ऐलोपैथी में) नहीं है।